न खल्वात्मनः पुद्गलपरिणामः कर्म, परद्रव्योपादानहानशून्यत्वात् । यो हि यस्य परिणमयिता दृष्टः स न तदुपादानहानशून्यो दृष्टः, यथाग्निरयःपिण्डस्य । आत्मा तु तुल्यक्षेत्रवर्तित्वेऽपि परद्रव्योपादानहानशून्य एव । ततो न स पुद्गलानां कर्मभावेन परिणमयिता स्यात् ।।१८५।।
अन्वयार्थ : — [जीवः ] जीव [सर्वकालेषु ] सभी कालोंमें [पुद्गलमध्ये वर्तमानः अपि ] पुद्गलके मध्यमें रहता हुआ भी [पुद्गलानि कर्माणि ] पौद्गलिक कर्मोंको [हि ] वास्तवमें [गृह्णाति न एव ] न तो ग्रहण करता है, [न मुचंति ] न छोड़ता है, और [न करोति ] न करता है ।।१८६।।
टीका : — वास्तवमें पुद्गलपरिणाम आत्माका कर्म नहीं है, क्योंकि वह परद्रव्यके ग्रहण – त्यागसे रहित है; जो जिसका परिणमानेवाला देखा जाता है वह उसके ग्रहणत्यागसे रहित नहीं देखा जाता; जैसे — अग्नि लोहेके गोलेमें ग्रहण – त्याग रहित होती है । आत्मा तो तुल्य क्षेत्रमें वर्तता हुआ भी (-परद्रव्यके साथ एकक्षेत्रावगाही होनेपर भी) परद्रव्यके ग्रहण – त्यागसे रहित ही है । इसलिये वह पुद्गलोंको कर्मभावसे परिणमानेवाला नहीं है ।।१८५।।
तब (यदि आत्मा पुद्गलोंको कर्मरूप परिणमित नहीं करता तो फि र) आत्मा किसप्रकार पुद्गल कर्मोंके द्वारा ग्रहण किया जाता है और छोड़ा जाता है ? इसका अब निरूपण करते हैं : —
तेथी ग्रहाय अने कदापि मुकाय छे कर्मो वडे. १८६.