यत्खलु द्रव्यं यस्मिन्काले येन भावेन परिणमति तत् तस्मिन् काले किलौष्ण्य-
परिणतायःपिण्डवत्तन्मयं भवति । ततोऽयमात्मा धर्मेण परिणतो धर्म एव भवतीति
सिद्धमात्मनश्चारित्रत्वम् ।।८।।
अथ जीवस्य शुभाशुभशुद्धत्वं निश्चिनोति —
जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो ।
सुद्धेण तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसब्भावो ।।९।।
जीवः परिणमति यदा शुभेनाशुभेन वा शुभोऽशुभः ।
शुद्धेन तदा शुद्धो भवति हि परिणामस्वभावः ।।९।।
संक्षेपसूचनरूपेण द्वितीयस्थले गाथात्रयं गतम् ।।८।। अथ शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयेण परिणतो जीवः
शुभाशुभशुद्धोपयोगस्वरूपो भवतीत्युपदिशति ---जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा जीवः कर्ता यदा
परिणमति शुभेनाशुभेन वा परिणामेन सुहो असुहो हवदि तदा शुभेन शुभो भवति, अशुभेन वाऽशुभो
भवति । सुद्धेण तदा सुद्धो हि शुद्धेन यदा परिणमति तदा शुद्धो भवति, हि स्फु टम् । कथंभूतः सन् ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापन
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टीका : — वास्तवमें जो द्रव्य जिस समय जिस भावरूपसे परिणमन करता है, वह
द्रव्य उस समय उष्णतारूपसे परिणमित लोहेके गोलेकी भाँति उस मय है, इसलिये यह आत्मा
धर्मरूप परिणमित होने से धर्म ही है । इसप्रकार आत्माकी चारित्रता सिद्ध हुई ।
भावार्थ : — सातवीं गाथामें कहा गया है कि चारित्र आत्माका ही भाव है । और इस
गाथामें अभेदनयसे यह कहा है कि जैसे उष्णतारूप परिणमित लोहेका गोला स्वयं ही उष्णता
है — लोहेका गोला और उष्णता पृथक् नहीं है, इसी प्रकार चारित्रभावसे परिणमित आत्मा स्वयं
ही चारित्र है ।।८।।
अब यहाँ जीवका शुभ, अशुभ और शुद्धत्व (अर्थात् यह जीव ही शुभ, अशुभ और
शुद्ध है ऐसा) निश्चित करते हैं ।
अन्वयार्थ : — [जीवः ] जीव [परिणामस्वभावः ] परिणामस्वभावी होनेसे [यदा ]
जब [शुभेन वा अशुभेन] शुभ या अशुभ भावरूप [परिणमति ] परिणमन करता है [शुभः
अशुभः ] तब शुभ या अशुभ (स्वयं ही) होता है, [शुद्धेन ] और जब शुद्धभावरूप परिणमित
होता है [तदा शुद्धः हि भवति ] तब शुद्ध होता है ।।९।।
शुभ के अशुभमां प्रणमतां शुभ के अशुभ आत्मा बने,
शुद्धे प्रणमतां शुद्ध, परिणाम स्वभावी होईने . ९.