Pravachansar (Hindi).

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उपयोगाख्यलक्षणे ग्रहणं सूर्य इवोपरागो यस्येति शुद्धोपयोगस्वभावस्य न लिंगादुपयोगा-
ख्यलक्षणाद् ग्रहणं पौद्गलिककर्मादानं यस्येति द्रव्यकर्मासंपृक्तत्वस्य न लिंगेभ्य इन्द्रियेभ्यो
ग्रहणं विषयाणामुपभोगो यस्येति विषयोपभोक्तृत्वाभावस्य न लिंगात् मनो वेन्द्रियादि-
लक्षणाद् ग्रहणं जीवस्य धारणं यस्येति शुक्रार्तवानुविधायित्वाभावस्य न लिंगस्य मेहना-
कारस्य ग्रहणं यस्येति लौकिकसाधनमात्रत्वाभावस्य न लिंगेनामेहनाकारेण ग्रहणं
लोकव्याप्तिर्यस्येति कुहुक प्रसिद्धसाधनाकारलोकव्याप्तित्वाभावस्य न लिंगानां स्त्रीपुन्नपुंसक-
‘कुव्वं सहावमादा’ इत्यादि षष्ठस्थले गाथासप्तकम् यत्र मुख्यत्वमिति वदति तत्र यथासंभवमन्यो-
ऽप्यर्थो लभ्यत इति सर्वत्र ज्ञातव्यम् एवमेकोनविंशतिगाथाभिस्तृतीयविशेषान्तराधिकारे समुदाय-
पातनिका तद्यथाअथ किं तर्हि जीवस्य शरीरादिपरद्रव्येभ्यो भिन्नमन्यद्रव्यासाधारणं स्वस्वरूपमिति
प्रश्ने प्रत्युत्तरं ददातिअरसमरूवमगंधं रसरूपगन्धरहितत्वात्तथा चाध्याहार्यमाणास्पर्शरूपत्वाच्च अव्वत्तं
अव्यक्तत्वात् असद्दं अशब्दत्वात् अलिंगग्गहणं अलिङ्गग्रहणत्वात् अणिद्दिट्ठसंठाणं अनिर्दिष्टसंस्थानत्वाच्च
जाण जीवं जानीहि जीवम् अरसमरूपमगन्धमस्पर्शमव्यक्तमशब्दमलिङ्गग्रहणमनिर्दिष्टसंस्थानलक्षणं च
हे शिष्य, जीवं जीवद्रव्यं जानीहि पुनरपि कथंभूतम् चेदणागुणं समस्तपुद्गलादिभ्योऽचेतनेभ्यो
भिन्नः समस्तान्यद्रव्यासाधारणः स्वकीयानन्तजीवजातिसाधारणश्च चेतनागुणो यस्य तं चेतनागुणं
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञेयतत्त्व -प्रज्ञापन
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नहीं हो सकता (-अन्यसे नहीं ले जाया जा सकता) सो अलिंग ग्रहण है; इसप्रकार ‘आत्माके
ज्ञानका हरण नहीं किया जा सकता’ ऐसे अर्थकी प्राप्ति होती है
(१०) जिसे लिंगमें अर्थात्
उपयोगनामक लक्षणमें ग्रहण अर्थात् सूर्यकी भाँति उपराग (-मलिनता, विकार) नहीं है वह
अलिंगग्रहण है; इसप्रकार ‘आत्मा शुद्धोपयोगस्वभावी है’ ऐसे अर्थकी प्राप्ति होती है
(११)
लिंग द्वारा अर्थात् उपयोगनामक लक्षण द्वारा ग्रहण अर्थात् पौद्गलिक कर्मका ग्रहण जिसके
नहीं है, वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार ‘आत्मा द्रव्यकर्मसे असंयुक्त (असंबद्ध) है’ ऐसे
अर्थकी प्राप्ति होती है
(१२) जिसे लिंगोंके द्वारा अर्थात् इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण अर्थात्
विषयोंका उपभोग नहीं है सो अलिंगग्रहण है; इसप्रकार ‘आत्मा विषयोंका उपभोक्ता नहीं है’
ऐसे अर्थकी प्राप्ति होती है
(१३) लिंग द्वारा अर्थात् मन अथवा इन्द्रियादि लक्षणके द्वारा ग्रहण
अर्थात् जीवत्वको धारण कर रखना जिसके नहीं है वह अलिंगग्रहण है; इसप्रकार ‘आत्मा शुक्र
और आर्तवको अनुविधायी (-अनुसार होनेवाला) नहीं है’ ऐसे अर्थकी प्राप्ति होती है
(१४)
लिंगका अर्थात् मेहनाकार (-पुरुषादिकी इन्द्रियका आकार)का ग्रहण जिसके नहीं है सो
अलिंगग्रहण है; इसप्रकार ‘आत्मा लौकिकसाधनमात्र नहीं है’ ऐसे अर्थकी प्राप्ति होती है
(१५) लिंगके द्वारा अर्थात् अमेहनाकारके द्वारा जिसका ग्रहण अर्थात् लोकमें व्यापकत्व नहीं
है सो अलिंगग्रहण है; इसप्रकार ‘आत्मा पाखण्डियोंके प्रसिद्ध साधनरूप आकारवाला
लोकव्याप्तिवाला नहीं है’ ऐसे अर्थकी प्राप्ति होती है (१६) जिसके लिंगोका अर्थात् स्त्री,