Pravachansar (Hindi). Gatha: 246.

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४५६प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
नास्रवा एव इमे पुनरनवकीर्णकषायकणत्वात्सास्रवा एव अत एव च शुद्धोपयोगिभिः
समममी न समुच्चीयन्ते, केवलमन्वाचीयन्त एव ।।२४५।।
अथ शुभोपयोगिश्रमणलक्षणमासूत्रयति
अरहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु
विज्जदि जदि सामण्णे सा सुहजुत्ता भवे चरिया ।।२४६।।
अर्हदादिषु भक्तिर्वत्सलता प्रवचनाभियुक्तेषु
विद्यते यदि श्रामण्ये सा शुभयुक्ता भवेच्चर्या ।।२४६।।

शुभोपयोगिनो मिथ्यात्वविषयकषायरूपाशुभास्रवनिरोधेऽपि पुण्यास्रवसहिता इति भावः ।।२४५।। अथ शुभोपयोगिश्रमणानां लक्षणमाख्यातिसा सुहजुत्ता भवे चरिया सा चर्या शुभयुक्ता भवेत् कस्य तपोधनस्य कथंभूतस्य समस्तरागादिविकल्परहितपरमसमाधौ स्थातुमशक्यस्य यदि किम् विज्जदि जदि विद्यते यदि चेत् क्व सामण्णे श्रामण्ये चारित्रे किं विद्यते अरहंतादिसु भत्ती अनन्त- ज्ञानादिगुणयुक्तेष्वर्हत्सिद्धेषु गुणानुरागयुक्ता भक्तिः वच्छलदा वत्सलस्य भावो वत्सलता वात्सल्यं विनयोऽनुकूलवृत्तिः केषु विषये पवयणाभिजुत्तेसु प्रवचनाभियुक्तेषु प्रवचनशब्देनात्रागमो भण्यते, (शुभोपयोगियोंको) नहीं लिया (नहीं वर्णन किया) जाता, मात्र पीछेसे (गौणरूपमें ही) लिया जाता है

भावार्थ :परमागममें ऐसा कहा है कि शुद्धोपयोगी श्रमण हैं और शुभोपयोगी भी गौणरूपसे श्रमण हैं जैसे निश्चयसे शुद्धबुद्धएकस्वभावी सिद्ध जीव ही जीव कहलाते हैं और व्यवहारसे चतुर्गति परिणत अशुद्ध जीव भी जीव कहे जाते हैं, उसीप्रकार श्रमणरूपसे शुद्धोपयोगी जीवोंकी मुख्यता है और शुभोपयोगी जीवोंकी गौणता है; क्योंकि शुद्धोपयोगी निजशुद्धात्मभावनाके बलसे समस्त शुभाशुभ संकल्पविकल्पोंसे रहित होनेसे निरास्रव ही हैं, और शुभोपयोगियोंके मिथ्यात्वविषयकषायरूप अशुभास्रवका निरोध होने पर भी वे पुण्यास्रवयुक्त हैं ।।२४५।।

अब, शुभोपयोगी श्रमणका लक्षण सूत्र द्वारा (गाथा द्वारा) कहते हैं :

अन्वयार्थ :[श्रामण्ये ] श्रामण्यमें [यदि ] यदि [अर्हदादिषु भक्तिः ] अर्हन्तादिके प्रति भक्ति तथा [प्रवचनाभियुक्तेषु वत्सलता ] प्रवचनरत जीवोंके प्रति वात्सल्य [विद्यते ] पाया जाता है तो [सा ] वह [शुभयुक्ता चर्या ] शुभयुक्त चर्या (शुभोपयोगी

वात्सल्य प्रवचनरत विषे ने भक्ति अर्हंतादिके
ए होय जो श्रामण्यमां, तो चरण ते शुभयुक्त छे. २४६.