Pravachansar (Hindi). Gatha: 155.

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अथात्मनोऽत्यन्तविभक्तत्वाय परद्रव्यसंयोगकारणस्वरूपमालोचयति
अप्पा उवओगप्पा उवओगो णाणदंसणं भणिदो
सो वि सुहो असुहो वा उवओगो अप्पणो हवदि ।।१५५।।
आत्मा उपयोगात्मा उपयोगो ज्ञानदर्शनं भणितः
सोऽपि शुभोऽशुभो वा उपयोग आत्मनो भवति ।।१५५।।
भेदज्ञानी विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावमात्मतत्त्वं विहाय देहरागादिपरद्रव्ये मोहं न गच्छतीत्यर्थः ।।१५४।।
एवं नरनारकादिपर्यायैः सह परमात्मनो विशेषभेदकथनरूपेण प्रथमस्थले गाथात्रयं गतम् अथात्मनः
पूर्वोक्तप्रकारेण नरनारकादिपर्यायैः सह भिन्नत्वपरिज्ञानं जातं, तावदिदानीं तेषां संयोगकारणं
कथ्यते
अप्पा आत्मा भवति कथंभूतः उवओगप्पा चैतन्यानुविधायी योऽसावुपयोगस्तेन
निर्वृत्तत्वादुपयोगात्मा उवओगो णाणदंसणं भणिदो स चोपयोगः सविकल्पं ज्ञानं निर्विकल्पं दर्शनमिति
भणितः सो वि सुहो सोऽपि ज्ञानदर्शनोपयोगो धर्मानुरागरूपः शुभः, असुहो विषयानुरागरूपो
३०प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
भावार्थ :मनुष्य, देव इत्यादि अनेकद्रव्यात्मक पर्यायोंमें भी जीवका
स्वरूपअस्तित्व और प्रत्येक परमाणुका स्वरूपअस्तित्व सर्वथा भिन्नभिन्न है सूक्ष्मतासे
देखने पर वहाँ जीव और पुद्गलका स्वरूपअस्तित्व (अर्थात् अपनेअपने द्रव्यगुणपर्याय
और ध्रौव्यउत्पादव्यय) स्पष्टतया भिन्न जाना जा सकता है स्वपरका भेद करनेके लिये
जीवको इस स्वरूपास्तित्वको पदपद पर लक्ष्यमें लेना योग्य है यथायह (जाननेमें आता
हुआ) चेतन द्रव्यगुणपर्याय और चेतन ध्रौव्यउत्पादव्यय जिसका स्वभाव है ऐसा मैं इस
(पुद्गल) से भिन्न रहा; और यह अचेतन द्रव्यगुणपर्याय तथा अचेतन ध्रौव्यउत्पादव्यय
जिसका स्वभाव है ऐसा पुद्गल यह (मुझसे) भिन्न रहा इसलिये मुझे परके प्रति मोह नहीं
है; स्वपरका भेद है ।।१५४।।
अब, आत्माको अत्यन्त विभक्त करनेके लिये परद्रव्यके संयोगके कारणका स्वरूप
कहते हैं :
अन्वयार्थ :[आत्मा उपयोगात्मा ] आत्मा उपयोगात्मक है; [उपयोगः ] उपयोग
[ज्ञानदर्शनं भणितः ] ज्ञानदर्शन कहा गया है; [अपि ] और [आत्मनः ] आत्माका [सः
उपयोगः ] वह उपयोग [शुभः अशुभः वा ] शुभ अथवा अशुभ [भवति ] होता है ।।१५५।।
छे आतमा उपयोगरूप, उपयोग दर्शनज्ञान छे;
उपयोग ए आत्मा तणो शुभ वा अशुभरूप होय छे. १५५.