टीका : — जो स्वयं अधिक गुणवाले होने पर भी अन्य हीनगुणवालों (श्रमणों) केप्रति (वंदनादि) क्रियाओंमें वर्तते हैं वे मोहके कारण असम्यक् उपयुक्त होते हुए (-मिथ्याभावोंमें युक्त होते हुए) चारित्रसे भ्रष्ट होते हैं ।।२६७।।
अब, असत्संग निषेध्य है ऐसा बतलाते हैं : —
अन्वयार्थ : — [निश्चितसूत्रार्थपदः ] जिसने सूत्रों और अर्थोंके पदको – अधिष्ठानको(अर्थात् ज्ञातृतत्त्वको) निश्चित किया है, [समितकषायः ] जिसने कषायोंका शमन किया है, [च ] और [तपोऽधिकः अपि ] जो अधिक तपवान् है — ऐसा जीव भी [यदि ] यदि[लौकिकजनसंसर्ग ] लौकिकजनोंके संसर्गको [न त्यजति ] नहीं छोड़ता, [संयतः न भवति ] तो वह संयत नहीं है (अर्थात् असंयत हो जाता है) ।।२६८।।