Pravachansar (Hindi).

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[इसप्रकार मंगलाचरण और टीका रचनेकी प्रतिज्ञा करके, भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेव-
विरचित प्रवचनसारकी पहली पाँच गाथाओंके प्रारम्भमें श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव उन गाथाओंकी
उत्थानिका करते हैं
]
अब, जिनके संसार समुद्रका किनारा निकट है, सातिशय (उत्तम) विवेकज्योति प्रगट
हो गई है (अर्थात् परम भेदविज्ञानका प्रकाश उत्पन्न हो गया है) तथा समस्त एकांतवादरूप
अविद्याका
अभिनिवेश अस्त हो गया है ऐसे कोई (आसन्नभव्य महात्माश्रीमद्-
भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य), पारमेश्वरी (परमेश्वर जिनेन्द्रदेवकी) अनेकान्तवादविद्याको प्राप्त करके,
समस्त पक्षका परिग्रह (शत्रुमित्रादिका समस्त पक्षपात) त्याग देनेसे अत्यन्त मध्यस्थ होकर,
सर्व पुरुषार्थमें सारभूत होनेसे आत्माके लिये अत्यन्त हिततम भगवन्त पंचपरमेष्ठीके प्रसादसे
उत्पन्न होने योग्य, परमार्थसत्य (पारमार्थिक रीतिसे सत्य), अक्षय (अविनाशी) मोक्षलक्ष्मीको
उपादेयरूपसे निश्चित करते हुए प्रवर्तमान तीर्थके नायक (श्री महावीरस्वामी) पूर्वक भगवंत
पंचपरमेष्ठीको प्रणमन और वन्दनसे होनेवाले नमस्कारके द्वारा सन्मान करके सर्वारम्भसे
(उद्यमसे) मोक्षमार्गका आश्रय करते हुए प्रतिज्ञा करते हैं
अथ खलु कश्चिदासन्नसंसारपारावारपारः समुन्मीलितसातिशयविवेकज्योतिरस्तमित-
समस्तैकांतवादाविद्याभिनिवेशः पारमेश्वरीमनेकान्तवादविद्यामुपगम्य मुक्तसमस्तपक्षपरिग्रह-
तयात्यंतमध्यस्थो भूत्वा सकलपुरुषार्थसारतया नितान्तमात्मनो हिततमां भगवत्पंचपरमेष्ठि-
प्रसादोपजन्यां परमार्थसत्यां मोक्षलक्ष्मीमक्षयामुपादेयत्वेन निश्चिन्वन् प्रवर्तमानतीर्थनायक-
पुरःसरान् भगवतः पंचपरमेष्ठिनः प्रणमनवंदनोपजनितनमस्करणेन संभाव्य सर्वारंभेण
मोक्षमार्गं संप्रतिपद्यमानः प्रतिजानीते
अथ कश्चिदासन्नभव्यः शिवकुमारनामा स्वसंवित्तिसमुत्पन्नपरमानन्दैकलक्षणसुखामृतविपरीत-
चतुर्गतिसंसारदुःखभयभीतः, समुत्पन्नपरमभेदविज्ञानप्रकाशातिशयः, समस्तदुर्नयैकान्तनिराकृतदुराग्रहः,
परित्यक्तसमस्तशत्रुमित्रादिपक्षपातेनात्यन्तमध्यस्थो भूत्वा धर्मार्थकामेभ्यः सारभूतामत्यन्तात्महिताम-

विनश्वरां पंचपरमेष्ठिप्रसादोत्पन्नां मुक्तिश्रियमुपादेयत्वेन स्वीकुर्वाणः, श्रीवर्धमानस्वामितीर्थकरपरमदेव-

प्रमुखान् भगवतः पंचपरमेष्ठिनो द्रव्यभावनमस्काराभ्यां प्रणम्य परमचारित्रमाश्रयामीति प्रतिज्ञां करोति
१. अभिनिवेश=अभिप्राय; निश्चय; आग्रह
२. पुरुषार्थ=धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुष -अर्थोमें (पुरुष -प्रयोजनों में) मोक्ष ही सारभूत श्रेष्ठ
तात्विक पुरुष -अर्थ है
३. हिततम=उत्कृष्ट हितस्वरूप ४. प्रसाद=प्रसन्नता, कृपा
५. उपादेय=ग्रहण करने योग्य, (मोक्षलक्ष्मी हिततम, यथार्थ और अविनाशी होनेसे उपादेय है )
६. प्रणमन=देहसे नमस्कार करना वन्दन=वचनसे स्तुति करना नमस्कारमें प्रणमन और वन्दन दोनोंका
समावेश होता है
कहानजैनशास्त्रमाला ]
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