परस्परमतद्भावमात्रेणाशक्यविवेचनत्वादमेचकस्वभावैकधर्मव्यापकैकधर्मित्वाद्यथोदितैकान्तात्मा-
वर्तनादिपरंपरादुर्लभान्यपि कथंचित्काकतालीयन्यायेनावाप्य सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनस्वभावनिज-
[अर्थ : — जितने १वचनपंथ हैं उतने वास्तवमें नयवाद हैं; और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय (पर मत) हैं ।
परसमयों (मिथ्यामतियों) का वचन सर्वथा (अर्थात् अपेक्षा बिना) कहा जानेके कारण वास्तवमें मिथ्या है; और जैनोंका वचन कथंचित् (अर्थात् अपेक्षा सहित) कहा जाता है इसलिये वास्तवमें सम्यक् है । ]
इसप्रकार इस (उपरोक्त) सूचनानुसार (अर्थात् ४७ नयोंमें समझाया है उस विधिसे) एक – एक धर्ममें एक – एक नय (व्यापे), इसप्रकार अनन्त धर्मोंमें व्यापक अनन्त नयोंसे निरूपण किया जाय तो, समुद्रके भीतर मिलनेवाले २श्वेत – नील गंगा – यमुनाके जलसमूहकी भाँति, अनन्तधर्मोंको परस्पर अतद्भावमात्रसे पृथक् करनेमें अशक्य होनेसे, आत्मद्रव्य ३अमेचक स्वभाववाला, एक धर्ममें व्याप्त होनेवाला, एक धर्मी होनेसे यथोक्त एकान्तात्मक (एकधर्मस्वरूप) है । परन्तु युगपत् अनन्तधर्मोंमें व्यापक ऐसे अनन्त नयोंमें व्याप्त होनेवाला १. वचनपंथ = वचनके प्रकार [जितने वचनके प्रकार हैं उतने नय हैं । अपेक्षा सहित नय वे सम्यक् नय
है और अपेक्षा रहित नय वे मिथ्यानय हैं; इसलिये जितने सम्यक् नय हैं उतने ही मिथ्यानय हैं । ] २. गंगाका पानी श्वेत होता है और यमुनाका पानी नील होता है । ३. अमेचक = अभेद; विविधता रहित; एक ।