क्रमपच्यमानमपहस्तितरागद्वेषतया दूरनिरस्तसमस्तसुखदुःखादिविकारः पुनरनारोपितसन्तान-
मुच्छ्वासमात्रेणैव लीलयैव पातयति । अत आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्येऽप्यात्म-
ज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनुमन्तव्यम् ।।२३८।।
अथात्मज्ञानशून्यस्य सर्वागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां यौगपद्यमप्यकिं चित्क र-
मित्यनुशास्ति —
परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो ।
विज्जदि जदि सो सिद्धिं ण लहदि सव्वागमधरो वि ।।२३९।।
तत्कर्म ज्ञानी जीवः पूर्वोक्तज्ञानगुणसद्भावात् त्रिगुप्तिगुप्तः सन्नुच्छ्वासमात्रेण लीलयैव क्षपयतीति ।
ततो ज्ञायते परमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां भेदरत्नत्रयरूपाणां सद्भावेऽप्यभेदरत्नत्रयरूपस्य स्व-
संवेदनज्ञानस्यैव प्रधानत्वमिति ।।२३८।। अथ पूर्वसूत्रोक्तात्मज्ञानरहितस्य सर्वागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धान-
४४४प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
इसप्रकार उच्छ्वासमात्रमें ही लीलासे ही ज्ञानी नष्ट कर देता है ।
इससे आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्वका युगपत्पना होने पर भी आत्मज्ञानको
ही मोक्षमार्गका साधकतम संमत करना ।
भावार्थ : — अज्ञानीके क्रमशः तथा बालतपादिरूप उद्यमसे कर्म पकते हैं और
१ज्ञानीपनके कारण होनेवाले त्रिगुप्ततारूप प्रचण्ड उद्यमसे कर्म पकते हैं; इसलिये
अज्ञानी जिस कर्मको अनेक २शत – सहस्र – कोटि भवोंमें महाकष्टसे उल्लंघन (पार) कर पाता
है वही कर्म ज्ञानी उच्छ्वासमात्रमें ही, कौतुकमात्रमें ही नष्ट कर डालता है । और अज्ञानीके
वह कर्म, सुखदुःखादिविकाररूप परिणमनके कारण, पुनः नूतन कर्मरूप संततिको छोड़ता जाता
है तथा ज्ञानीके सुखदुःखादिविकाररूप परिणमन न होनेसे वह क र्म पुनः नूतन कर्मरूप संततिको
नहीं छोड़ता जाता ।
इसलिये आत्मज्ञान ही मोक्षमार्गका साधकतम है ।।२३८।।
अब, ऐसा उपदेश करते हैं कि – आत्मज्ञानशून्यके सर्व आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान तथा
संयतत्त्वका युगपत्पना भी अकिंचित्कर है, (अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकता) : —
१. ज्ञानीपन = आगमज्ञान – तत्त्वार्थश्रद्धान – संयतत्त्वके युगपत्पनेके अतिशय प्रसादसे प्राप्त शुद्धज्ञानमय
आत्मतत्त्वकी अनुभूति ज्ञानीपनका लक्षण है ।
२. शत – सहस्र – कोटि = १०० × १००० × १०००००००
अणुमात्र पण मूर्छा तणो सद्भाव जो देहादिके,
तो सर्वआगमधर भले पण नव लहे सिद्धत्वने. २३९.