Pravachansar (Hindi).

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पन्नस्य ग्रहणं यस्येत्यतीन्द्रियज्ञानमयत्वस्य प्रतिपत्तिः न लिंगैरिन्द्रियैर्ग्राह्यतामापन्नस्य ग्रहणं
यस्येतीन्द्रियप्रत्यक्षाविषयत्वस्य न लिंगादिन्द्रियगम्याद्धूमादग्नेरिव ग्रहणं यस्येतीन्द्रिय-
प्रत्यक्षपूर्वकानुमानाविषयत्वस्य न लिंगादेव परैः ग्रहणं यस्येत्यनुमेयमात्रत्वाभावस्य
न लिंगादेव परेषां ग्रहणं यस्येत्यनुमातृमात्रत्वाभावस्य न लिंगात्स्वभावेन ग्रहणं यस्येति
प्रत्यक्षज्ञातृत्वस्य न लिंगेनोपयोगाख्यलक्षणेन ग्रहणं ज्ञेयार्थालम्बनं यस्येति बहिरर्थालम्बन-
ज्ञानाभावस्य न लिंगस्योपयोगाख्यलक्षणस्य ग्रहणं स्वयमाहरणं यस्येत्यनाहार्यज्ञानत्वस्य
न लिंगस्योपयोगाख्यलक्षणस्य ग्रहणं परेण हरणं यस्येत्यहार्यज्ञानत्वस्य न लिंगे
‘फासेहि पोग्गलाणं’ इत्यादि सूत्रद्वयम् ततः परं निश्चयेन द्रव्यबन्धकारणत्वाद्रागादिपरिणाम एव बन्ध
इति कथनमुख्यतया ‘रत्तो बंधदि’ इत्यादि गाथात्रयम् अथ भेदभावनामुख्यत्वेन ‘भणिदा पुढवी’
इत्यादि सूत्रद्वयम् तदनन्तरं जीवो रागादिपरिणामानामेव कर्ता, न च द्रव्यकर्मणामिति कथनमुख्यत्वेन
३२६प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
प्रतिपत्ति (प्राप्ति, प्रतिपादन) करनेके लिये है वह इसप्रकार है :(१) ग्राहक (-ज्ञायक)
जिसके लिंगोंके द्वारा अर्थात् इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण (-जानना) नहीं होता वह अलिंगग्रहण है;
इसप्रकार ‘आत्मा अतीन्द्रियज्ञानमय’ है इस अर्थकी प्राप्ति होती है
(२) ग्राह्य (ज्ञेय) जिसका
लिंगोंके द्वारा अर्थात् इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण (-जानना) नहीं होता वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार
‘आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्षका विषय नहीं है’ इस अर्थकी प्राप्ति होती है
(३) जैसे धुंएँसे अग्निका
ग्रहण (ज्ञान) होता है, उसीप्रकार लिंग द्वारा, अर्थात् इन्द्रियगम्य (-इन्द्रियोंसे जानने योग्य
चिह्न) द्वारा जिसका ग्रहण नहीं होता वह अलिंगग्रहण है
इसप्रकार ‘आत्मा इन्द्रियप्रत्यक्षपूर्वक
अनुमानका विषय नहीं है’ ऐसे अर्थकी प्राप्ति होती है (४) दूसरोंके द्वारामात्र लिंग द्वारा
ही जिसका ग्रहण नहीं होता वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार ‘आत्मा अनुमेय मात्र (केवल
अनुमानसे ही ज्ञात होने योग्य) नहीं है’ ऐसे अर्थकी प्राप्ति होती है
(५) जिसके लिंगसे ही
परका ग्रहण नहीं होता वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार ‘आत्मा अनुमातामात्र (केवल अनुमान
करनेवाला हो) नहीं है’ ऐसे अर्थकी प्राप्ति होती है
(६) जिसके लिंगके द्वारा नहीं किन्तु
स्वभावके द्वारा ग्रहण होता है वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार ‘आत्मा प्रत्यक्ष ज्ञाता है’ ऐसे
अर्थकी प्राप्ति होती है
(७) जिसके लिंग द्वारा अर्थात् उपयोगनामक लक्षण द्वारा ग्रहण नहीं
है अर्थात् ज्ञेय पदार्थोंका आलम्बन नहीं है, वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार ‘आत्माके बाह्य
पदार्थोंका आलम्बनवाला ज्ञान नहीं है’ ऐसे अर्थकी प्राप्ति होती है
(८) जो लिंगको अर्थात्
उपयोग नामक लक्षणको ग्रहण नहीं करता अर्थात् स्वयं (कहीं बाहरसे) नहीं लाता सो
अलिंगग्रहण है; इसप्रकार ‘आत्मा जो कहींसे नहीं लाया जाता ऐसे ज्ञानवाला है’ ऐसे अर्थकी
प्राप्ति होती है
(९) जिसे लिंगका अर्थात् उपयोगनामक लक्षणका ग्रहण अर्थात् परसे हरण