Pravachansar (Hindi). Gatha: 184.

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यो हि नाम नैवं प्रतिनियतचेतनाचेतनत्वस्वभावेन जीवपुद्गलयोः स्वपरविभागं पश्यति
स एवाहमिदं ममेदमित्यात्मात्मीयत्वेन परद्रव्यमध्यवस्यति मोहान्नान्यः अतो जीवस्य परद्रव्य-
प्रवृत्तिनिमित्तं स्वपरपरिच्छेदाभावमात्रमेव, सामर्थ्यात्स्वद्रव्यप्रवृत्तिनिमित्तं तदभावः ।।१८३।।
अथात्मनः किं कर्मेति निरूपयति
कुव्वं सभावमादा हवदि हि कत्ता सगस्स भावस्स
पोग्गलदव्वमयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ।।१८४।।
कुर्वन् स्वभावमात्मा भवति हि कर्ता स्वकस्य भावस्य
पुद्गलद्रव्यमयानां न तु कर्ता सर्वभावानाम् ।।१८४।।
अथैतदेव भेदविज्ञानं प्रकारान्तरेण द्रढयतिजो णवि जाणदि एवं यः कर्ता नैव जानात्येवं
पूर्वोक्तप्रकारेण कम् परं षड्जीवनिकायादिपरद्रव्यं, अप्पाणं निर्दोषिपरमात्मद्रव्यरूपं निजात्मानम् किं
कृत्वा सहावमासेज्ज शुद्धोपयोगलक्षणनिजशुद्धस्वभावमाश्रित्य कीरदि अज्झवसाणं स पुरुषः
करोत्यध्यवसानं परिणामम् केन रूपेण अहं ममेदं ति अहं ममेदमिति ममकाराहंकारादिरहित-
परमात्मभावनाच्युतो भूत्वा परद्रव्यं रागादिकमहमिति देहादिकं ममेतिरूपेण कस्मात् मोहादो
मोहाधीनत्वादिति ततः स्थितमेतत्स्वपरभेदविज्ञानबलेन स्वसंवेदनज्ञानी जीवः स्वद्रव्ये रतिं परद्रव्ये
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञेयतत्त्व -प्रज्ञापन
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है’ [इति ] इसप्रकार [अध्यवसानं ] अध्यवसान [कुरुते ] करता है ।।१८३।।
टीका :जो आत्मा इसप्रकार जीव और पुद्गलके (अपनेअपने) निश्चित चेतनत्व
और अचेतनत्वरूप स्वभावके द्वारा स्वपरके विभागको नहीं देखता, वही आत्मा ‘यह मैं हूँ, यह
मेरा है’ इसप्रकार मोहसे परद्रव्यमें अपनेपनका अध्यवसान करता है, दूसरा नहीं इससे (यह
निश्चित हुआ कि) जीवको परद्रव्यमें प्रवृत्तिका निमित्त स्वपरके ज्ञानका अभावमात्र ही है और (कहे
विना भी) सामर्थ्यसे (यह निश्चित हुआ कि) स्वद्रव्यमें प्रवृत्तिका निमित्त
उसका अभाव है
भावार्थ :जिसे स्वपरका भेदविज्ञान नहीं है वही परद्रव्यमें अहंकारममकार
करता है, भेदविज्ञानी नहीं इसलिये परद्रव्यमें प्रवृत्तिका कारण भेदविज्ञानका अभाव ही है,
और स्वद्रव्यमें प्रवृत्तिका कारण भेदविज्ञान ही है ।।१८३।।
अब यह निरूपण करते हैं कि आत्माका कर्म क्या है :
१. उसका अभाव = स्व -परके ज्ञानके अभावका अभाव; स्वपरके ज्ञानका सद्भाव
निज भाव करतो जीव छे कर्ता खरे निज भावनो;
पण ते नथी कर्ता सकल पुद्गलदरवमय भावनो. १८४
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