कथ्यते — अप्पा आत्मा भवति । कथंभूतः । उवओगप्पा चैतन्यानुविधायी योऽसावुपयोगस्तेन
भावार्थ : — मनुष्य, देव इत्यादि अनेकद्रव्यात्मक पर्यायोंमें भी जीवका स्वरूपअस्तित्व और प्रत्येक परमाणुका स्वरूप – अस्तित्व सर्वथा भिन्न – भिन्न है । सूक्ष्मतासे देखने पर वहाँ जीव और पुद्गलका स्वरूप – अस्तित्व (अर्थात् अपने – अपने द्रव्य – गुण – पर्याय और ध्रौव्य – उत्पाद – व्यय) स्पष्टतया भिन्न जाना जा सकता है । स्व – परका भेद करनेके लिये जीवको इस स्वरूपास्तित्वको पद – पद पर लक्ष्यमें लेना योग्य है । यथा – यह (जाननेमें आता हुआ) चेतन द्रव्य – गुण – पर्याय और चेतन ध्रौव्य – उत्पाद – व्यय जिसका स्वभाव है ऐसा मैं इस (पुद्गल) से भिन्न रहा; और यह अचेतन द्रव्य – गुण – पर्याय तथा अचेतन ध्रौव्य – उत्पाद – व्यय जिसका स्वभाव है ऐसा पुद्गल यह (मुझसे) भिन्न रहा । इसलिये मुझे परके प्रति मोह नहीं है; स्व – परका भेद है ।।१५४।।
अब, आत्माको अत्यन्त विभक्त करनेके लिये परद्रव्यके संयोगके कारणका स्वरूप कहते हैं : —
अन्वयार्थ : — [आत्मा उपयोगात्मा ] आत्मा उपयोगात्मक है; [उपयोगः ] उपयोग [ज्ञानदर्शनं भणितः ] ज्ञान – दर्शन कहा गया है; [अपि ] और [आत्मनः ] आत्माका [सः उपयोगः ] वह उपयोग [शुभः अशुभः वा ] शुभ अथवा अशुभ [भवति ] होता है ।।१५५।।