यतो हि सूक्ष्मत्वपरिणतैर्बादरपरिणतैश्चानतिसूक्ष्मत्वस्थूलत्वात् कर्मत्वपरिणमनशक्ति- योगिभिरतिसूक्ष्मस्थूलतया तदयोगिभिश्चावगाहविशिष्टत्वेन परस्परमबाधमानैः स्वयमेव सर्वत एव पुद्गलकायैर्गाढं निचितो लोकः, ततोऽवधार्यते न पुद्गलपिण्डानामानेता पुरुषोऽस्ति ।।१६८।।
भृतस्तिष्ठति तथा पुद्गलैरपि । ततो ज्ञायते यत्रैव शरीरावगाढक्षेत्रे जीवस्तिष्ठति बन्धयोग्यपुद्गला अपि
टीका : — सूक्ष्मतया परिणत तथा बादररूप परिणत, अति सूक्ष्म अथवा अति स्थूल न होनेसे कर्मरूप परिणत होनेकी शक्तिवाले तथा अति सूक्ष्म अथवा अति स्थूल होनेसे कर्मरूप परिणत होनेकी शक्तिसे रहित — ऐसे पुद्गलकार्योंके द्वारा, अवगाहकी विशिष्टताके कारण परस्पर बाधा किये विना, स्वयमेव सर्वतः (सर्व प्रदेशोंसे) लोक गाढ़ भरा हुआ है । इससे निश्चित होता है कि पुद्गलपिण्डोंका लानेवाला आत्मा नहीं है ।
भावार्थ : — इस लोकमें सर्वत्र जीव हैं और कर्मबंधके योग्य पुद्गलवर्गणा भी सर्वत्र है । जीवके जैसे परिणाम होते हैं उसीप्रकारका जीवको कर्मबंध होता है । ऐसा नहीं है कि आत्मा किसी बाहरके स्थानसे कर्मयोग्य पुद्गल लाकर बंध करता है ।।१६८।।
अन्वयार्थ : — [कर्मत्वप्रायोग्याः स्कंधाः ] कर्मत्वके योग्य स्कंध [जीवस्यपरिणतिं प्राप्य ] जीवकी परिणतिको प्राप्त करके [कर्मभावं गच्छन्ति ] कर्मभावको प्राप्त होते हैं; [न हि ते जीवेन परिणमिताः ] जीव उनको नहीं परिणमाता ।।१६९।।
कर्मत्वने पामे; नहि जीव परिणमावे तेमने. १६९.