यतः सकलस्यापि विश्ववाचकस्य सल्लक्ष्मणः शब्दब्रह्मणस्तद्वाच्यस्य सकलस्यापि
सल्लक्ष्मणो विश्वस्य च युगपदनुस्यूततदुभयज्ञेयाकारतयाधिष्ठानभूतस्य सल्लक्ष्मणो ज्ञातृतत्त्वस्य
निश्चयनान्निश्चितसूत्रार्थपदत्वेन, निरुपरागोपयोगत्वात् समितकषायत्वेन, बहुशोऽभ्यस्त-
निष्कम्पोपयोगत्वात्तपोऽधिकत्वेन च सुष्ठु संयतोऽपि सप्तार्चिःसंगतं तोयमिवावश्यम्भावि-
विकारत्वात् लौकिकसंगादसंयत एव स्यात्, ततस्तत्संगः सर्वथा प्रतिषेध्य एव ।।२६८।।
अजधागहिदत्था’ इत्यादि गाथापञ्चकम् । एवं द्वात्रिंशद्गाथाभिः स्थलपञ्चकेन चतुर्थान्तराधिकारे
समुदायपातनिका । तद्यथा — अथ लौकिकसंसर्गं प्रतिषेधयति — णिच्छिदसुत्तत्थपदो निश्चितानि ज्ञातानि
निर्णीतान्यनेकान्तस्वभावनिजशुद्धात्मादिपदार्थप्रतिपादकानि सूत्रार्थपदानि येन स भवति निश्चित-
सूत्रार्थपदः, समिदकसाओ परविषये क्रोधादिपरिहारेण तथाभ्यन्तरे परमोपशमभावपरिणतनिजशुद्धात्म-
भावनाबलेन च शमितकषायः, तवोधिगो चावि अनशनादिबहिरङ्गतपोबलेन तथैवाभ्यन्तरे शुद्धात्मतत्त्व-
भावनाविषये प्रतपनाद्विजयनाच्च तपोऽधिकश्चापि सन् स्वयं संयतः कर्ता लोगिगजणसंसग्गं ण चयदि जदि
लौकिकाः स्वेच्छाचारिणस्तेषां संसर्गो लौकिकसंसर्गस्तं न त्यजति यदि चेत् संजदो ण हवदि तर्हि संयतो
न भवतीति । अयमत्रार्थः — स्वयं भावितात्मापि यद्यसंवृतजनसंसर्गं न त्यजति तदातिपरिचयादग्निसङ्गतं
जलमिव विकृतिभावं गच्छतीति ।।२६८।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
चरणानुयोगसूचक चूलिका
४८१
प्र. ६१
टीका : — (१) विश्वके वाचक, ‘सत्’ लक्षणवान् ऐसा जो शब्दब्रह्म और उस
शब्दब्रह्मके वाच्य ‘सत्’ लक्षणवाला ऐसा जो सम्पूर्ण विश्व उन दोनोंके ज्ञेयाकार अपनेमें युगपत्
गुंथ जानेसे ( – ज्ञातृतत्त्वमें एक ही साथ ज्ञात होनेसे) उन दोनोंका १अधिष्ठानभूत — ऐसा ‘सत्’
लक्षणवाले ज्ञातृत्वका निश्चय किया होनेसे ‘जिसने सूत्रों और अर्थोंके पदको ( – अधिष्ठानको)
निश्चित किया है ऐसा’ हो, (२) निरुपराग उपयोगके कारण ‘जिसने कषायोंको शमित किया
है ऐसा’ हो, और (३) निष्कंप उपयोगका २बहुशः अभ्यास करनेसे ‘अधिक तपवाला’ हो,
— इसप्रकार (इन तीन कारणोंसे) जो जीव भलीभाँति संयत हो, वह भी लौकिक (जनोंके)
संगसे असंयत ही होता है, क्योंकि अग्निकी संगतिमें रहे हुए पानीकी भाँति उसे विकार
अवश्यंभावी है । इसलिये लौकिक संग सर्वथा निषेध्य ही है ।
भावार्थ : — जो जीव संयत हो, अर्थात् (१) जिसने शब्दब्रह्मको और उसके
वाच्यरूप समस्त पदार्थोंको जाननेवाले ज्ञातृतत्त्वका निर्णय किया हो, (२) जिसने कषायोंको
शमित किया हो (३) और जो अधिक तपवान् हो, वह जीव भी लौकिकजनके संगसे असंयत
ही होता है; क्योंकि जैसे अग्निके संगसे पानीमें उष्णतारूप विकार अवश्य होता है, उसीप्रकार
लौकिकजनके संसर्गको न छोड़नेवाले संयतके असंयततारूप विकार अवश्य होता है । इसलिये
लौकिक जनोंका संग सर्वप्रकारसे त्याज्य ही है ।।२६८।।
१. ज्ञातृतत्त्वका स्वभाव शब्दब्रह्मको और उसके वाच्यरूप विश्वको युगपद् जाननेका है इसलिये उस अपेक्षा
ज्ञातृतत्त्वको शब्दब्रह्मका तथा विश्वका अधिष्ठान – आधार कहा गया है । संयत जीवको ऐसे ज्ञातृतत्त्वका
निश्चय होता है ।२. बहुशः = (१) बहुत; खूब (२) बारंबार ।