Pravachansar (Hindi).

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ये खलु श्रामण्यपरिणतिं प्रतिज्ञायापि, जीवितकषायकणतया, समस्तपरद्रव्यनिवृत्ति-
प्रवृत्तसुविशुद्धदृशिज्ञप्तिस्वभावात्मतत्त्ववृत्तिरूपां शुद्धोपयोगभूमिकामधिरोढुं न क्षमन्ते, ते
तदुपकण्ठनिविष्टाः, कषायकुण्ठीकृतशक्तयो, नितान्तमुत्कण्ठुलमनसः, श्रमणाः किं भवेयुर्न
वेत्यत्राभिधीयते
‘धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो पावदि णिव्वाणसुहं
सुहोवजुत्तो व सग्गसुहं ।।’ इति स्वयमेव निरूपितत्वादस्ति तावच्छुभोपयोगस्य धर्मेण
सहैकार्थसमवायः ततः शुभोपयोगिनोऽपि धर्मसद्भावाद्भवेयुः श्रमणाः किन्तु तेषां
शुद्धोपयोगिभिः समं समकाष्ठत्वं न भवेत्, यतः शुद्धोपयोगिनो निरस्तसमस्तकषायत्वाद-
ग्राह्यः तत्र दृष्टान्तःयथा निश्चयेन शुद्धबुद्धैकस्वभावाः सिद्धजीवा एव जीवा भण्यते, व्यवहारेण
चतुर्गतिपरिणता अशुद्धजीवाश्च जीवा इति; तथा शुद्धोपयोगिनां मुख्यत्वं, शुभोपयोगिनां तु
चकारसमुच्चयव्याख्यानेन गौणत्वम्
कस्माद्गौणत्वं जातमिति चेत् तेसु वि सुद्धुवजुत्ता अणासवा सासवा
सेसा तेष्वपि मध्ये शुद्धोपयोगयुक्ता अनास्रवाः, शेषाः सास्रवा इति यतः कारणात् तद्यथानिज-
शुद्धात्मभावनाबलेन समस्तशुभाशुभसंकल्पविक ल्परहितत्वाच्छुद्धोपयोगिनो निरास्रवा एव, शेषाः
कहानजैनशास्त्रमाला ]
चरणानुयोगसूचक चूलिका
४५५
टीका :जो वास्तवमें श्रामण्यपरिणतिकी प्रतिज्ञा करके भी, कषाय कणके जीवित
(विद्यमान) होनेसे, समस्त परद्रव्यसे निवृत्तिरूपसे प्रवर्तमान ऐसी जो
सुविशुद्धदर्शनज्ञानस्वभाव आत्मतत्त्वमें परिणतिरूप शुद्धोपयोगभूमिका उसमें आरोहण करनेको
असमर्थ हैं; वे (शुभोपयोगी) जीवजो कि शुद्धोपयोगभूमिकाके उपकंठ निवास कर रहे
हैं, और कषायने जिनकी शक्ति कुण्ठित की है, तथा जो अत्यन्त उत्कण्ठित (-आतुर) मनवाले
हैं, वे
श्रमण हैं या नहीं, यह यहाँ कहा जाता हैं :
धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो व
सग्गसुहं ।। इसप्रकार (भगवान कुन्दकुन्दाचार्यने ११वीं गाथामें) स्वयं ही निरूपण किया है,
इसलिये शुभोपयोगका धर्मके साथ एकार्थसमवाय है इसलिये शुभोपयोगी भी, उनके धर्मका
सद्भाव होनेसे, श्रमण हैं किन्तु वे शुद्धोपयोगियोंके साथ समान कोटिके नहीं है, क्योंकि
शुद्धोपयोगी समस्त कषायोंको निरस्त किया होनेसे निरास्रव ही हैं और ये शुभोपयोगी तो
कषायकण अविनष्ट होनेसे सास्रव
ही हैं और ऐसा होनेसे ही शुद्धोपयोगियोंके साथ इनको
१. आत्मतत्वका स्वभाव सुविशुद्ध दर्शन और ज्ञान है
२. उपकंठ = तलहटी; पड़ोस; नजदीकका भाग; निकटता
३. अर्थधर्मपरिणत स्वरूपवाला आत्मा यदि शुद्धोपयोगमें युक्त हो तो मोक्षसुखको पाता है, और यदि
शुभोपयोगमें युक्त हो तो स्वर्गसुखको (बंधको) पाता है
४. एकार्थसमवाय = एक पदार्थमें साथ रह सकनेरूप संबंध (आत्मपदार्थमें धर्म और शुभोपयोग एकसाथ
हो सकता है इसलिये शुभोपयोगका धर्मके साथ एकार्थसमवाय है )