यदाऽयमात्मा शुभेनाशुभेन वा रागभावेन परिणमति तदा जपातापिच्छराग- परिणतस्फ टिकवत् परिणामस्वभावः सन् शुभोऽशुभश्च भवति । यदा पुनः शुद्धेनारागभावेन परिणमति तदा शुद्धारागपरिणतस्फ टिकवत्परिणामस्वभावः सन् शुद्धो भवतीति सिद्धं जीवस्य शुभाशुभशुद्धत्वम् ।।९।। परिणामसब्भावो परिणामसद्भावः सन्निति । तद्यथा --यथा स्फ टिकमणिविशेषो निर्मलोऽपि जपापुष्पादि- रक्तकृष्णश्वेतोपाधिवशेन रक्तकृष्णश्वेतवर्णो भवति, तथाऽयं जीवः स्वभावेन शुद्धबुद्धैकस्वरूपोऽपि व्यवहारेण गृहस्थापेक्षया यथासंभवं सरागसम्यक्त्वपूर्वकदानपूजादिशुभानुष्ठानेन, तपोधनापेक्षया तु मूलोत्तरगुणादिशुभानुष्ठानेन परिणतः शुभो ज्ञातव्य इति । मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगपञ्चप्रत्यय- रूपाशुभोपयोगेनाशुभो विज्ञेयः । निश्चयरत्नत्रयात्मकशुद्धोपयोगेन परिणतः शुद्धो ज्ञातव्य इति । किंच जीवस्यासंख्येयलोकमात्रपरिणामाः सिद्धान्ते मध्यमप्रतिपत्त्या मिथ्यादृष्टयादिचतुर्दशगुणस्थानरूपेण कथिताः । अत्र प्राभृतशास्त्रे तान्येव गुणस्थानानि संक्षेपेणाशुभशुभशुद्धोपयोगरूपेण कथितानि । कथमिति चेत् ---मिथ्यात्वसासादनमिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्येनाशुभोपयोगः, तदनन्तरमसंयतसम्यग्द्रष्टि- देशविरतप्रमत्तसंयतगुणस्थानत्रये तारतम्येन शुभोपयोगः, तदनन्तरमप्रमत्तादिक्षीणकषायान्तगुणस्थान- षटके तारतम्येन शुद्धोपयोगः, तदनन्तरं सयोग्ययोगिजिनगुणस्थानद्वये शुद्धोपयोगफलमिति
टीका : — जब यह आत्मा शुभ या अशुभ राग भावसे परिणमित होता है तब जपा कुसुम या तमाल पुष्पके (लाल या काले) रंगरूप परिणमित स्फ टिककी भाँति, परिणामस्वभाव होनेसे शुभ या अशुभ होता है (उस समय आत्मा स्वयं ही शुभ या अशुभ है); और जब वह शुद्ध अरागभावसे परिणमित होता है तब शुद्ध अरागपरिणत (रंग रहित) स्फ टिककी भाँति, परिणामस्वभाव होनेसे शुद्ध होता है । (उस समय आत्मा स्वयं ही शुद्ध है) । इस प्रकार जीवका शुभत्व, अशुभत्व और शुद्धत्व सिद्ध हुआ ।
भावार्थ : — आत्मा सर्वथा कूटस्थ नहीं है किन्तु स्थिर रहकर परिणमन करना उसका स्वभाव है, इसलिये वह जैसे जैसे भावोंसे परिणमित होता है वैसा वैसा ही वह स्वयं हो जाता है । जैसे स्फ टिकमणि स्वभावसे निर्मल है तथापि जब वह लाल या काले फू लके संयोग निमित्तसे परिणमित होता है तब लाल या काला स्वयं ही हो जाता है । इसीप्रकार आत्मा स्वभावसे शुद्ध- बुद्ध -एकस्वरूपी होने पर भी व्यवहारसे जब गृहस्थदशामें सम्यक्त्व पूर्वक दानपूजादि शुभ अनुष्ठानरूप शुभोपयोगमें और मुनिदशामें मूलगुण तथा उत्तरगुण इत्यादि शुभ अनुष्ठानरूप शुभोपयोगमें परिणमित होता है तब स्वयं ही शुभ होता है, और जब मिथ्यात्वादि पाँच प्रत्ययरूप अशुभोपयोगमें परिणमित होता है तब स्वयं ही अशुभ होता है और जैसे स्फ टिकमणि अपने स्वाभाविक निर्मल रंगमें परिणमित होता है तब स्वयं ही शुद्ध होता है, उसी प्रकार आत्मा भी जब निश्चय रत्नत्रयात्मक शुद्धोपयोगमें परिणमित होता है तब स्वयं ही शुद्ध होता है