एककाल एवाहारो युक्ताहारः, तावतैव श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणशरीरस्य धारण- त्वात् । अनेककालस्तु शरीरानुरागसेव्यमानत्वेन प्रसह्य हिंसायतनीक्रियमाणो न युक्तः, देहेऽपि ममत्वरहितस्तथैव तं देहं तपसा योजयति स नियमेन युक्ताहारविहारो भवतीति ।।२२८।। अथ युक्ताहारत्वं विस्तरेणाख्याति – एक्कं खलु तं भत्तं एककाल एव खलु हि स्फु टं स भक्त आहारो युक्ताहारः । कस्मात् । एकभक्तेनैव निर्विकल्पसमाधिसहकारिकारणभूतशरीरस्थितिसंभवात् । स च कथंभूतः । अप्पडिपुण्णोदरं यथाशक्त्या न्यूनोदरः । जहालद्धं यथालब्धो, न च स्वेच्छालब्धः । चरणं भिक्खेण
भावार्थ : — श्रमण दो प्रकारसे युक्ताहारी सिद्ध होता है; (१) शरीर पर ममत्व न होनेसे उसके उचित ही आहार होता है, इसलिये वह युक्ताहारी अर्थात् उचित आहारवाला है। और (२) ‘आहारग्रहण आत्माका स्वभाव नहीं है’ ऐसा परिणामस्वरूप योग श्रमणके वर्तता होनेसे वह श्रमण युक्त अर्थात् योगी है और इसलिये उसका आहार युक्ताहार अर्थात् योगीका आहार है ।।२२८।।
अन्वयार्थ : — [खलु ] वास्तवमें [सः भक्तः ] वह आहार (-युक्ताहार) [एकः ] एक बार [अप्रतिपूर्णोदरः ] ऊ नोदर [यथालब्धः ] यथालब्ध (-जैसा प्राप्त हो वैसा), [भैक्षाचरणेन ] भिक्षाचरणसे, [दिवा ] दिनमें [न रसापेक्षः ] रसकी अपेक्षासे रहित और [न मधुमांसः ] मधु – मांस रहित होता है ।।२२९।।
टीका : — एकबार आहार ही युक्ताहार है, क्योंकि उतनेसे ही श्रामण्य पर्यायका सहकारी कारणभूत शरीर टिका रहता है । [एकसे अधिक बार आहार लेना युक्ताहार नहीं है, ऐसा निम्नानुसार दो प्रकारसे सिद्ध होता है : — ] (१) शरीरके अनुरागसे ही अनेकबार आहारका सेवन किया जाता है, इसलिये अत्यन्तरूपसे १हिंसायतन किया जानेसे कारण युक्त १. हिंसायतन = हिंसाका स्थान [एकसे अधिकबार आहार करनेमें शरीरका अनुराग होता है, इसलिये वह