ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथाप्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायेण, ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथानुभूतिलक्षणेन
ज्ञानपर्यायेण, ज्ञेयज्ञातृक्रियान्तरनिवृत्तिसूत्र्यमाणद्रष्टृज्ञातृतत्त्ववृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण च,
त्रिभिरपि यौगपद्येन भाव्यभावकभावविजृम्भितातिनिर्भ̄रेतरेतरसंवलनबलादंगांगिभावेन
परिणतस्यात्मनो यदात्मनिष्ठत्वे सति संयतत्वं तत्पानकवदनेकात्मकस्यैकस्यानुभूयमान-
तायामपि समस्तपरद्रव्यपरावर्तत्वादभिव्यक्तैकाग्रयलक्षणश्रामण्यापरनामा मोक्षमार्ग एवाव-
मोक्षमार्गो भण्यत इति प्ररूपयति — दंसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुट्ठिदो जो दु दर्शनज्ञानचारित्रेषु त्रिषु
युगपत्सम्यगुपस्थित उद्यतो यस्तु कर्ता, एयग्गगदो त्ति मदो स ऐकाग्रयगत इति मतः संमतः,
सामण्णं तस्स पडिपुण्णं श्रामण्यं चारित्रं यतित्वं तस्य परिपूर्णमिति । तथाहि — भावकर्मद्रव्य-
कर्मनोकर्मभ्यः शेषपुद्गलादिपञ्चद्रव्येभ्योऽपि भिन्नं सहजशुद्धनित्यानन्दैकस्वभावं मम संबन्धि यदात्म-
द्रव्यं तदेव ममोपादेयमितिरुचिरूपं सम्यग्दर्शनम्, तत्रैव परिच्छित्तिरूपं सम्यग्ज्ञानं, तस्मिन्नेव स्वरूपे
निश्चलानुभूतिलक्षणं चारित्रं चेत्युक्तस्वरूपं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयं पानकवदनेकमप्यभेदनयेनैकं यत्
तत्सविकल्पावस्थायां व्यवहारेणैकाग्रयं भण्यते ।। निर्विकल्पसमाधिकाले तु निश्चयेनेति ।। तदेव च
४५०प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
टीका : — ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्वकी तथाप्रकार (जैसी है वैसी ही, यथार्थ) प्रतीति
जिसका लक्षण है वह सम्यग्दर्शनपर्याय है; ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्वकी तथाप्रकार अनुभूति
जिसका लक्षण है वह ज्ञानपर्याय है; ज्ञेय और ज्ञाताकी १क्रियान्तरसे निवृत्तिके द्वारा रचित
दृष्टिज्ञातृतत्त्वमें परिणति जिसका लक्षण है वह चारित्रपर्याय है । इन पर्यायोंके और आत्माके
२भाव्यभावकताके द्वारा उत्पन्न अति गाढ़ इतरेतर मिलनके बलके कारण इन तीनों पर्यायरूप
युगपत् अंग – अंगीभावसे परिणत आत्माके, आत्मनिष्ठता होने पर जो संयतत्त्व होता है वह
संयतपना एकाग्रतालक्षणवाला श्रामण्य जिसका दूसरा नाम है ऐसा मोक्षमार्ग ही है — ऐसा
जानना चाहिये, क्योंकि वहाँ (संयतपनेमें) ३पेयकी भाँति ४अनेकात्मक एकका अनुभव होने
१. क्रियांतर = अन्य क्रिया; [ज्ञेय और ज्ञाता अन्य क्रियासे निवृत्त हो उसके कारण होनेवाली जो द्रष्टा – ज्ञाता
आत्मतत्त्वमें परिणति वह चारित्रपर्यायका लक्षण है ।]]
२. भावक अर्थात् होनेवाला, और भावक जिसरूप हो सो भाव्य है । आत्मा भावक है और सम्यग्दर्शनादि
पर्यायें भाव्यक हैं । भावक और भाव्यका परस्पर अति गाढ़ मिलन (एकमेकता) होता है । भावक आत्मा
अंगी है और भाव्यरूप सम्यग्दर्शनादि पर्यायें उसका अंग है ।
३. पेय = पीनेकी वस्तु, जैसे ठंडाई । [ठंडाईका स्वाद अनेकात्मक एक होता है; क्योंकि अभेदसे उसमें
एक ठंडाईका ही स्वाद आता है, और भेदसे उसमें दूध, शक्कर, सोंफ , कालीमिर्च तथा बादाम आदि
अनेक वस्तुओंका स्वाद आता है । ]
४. यहाँ अनेकात्मक एकके अनुभवमें जो अनेकात्मकता है वह परद्रव्यमय नहीं है वहाँ परद्रव्योंसे तो निवृत्ति
ही है; मात्र सम्यग्दर्शन – ज्ञान – चारित्ररूप स्व – अंशोंके कारण ही अनेकात्मकता है । इसलिये वहाँ,
अनेकात्मकता होने पर भी एकाग्रता (एक – अग्रता) प्रगट है ।