एवमाकाशपदार्थादाकालपदार्थाच्च समस्तैरेव संभावितप्रदेशसद्भावैः पदार्थैः समग्र एव यः समाप्तिं नीतो लोकस्तं खलु तदन्तःपातित्वेऽप्यचिन्त्यस्वपरपरिच्छेदशक्तिसंपदा जीव एव जानीते, नत्वितरः । एवं शेषद्रव्याणि ज्ञेयमेव, जीवद्रव्यं तु ज्ञेयं ज्ञानं चेति ज्ञान- ज्ञेयविभागः । अथास्य जीवस्य सहजविजृम्भितानन्तज्ञानशक्तिहेतुके त्रिसमयावस्थायित्वलक्षणे वि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं’’ ।।१४४।। एवं निश्चयकालव्याख्यानमुख्यत्वेनाष्टमस्थले गाथात्रयं गतम् । इति पूर्वोक्तप्रकारेण ‘दव्वं जीवमजीवं’ इत्याद्येकोनविंशतिगाथाभिः स्थलाष्टकेन विशेष- ज्ञेयाधिकारः समाप्तः ।। अतः परं शुद्धजीवस्य द्रव्यभावप्राणैः सह भेदनिमित्तं ‘सपदेसेहिं समग्गो’
अन्वयार्थ : — [सप्रदेशैः अर्थैः ] सप्रदेश पदार्थोंके द्वारा [निष्ठितः ] समाप्तिको १प्राप्त [समग्रः लोकः ] सम्पूर्ण लोक [नित्यः ] नित्य है, [तं ] उसे [यः जानाति ] जो जानता है [जीवः ] वह जीव है, — [प्राणचतुष्काभिसंबद्धः ] जो कि (संसार दशामें) चार प्राणोंसे संयुक्त है ।।१४५।।
टीका : — इसप्रकार जिन्हें प्रदेशका सद्भाव फलित हुआ है ऐसे आकाशपदार्थसे लेकर काल पदार्थ तकके सभी पदार्थोंसे समाप्तिको प्राप्त जो समस्त लोक है उसे वास्तवमें, उसमें २अंतःपाती होनेपर भी, अचिन्त्य ऐसी स्वपरको जाननेकी शक्तिरूप सम्पदाके द्वारा जीव ही जानता है, दूसरा कोई नहीं । इसप्रकार शेष द्रव्य ज्ञेय ही हैं और जीवद्रव्य तो ज्ञेय तथा ज्ञान है; — इसप्रकार ज्ञान और ज्ञेयका विभाग है ।
अब, इस जीवको, सहजरूपसे (स्वभावसे ही) प्रगट अनन्तज्ञानशक्ति जिसका हेतु है और तीनों कालमें अवस्थायिपना (टिकना) जिसका लक्षण है ऐसा, वस्तुका स्वरूपभूत होनेसे १. छह द्रव्योंसे ही सम्पूर्ण लोक समाप्त हो जाता है, अर्थात् उनके अतिरिक्त लोकमें दूसरा कुछ नहीं है । २. अंतःपाती = अन्दर आ जानेवाला; अन्दर समा जानेवाला ( – जीव लोकके भीतर आ जाता है ।)
तसु जाणनारो जीव, प्राणचतुष्कथी संयुक्त जे. १४५.