सकलनिरपेक्षतयैवाल्पलेपाऽप्यप्रतिषिद्धा; न पुनरल्पलेपेति सर्वत्र सर्वथैवाप्रतिषिद्धा, तत्र
तथाप्रवृत्त्या शुद्धात्मवृत्तित्राणस्य परात्मनोरनुपपत्तेरिति ।।२५१।।
शुद्धात्मभावनाविनाशकख्यातिपूजालाभवाञ्छारहितं यथा भवति । कथंभूतानां जैनानाम् । सागारणगार- चरियजुत्ताणं सागारानागारचर्यायुक्तानां श्रावकतपोधनाचरणसहितानामित्यर्थः ।।२५१।। कस्मिन्प्रस्तावे वैयावृत्त्यं कर्तव्यमित्युपदिशति — पडिवज्जदु प्रतिपद्यतां स्वीकरोतु । कया । आदसत्तीए स्वशक्त्या । स कः कर्ता । साहू रत्नत्रयभावनया स्वात्मानं साधयतीति साधुः । कम् । समणं जीवितमरणादिसमपरिणाम- प्रति — जो कि शुद्धात्माके ज्ञान – दर्शनमें प्रवर्तमान १वृत्तिके कारण साकार – २अनाकार चर्यावाले हैं उनके प्रति, — शुद्धात्माकी उपलब्धिके अतिरिक्त अन्य सबकी अपेक्षा किये बिना ही, उस प्रवृत्तिके करनेका निषेध नहीं है; किन्तु अल्प लेपवाली होनेसे सबके प्रति सभी प्रकारसे वह प्रवृत्ति अनिषिद्ध हो ऐसा नहीं है, क्योंकि वहाँ (अर्थात् यदि सबके प्रति सभी प्रकारसे की जाय तो) उस प्रकारकी प्रवृत्तिसे परके और निजके शुद्धात्मपरिणतिकी रक्षा नहीं हो सकती ।
भावार्थ : — यद्यपि अनुकम्पापूर्वक परोपकारस्वरूप प्रवृत्तिसे अल्प लेप तो होता है, तथापि यदि (१) शुद्धात्माकी ज्ञानदर्शनस्वरूप चर्यावाले शुद्ध जैनोंके प्रति, तथा (२) शुद्धात्माकी उपलब्धिकी अपेक्षासे ही, वह प्रवृत्ति की जाती हो तो शुभोपयोगीके उसका निषेध नहीं है । परन्तु, यद्यपि अनुकम्पापूर्वक परोपकारस्वरूप प्रवृत्तिसे अल्प ही लेप होता है तथापि (१) शुद्धात्माकी ज्ञानदर्शनरूप चर्यावाले शुद्ध जैनोंके अतिरिक्त दूसरोंके प्रति, तथा (२) शुद्धात्माकी उपलब्धिके अतिरिक्त अन्य किसी भी अपेक्षासे, वह प्रवृत्ति करनेका शुभोपयोगीके निषेध है, क्योंकि इसप्रकारसे परको या निजको शुद्धात्मपरिणतिकी रक्षा नहीं होती ।।२५१।।
अब, प्रवृत्तिके कालका विभाग बतलाते हैं (अर्थात् यह बतलाते हैं कि – शुभोपयोगी श्रमण को किस समय प्रवृत्ति करना योग्य है और किस समय नहीं) : — १. वृत्ति = परिणति; वर्तन; वर्तना वह । २. ज्ञान साकार है और दर्शन अनाकार है ।
साधु करो सेवा स्वशक्तिप्रमाण ए मुनिराजनी. २५२.