मासंसारमनयैव स्थित्या स्थितं मोहेनान्यथाध्यवस्यमानं शुद्धात्मानमेष मोहमुत्खाय यथास्थित-
मेवातिनिःप्रकम्पः सम्प्रतिपद्ये । स्वयमेव भवतु चास्यैवं दर्शनविशुद्धिमूलया सम्यग्ज्ञानोपयुक्त-
नित्यमेव तदेकपरायणत्वलक्षणो भावनमस्कारः ।।२००।।
एवं निजशुद्धात्मभावनारूपमोक्षमार्गेण ये सिद्धिं गता ये च तदाराधकास्तेषां दर्शनाधि- कारापेक्षयावसानमङ्गलार्थं ग्रन्थात्पेक्षया मध्यमङ्गलार्थं च तत्पदाभिलाषी भूत्वा नमस्कारं करोति — एक क्षणमें ही जो (शुद्धात्मा) प्रत्यक्ष करता है, १ज्ञेयज्ञायकलक्षण संबंधकी अनिवार्यताके कारण ज्ञेय – ज्ञायकको भिन्न करना अशक्य होनेसे विश्वरूपताको प्राप्त होने पर भी जो (शुद्धात्मा) सहज अनन्तशक्तिवाले ज्ञायकस्वभावके द्वारा एकरूपताको नहीं छोड़ता, जो अनादि संसारसे इसी स्थितिमें (ज्ञायक भावरूप ही) रहा है और जो मोहके द्वारा दूसरे रूपमें जाना – माना जाता है उस शुद्धात्माको यह मैं मोहको उखाड़ फें ककर, अतिनिष्कम्प रहता हुआ यथास्थित (जैसाका तैसा) ही प्राप्त करता हूँ ।
इसप्रकार दर्शनविशुद्धि जिसका मूल है ऐसी, सम्यग्ज्ञानमें उपयुक्तताके कारण अत्यन्त अव्याबाध (निर्विघ्न) लीनता होनेसे, साधु होने पर भी साक्षात् सिद्धभूत ऐसा यह निज आत्माको तथा तथाभूत (सिद्धभूत) परमात्माओंको, २उसीमें एकपरायणता जिसका लक्षण है ऐसा भावनमस्कार सदा ही ३स्वयमेव हो ।।२००।। १. ज्ञेयज्ञायकस्वरूप सम्बन्ध टाला नहीं जा सकता, इसलिये यह अशक्य है कि ज्ञेय ज्ञायकमें ज्ञात न हों,
इसलिये आत्मा मानों समस्त द्रव्यरूपताको प्राप्त होता है । २. उसीमें = नमस्कार करने योग्य पदार्थमें; भाव्यमें । [मात्र भाव्यमें ही परायण, एकाग्र, लीन होना
भावनमस्कार लक्षण है ।]] ३. स्वयमेव = [आचार्यदेव शुद्धात्मामें लीन होते हैं इसलिये स्वयमेव भावनमस्कार हो जाता है ।]] प्र. ४७