यथैकेषामपि बीजानां भूमिवैपरीत्यान्निष्पत्तिवैपरीत्यं, तथैकस्यापि प्रशस्तरागलक्षणस्य शुभोपयोगस्य पात्रवैपरीत्यात्फलवैपरीत्यं, कारणविशेषात्कार्यविशेषस्यावश्यंभावित्वात् ।२५५। गतम् । इत ऊर्ध्वं गाथाषटकपर्यन्तं पात्रापात्रपरीक्षामुख्यत्वेन व्याख्यानं करोति । अथ शुभोपयोगस्य पात्रभूतवस्तुविशेषात्फलविशेषं दर्शयति — फलदि फलति, फलं ददाति । स कः । रागो रागः । कथंभूतः । पसत्थभूदो प्रशस्तभूतो दानपूजादिरूपः । किं फलति । विवरीदं विपरीतमन्यादृशं भिन्न- भिन्नफलम् । केन करणभूतेन । वत्थुविसेसेण जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नपात्रभूतवस्तुविशेषेण । अत्रार्थे है और सम्यग्दृष्टि गृहस्थके मुनियोग्य शुद्धात्मपरिणतिको प्राप्त न हो सकनेसे अशुभवंचनार्थ शुभोपयोग मुख्य है । सम्यग्दृष्टि गृहस्थके अशुभसे ( – विशेष अशुद्ध परिणतिसे) छूटनेके लिये प्रवर्तमान जो यह शुभोपयोगका पुरुषार्थ वह भी शुद्धिका ही मन्दपुरुषार्थ है, क्योंकि शुद्धात्मद्रव्यके मंद आलम्बनसे अशुभ परिणति बदलकर शुभ परिणति होती है और शुद्धात्मद्रव्यके उग्र आलम्बनसे शुभपरिणति भी बदलकर शुभपरिणति हो जाती है ।।२५४।।
अब, ऐसा सिद्ध करते हैं कि शुभोपयोगको कारणकी विपरीततासे फलकी विपरीतता होती है : —
अन्वयार्थ : — [इह नानाभूमिगतानि बीजानि एव ] जैसे इस जगतमें अनेक प्रकारकी भूमियोंमें पड़े हुए बीज [सस्यकाले ] धान्यकालमें विपरीतरूपसे फलते हैं, उसीप्रकार [प्रशस्तभूतः रागः ] प्रशस्तभूत राग [वस्तुविशेषेण ] वस्तु – भेदसे ( – पात्र भेदसे) [विपरीतं फलति ] विपरीतरूपसे फलता है ।।२५५।।
टीका : — जैसे बीज ज्यों के त्यों होने पर भी भूमिकी विपरीततासे निष्पत्तिकी विपरीतता होती है, (अर्थात् अच्छी भूमिमें उसी बीजका अच्छा अन्न उत्पन्न होता है और खराब भूमिमें वही खराब हो जाता है या उत्पन्न ही नहीं होता), उसीप्रकार प्रशस्तरागस्वरूप शुभोपयोग ज्योंका त्यों होने पर भी पात्रकी विपरीततासे फलकी विपरीतता होती है, क्योंकि कारणके भेदसे कार्यका भेद अवश्यम्भावी (अनिवार्य) है ।।२५५।।
निष्पत्ति विपरीत होय भूमिविशेषथी ज्यम बीजने. २५५.