आत्मनो हि परद्रव्यसंयोगकारणमुपयोगविशेषः । उपयोगो हि तावदात्मनः स्वभाव-
श्चैतन्यानुविधायिपरिणामत्वात् । स तु ज्ञानं दर्शनं च, साकारनिराकारत्वेनोभयरूपत्वा-
च्चैतन्यस्य । अथायमुपयोगो द्वेधा विशिष्यते शुद्धाशुद्धत्वेन । तत्र शुद्धो निरुपरागः, अशुद्धः
सोपरागः । स तु विशुद्धिसंक्लेशरूपत्वेन द्वैविध्यादुपरागस्य द्विविधः शुभोऽशुभश्च ।।१५५।।
अथात्र क उपयोगः परद्रव्यसंयोगकारणमित्यावेदयति —
उवओगो जदि हि सुहो पुण्णं जीवस्स संचयं जादि ।
असुहो वा तध पावं तेसिमभावे ण चयमत्थि ।।१५६।।
द्वेषमोहरूपश्चाशुभः । वा वा शब्देन शुभाशुभानुरागरहितत्वेन शुद्धः । उवओगो अप्पणो हवदि इत्थं-
भूतस्त्रिलक्षण उपयोग आत्मनः संबन्धी भवतीत्यर्थः ।।१५५।। अथोपयोगस्तावन्नरनारकादिपर्याय-
कारणभूतस्य कर्मरूपस्य परद्रव्यस्य संयोगकारणं भवति । तावदिदानीं कस्य कर्मणः क उपयोगः कारणं
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञेयतत्त्व -प्रज्ञापन
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टीका : — वास्तवमें आत्माको परद्रव्यके संयोगका कारण १उपयोगविशेष है । प्रथम
तो उपयोग वास्तवमें आत्माका स्वभाव है क्योंकि वह चैतन्य – अनुविधायी (उपयोग चैतन्यका
अनुसरण करके होनेवाला) परिणाम है । और वह उपयोग ज्ञान तथा दर्शन है, क्योंकि चैतन्य
२साकार और ३निराकार ऐसा उभयरूप है । अब इस उपयोगके शुद्ध और अशुद्ध ऐसे दो भेद
किये गये हैं । उसमें, शुद्ध उपयोग निरुपराग (-निर्विकार) है; और अशुद्ध उपयोग सोपराग
(-सविकार) है । और वह अशुद्ध उपयोग शुभ और अशुभ ऐसे दो प्रकारका है, क्योंकि
उपराग विशुद्धिरूप और संक्लेशरूप ऐसा दो प्रकारका है (अर्थात् विकार मन्दकषायरूप और
तीव्रकषायरूप ऐसा दो प्रकारका है ) ।
भावार्थ : — आत्मा उपयोगस्वरूप है । प्रथम तो उपयोगके दो भेद हैं — शुद्ध और
अशुद्ध । और फि र अशुद्ध उपयोगके दो भेद हैं, शुभ तथा अशुभ ।।१५५।।
अब कहते हैं कि इनमें कौनसा उपयोग परद्रव्यके संयोगका कारण है : —
१. उपयोगविशेष = उपयोगका भेद, प्रकार या अमुक प्रकारका उपयोग । (अशुद्धोपयोग परद्रव्यके संयोगका
कारण है; यह १५६ वीं गाथामें कहेंगे ।)
२. साकार = आकारवाला या भेदवाला; सविकल्प; विशेष ।
३. निराकार = आकार रहित; भेदरहित; निर्विकल्प; सामान्य ।
उपयोग जो शुभ होय, संचय थाय पुण्य तणो तहीं,
ने पापसंचय अशुभथी; ज्यां उभय नहि संचय नहीं. १५६.