एवं प्रणम्य सिद्धान् जिनवरवृषभान् पुनः पुनः श्रमणान् ।
प्रतिपद्यतां श्रामण्यं यदीच्छति दुःखपरिमोक्षम् ।।२०१।।
यथा ममात्मना दुःखमोक्षार्थिना, ‘किच्चा अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं ।
अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव सव्वेसिं ।। तेसिं विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं समासेज्ज ।
उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती ।।’ इति अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसाधूनां प्रणति-
वन्दनात्मकनमस्कारपुरःसरं विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधानं साम्यनाम श्रामण्यमवान्तरग्रन्थसन्दर्भोभय-
सम्भावितसौस्थित्यं स्वयं प्रतिपन्नं, परेषामात्मापि यदि दुःखमोक्षार्थी तथा तत्प्रतिपद्यताम् ।
यथानुभूतस्य तत्प्रतिपत्तिवर्त्मनः प्रणेतारो वयमिमे तिष्ठाम इति ।।२०१।।
कषायान्ता एकदेशजिना उच्यन्ते, शेषाश्चानागारकेवलिनो जिनवरा भण्यन्ते, तीर्थंकरपरमदेवाश्च
जिनवरवृषभा इति, तान् जिनवरवृषभान् । न केवलं तान् प्रणम्य, पुणो पुणो समणे चिच्चमत्कारमात्र-
निजात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनिश्चयरत्नत्रयाचरणप्रतिपादनसाधकत्वोद्यतान् श्रमणशब्दवाच्याना-
चार्योपाध्यायसाधूंश्च पुनः पुनः प्रणम्येति । किंच पूर्वं ग्रन्थप्रारम्भकाले साम्यमाश्रयामीति
३७४प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अन्वयार्थ : — [यदि दुःखपरिमोक्षम् इच्छति ] यदि दुःखोंसे परिमुक्त होनेकी
(छुटकारा पानेकी) इच्छा हो तो, [एवं ] पूर्वोक्त प्रकारसे (ज्ञानतत्त्व – प्रज्ञापनकी प्रथम तीन
गाथाओंके अनुसार) [पुनः पुनः ] बारंबार [सिद्धान् ] सिद्धोंको, [जिनवरवृषभान् ]
जिनवरवृषभोंको (-अर्हन्तोंको) तथा [श्रमणान् ] श्रमणोंको [प्रणम्य ] प्रणाम करके, [श्रामण्यं
प्रतिपद्यताम् ] (जीव) श्रामण्यको अंगीकार करो ।।२०१।।
टीका : — जैसे दुःखोंसे मुक्त होनेके अर्थी मेरे आत्माने — १‘‘किच्चा अरहंताणं
सिद्धाणं तह णमो गणहराणं । अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव सव्वेसिं ।। तेसिं
विसुद्धदंसणणाणपहाणासमं समासेज्ज । उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिव्वाणसंपत्ती ।’’ इसप्रकार
अर्हन्तों, सिद्धों, आचार्यों, उपाध्यायों तथा साधुओंको २प्रणाम – वंदनात्मक नमस्कारपूर्वक
३विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधान साम्यनामक श्रामण्यको — जिसका इस ग्रंथमें कहे हुए
(ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन और ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन नामक) दो अधिकारोंकी रचना द्वारा सुस्थितपन हुआ
है उसे — स्वयं अंगीकार किया, उसीप्रकार दूसरोंका आत्मा भी, यदि दुःखोंसे मुक्त होनेका
अर्थी (इच्छुक) हो तो, उसे अंगीकार करे । उस (श्रामण्य) को अंगीकार करनेका जो
४यथानुभूत मार्ग है उसके प्रणेता हम यह खड़े हैं ।।२०१।।
१. यह, ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापनकी चौथी और पाँचवी गाथायें हैं ।
२. नमस्कार प्रणाम – वंदनमय है । (विशेषके लिये देखो पृष्ठ ४ का फु टनोट)
३. विशुद्धदर्शनज्ञानप्रधान = जिसमें विशुद्ध दर्शन और ज्ञान प्रधान है ऐसा । [साम्य नामक श्रामण्यमें विशुद्ध
दर्शन और ज्ञान प्रधान है ।] ४. यथानुभूत = जैसा (हमने) अनुभव किया है वैसा ।