Pravachansar (Hindi). Gatha: 256.

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४६८प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अथ कारणवैपरीत्यफलवैपरीत्ये दर्शयति
छदुमत्थविहिदवत्थुसु वदणियमज्झयणझाणदाणरदो
ण लहदि अपुणब्भावं भावं सादप्पगं लहदि ।।२५६।।
छद्मस्थविहितवस्तुषु व्रतनियमाध्ययनध्यानदानरतः
न लभते अपुनर्भावं भावं सातात्मकं लभते ।।२५६।।

शुभोपयोगस्य सर्वज्ञव्यवस्थापितवस्तुषु प्रणिहितस्य पुण्योपचयपूर्वकोऽपुनर्भावोपलम्भः किल फलं; तत्तु कारणवैपरीत्याद्विपर्यय एव तत्र छद्मस्थव्यवस्थापितवस्तूनि कारणवैपरीत्यं; तेषु व्रतनियमाध्ययनध्यानदानरतत्वप्रणिहितस्य शुभोपयोगस्यापुनर्भावशून्यकेवलपुण्यापसद- प्राप्तिः फलवैपरीत्यं; तत्सुदेवमनुजत्वम् ।।२५६।। द्रष्टान्तमाहणाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि नानाभूमिगतानीह बीजानि इव सस्यकाले धान्य- निष्पत्तिकाल इति अयमत्रार्थःयथा जघन्यमध्यमोत्कृष्टभूमिविशेषेण तान्येव बीजानि भिन्नभिन्न- फलं प्रयच्छन्ति, तथा स एव बीजस्थानीयशुभोपयोगो भूमिस्थानीयपात्रभूतवस्तुविशेषेण भिन्नभिन्न- फलं ददाति तेन किं सिद्धम् यदा पूर्वसूत्रकथितन्यायेन सम्यक्त्वपूर्वकः शुभोपयोगो भवति तदा मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धो भवति, परंपरया निर्वाणं च नो चेत्पुण्यबन्धमात्रमेव ।।२५५।। अथ कारण- वैपरीत्याफलमपि विपरीतं भवतीति तमेवार्थं द्रढयतिण लहदि न लभते स कः कर्ता वद-

अब कारणकी विपरीतता और फलकी विपरीतता बतलाते हैं :

अन्वयार्थ :[छद्मस्थविहितवस्तुषु ] जो जीव छद्मस्थविहित वस्तुओंमें (छद्मस्थ- अज्ञानीके द्वारा कथित देवगुरुधर्मादिमें) [व्रतनियमाध्ययनध्यानदानरतः ] व्रतनियम अध्ययनध्यानदानमें रत होता है वह जीव [अपुनर्भावं ] मोक्षको [न लभते ] प्राप्त नहीं होता, (किन्तु) [सातात्मकं भावं ] सातात्मक भावको [लभते ] प्राप्त होता है ।।२५६।।

टीका :सर्वज्ञस्थापित वस्तुओंमें युक्त शुभोपयोगका फल पुण्यसंचयपूर्वक मोक्षकी प्राप्ति है वह फल, कारणकी विपरीतता होनेसे विपरीत ही होता है वहाँ, छद्मस्थस्थापित वस्तुयें वे कारणविपरीतता है; उनमें व्रतनियमअध्ययनध्यानदानरतरूपसे युक्त शुभोपयोगका फल जो मोक्षशून्य केवल पुण्यापसदकी प्राप्ति है वह फलकी विपरीतता है; वह फल सुदेवमनुष्यत्व है ।।२५६।। १. सर्वज्ञस्थापित = सर्वज्ञ कथित २. पुण्यापसद = पुण्य अपसद; अधमपुण्य; हतपुण्य

छद्मस्थअभिहित ध्यानदाने व्रतनियमपठनादिके
रत जीव मोक्ष लहे नहीं, बस भाव शातात्मक लहे. २५६.