मुच्छ्वासमात्रेणैव लीलयैव पातयति । अत आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्येऽप्यात्म-
अथात्मज्ञानशून्यस्य सर्वागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां यौगपद्यमप्यकिं चित्क र- मित्यनुशास्ति —
तत्कर्म ज्ञानी जीवः पूर्वोक्तज्ञानगुणसद्भावात् त्रिगुप्तिगुप्तः सन्नुच्छ्वासमात्रेण लीलयैव क्षपयतीति । ततो ज्ञायते परमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां भेदरत्नत्रयरूपाणां सद्भावेऽप्यभेदरत्नत्रयरूपस्य स्व- संवेदनज्ञानस्यैव प्रधानत्वमिति ।।२३८।। अथ पूर्वसूत्रोक्तात्मज्ञानरहितस्य सर्वागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धान- इसप्रकार उच्छ्वासमात्रमें ही लीलासे ही ज्ञानी नष्ट कर देता है ।
इससे आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्वका युगपत्पना होने पर भी आत्मज्ञानको ही मोक्षमार्गका साधकतम संमत करना ।
१ज्ञानीपनके कारण होनेवाले त्रिगुप्ततारूप प्रचण्ड उद्यमसे कर्म पकते हैं; इसलिये अज्ञानी जिस कर्मको अनेक २शत – सहस्र – कोटि भवोंमें महाकष्टसे उल्लंघन (पार) कर पाता है वही कर्म ज्ञानी उच्छ्वासमात्रमें ही, कौतुकमात्रमें ही नष्ट कर डालता है । और अज्ञानीके वह कर्म, सुखदुःखादिविकाररूप परिणमनके कारण, पुनः नूतन कर्मरूप संततिको छोड़ता जाता है तथा ज्ञानीके सुखदुःखादिविकाररूप परिणमन न होनेसे वह क र्म पुनः नूतन कर्मरूप संततिको नहीं छोड़ता जाता ।
संयतत्त्वका युगपत्पना भी अकिंचित्कर है, (अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकता) : — १. ज्ञानीपन = आगमज्ञान – तत्त्वार्थश्रद्धान – संयतत्त्वके युगपत्पनेके अतिशय प्रसादसे प्राप्त शुद्धज्ञानमय
आत्मतत्त्वकी अनुभूति ज्ञानीपनका लक्षण है । २. शत – सहस्र – कोटि = १०० × १००० × १०००००००
तो सर्वआगमधर भले पण नव लहे सिद्धत्वने. २३९.