नमस्कारं कृत्वा ।।४।। तेषामेवार्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधूनां विशुद्धज्ञानदर्शनप्रधानत्वेन
सम्यग्दर्शनज्ञानसंपन्नो भूत्वा, जीवत्कषायकणतया पुण्यबन्धसंप्राप्तिहेतुभूतं सरागचारित्रं
अब इस प्रकार अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा सर्व साधुओंको प्रणाम और वन्दनोच्चारसे प्रवर्तमान द्वैतके द्वारा, १भाव्यभावक भावसे उत्पन्न अत्यन्त गाढ़ २इतरेतर मिलनके कारण समस्त स्वपरका विभाग विलीन हो जानेसे जिसमें ३अद्वैत प्रवर्तमान है ऐसा नमस्कार करके, उन्हीं अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधुओंके आश्रमको, — जो कि (आश्रम) विशुद्धज्ञानदर्शनप्रधान होनेसे ४सहजशुद्धदर्शनज्ञानस्वभाववाले आत्मतत्त्वका श्रद्धान और ज्ञान जिसका लक्षण है ऐसे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका ५सम्पादक है उसे — प्राप्त करके, सम्यग्दर्शनज्ञानसम्पन्न होकर, जिसमें ६कषायकण विद्यमान होनेसे जीवको जो पुण्यबन्धकी प्राप्तिका कारण है ऐसे सराग चारित्रको — वह (सराग चारित्र) क्रमसे आ पड़ने १. भाव्य = भाने योग्य; चिंतवन करने योग्य; ध्यान करने योग्य अर्थात् ध्येय । भावक = भावना करनेवाला,
चिंतवन करनेवाला, ध्यान करनेवाला, अर्थात् ध्याता । २. इतरेतरमिलन = एक दूसरेका परस्पर मिल जाना अर्थात् मिश्रित हो जाना । ३. अद्वैत = पंच परमेष्ठीके प्रति अत्यंत आराध्य भावके कारण आराध्यरूप पंच परमेष्ठी भगवान और
नमस्कारमें प्रणाम और वंदनोच्चार दोनोंका समावेश होता है इसलिये उसमें द्वैत कहा है, तथापि तीव्र भक्तिभावसे स्वपरका भेदविलिन हो जानेकी अपेक्षासे उसमें अद्वैत पाया जाता है । ४. सहजशुद्धदर्शनज्ञानस्वभाववाले = सहज शुद्ध दर्शन और ज्ञान जिनका स्वभाव है वे । ५. संपादक = प्राप्त करानेवाला, उत्पन्न करनेवाला । ६. कषायकण = कषायका सूक्ष्मांश