यो हि नाम नैवं प्रतिनियतचेतनाचेतनत्वस्वभावेन जीवपुद्गलयोः स्वपरविभागं पश्यति स एवाहमिदं ममेदमित्यात्मात्मीयत्वेन परद्रव्यमध्यवस्यति मोहान्नान्यः । अतो जीवस्य परद्रव्य- प्रवृत्तिनिमित्तं स्वपरपरिच्छेदाभावमात्रमेव, सामर्थ्यात्स्वद्रव्यप्रवृत्तिनिमित्तं तदभावः ।।१८३।।
टीका : — जो आत्मा इसप्रकार जीव और पुद्गलके (अपने – अपने) निश्चित चेतनत्व और अचेतनत्वरूप स्वभावके द्वारा स्व – परके विभागको नहीं देखता, वही आत्मा ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है’ इसप्रकार मोहसे परद्रव्यमें अपनेपनका अध्यवसान करता है, दूसरा नहीं । इससे (यह निश्चित हुआ कि) जीवको परद्रव्यमें प्रवृत्तिका निमित्त स्वपरके ज्ञानका अभावमात्र ही है और (कहे विना भी) सामर्थ्यसे (यह निश्चित हुआ कि) स्वद्रव्यमें प्रवृत्तिका निमित्त १उसका अभाव है ।
भावार्थ : — जिसे स्व – परका भेदविज्ञान नहीं है वही परद्रव्यमें अहंकार – ममकार करता है, भेदविज्ञानी नहीं । इसलिये परद्रव्यमें प्रवृत्तिका कारण भेदविज्ञानका अभाव ही है, और स्वद्रव्यमें प्रवृत्तिका कारण भेदविज्ञान ही है ।।१८३।।
अब यह निरूपण करते हैं कि आत्माका कर्म क्या है : — १. उसका अभाव = स्व -परके ज्ञानके अभावका अभाव; स्व – परके ज्ञानका सद्भाव ।
पण ते नथी कर्ता सकल पुद्गलदरवमय भावनो. १८४.