तत्पश्चात् जो विशुद्ध सत्तावान् होनेसे तापसे उत्तीर्ण हुए (अन्तिम ताव दिये हुए
अग्निमेंसे बाहर निकले हुए) उत्तम सुवर्णके समान शुद्धदर्शनज्ञानस्वभावको प्राप्त हुए हैं, ऐसे
शेष १अतीत तीर्थंकरोंको और सर्वसिद्धोंको तथा ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और
वीर्याचारयुक्त होनेसे जिन्होंने परम शुद्ध उपयोगभूमिकाको प्राप्त किया है, ऐसे श्रमणोंको —
जो कि आचार्यत्व, उपाध्यायत्व और साधुत्वरूप विशेषोंसे विशिष्ट ( – भेदयुक्त) हैं उन्हें —
नमस्कार करता हूँ ।।२।।
तत्पश्चात् इन्हीं पंचपरमेष्ठियोंको, उस -उस व्यक्तिमें (पर्यायमें) व्याप्त होनेवाले सभीको,
वर्तमानमें इस क्षेत्रमें उत्पन्न तीर्थंकरोंका अभाव होनेसे और महाविदेहक्षेत्रमें उनका सद्भाव
होनेसे मनुष्यक्षेत्रमें प्रवर्तमान तीर्थनायकयुक्त वर्तमानकालगोचर करके, ( – महाविदेहक्षेत्रमें
वर्तमान श्री सीमंधरादि तीर्थंकरोंकी भाँति मानों सभी पंच परमेष्ठी भगवान वर्तमानकालमें ही
विद्यमान हों, इसप्रकार अत्यन्त भक्तिके कारण भावना भाकर – चिंतवन करके उन्हें) युगपद्
युगपद् अर्थात् समुदायरूपसे और प्रत्येक प्रत्येकको अर्थात् व्यक्तिगतरूपसे २संभावना करता
हूँ । किस प्रकारसे संभावना करता हूँ ? मोक्षलक्ष्मीके स्वयंवर समान जो परम निर्ग्रन्थताकी
दीक्षाका उत्सव (-आनन्दमय प्रसंग) है उसके उचित मंगलाचरणभूत जो ३कृतिकर्मशास्त्रोपदिष्ट
वन्दनोच्चार (कृतिकर्मशास्त्रमें उपदेशे हुए स्तुतिवचन)के द्वारा सम्भावना करता हूँ ।।३।।
पाकोत्तीर्णजात्यकार्तस्वरस्थानीयशुद्धदर्शनज्ञानस्वभावान् शेषानतीततीर्थनायकान्, सर्वान्
सिद्धांश्च, ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारयुक्तत्वात्संभावितपरमशुद्धोपयोगभूमिकानाचार्योपाध्याय-
साधुत्वविशिष्टान् श्रमणांश्च प्रणमामि ।।२।। तदन्वेतानेव पंचपरमेष्ठिनस्तत्तद्वयक्तिव्यापिनः
सर्वानेव सांप्रतमेतत्क्षेत्रसंभवतीर्थकरासंभवान्महाविदेहभूमिसंभवत्वे सति मनुष्यक्षेत्रप्रवर्तिभि-
स्तीर्थनायकैः सह वर्तमानकालं गोचरीकृत्य युगपद्युगपत्प्रत्येकं प्रत्येकं च मोक्षलक्ष्मीस्वयं-
वरायमाणपरमनैर्ग्रन्थ्यदीक्षाक्षणोचितमंगलाचारभूतकृतिकर्मशास्त्रोपदिष्टवन्दनाभिधानेन सम्भाव-
विकल्परहितनिश्चलचित्तवृत्तिस्तदन्तर्भूतेन व्यवहारपञ्चाचारसहकारिकारणोत्पन्नेन निश्चयपञ्चाचारेण
परिणतत्वात् सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारोपेतानिति । एवं शेषत्रयोविंशतितीर्थकरनमस्कार-
मुख्यत्वेन गाथा गता ।।२।। अथ ते ते सव्वे तांस्तान्पूर्वोक्तानेव पञ्चपरमेष्ठिनः सर्वान् वंदामि य वन्दे,
अहं कर्ता । कथं । समगं समगं समुदायवन्दनापेक्षया युगपद्युगपत् । पुनरपि कथं । पत्तेगमेव पत्तेगं
प्रत्येकवन्दनापेक्षया प्रत्येकं प्रत्येकम् । न केवलमेतान् वन्दे । अरहंते अर्हतः । किंविशिष्टान् । वट्टंते माणुसे
खेत्ते वर्तमानान् । क्व । मानुषे क्षेत्रे । तथा हि ---साम्प्रतमत्र भरतक्षेत्रे तीर्थकराभावात् पञ्च-
१. अतीत = गत, होगये, भूतकालीन ।
२. संभावना = संभावना करना, सन्मान करना, आराधन करना ।
३. कृतिकर्म = अंगबाह्य १४ प्रकीर्णकोंमें छट्ठा प्रकीर्णक कृतिकर्म है जिसमें नित्यनैमित्तिक क्रियाका वर्णन है ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
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