व्याधिताध्यक्षधन्वन्तरिचरवत् केवलमेव साक्षि ४१ । क्रियानयेन स्थाणुभिन्नमूर्धजातदृष्टि-
लब्धनिधानान्धवदनुष्ठानप्राधान्यसाध्यसिद्धिः ४२ । ज्ञाननयेन चणकमुष्टिक्रीतचिन्तामणिगृह-
कोणवाणिजवद् विवेकप्राधान्यसाध्यसिद्धिः ४३ । व्यवहारनयेन बन्धकमोचकपरमाण्वन्तरसंयुज्य-
मानवियुज्यमानपरमाणुवद् बन्धमोक्षयोर्द्वैतानुवर्ति ४४ । निश्चयनयेन केवलबध्यमानमुच्यमान-
बन्धमोक्षोचितस्रिग्धरूक्षत्वगुणपरिणतपरमाणुवद्बन्धमोक्षयोरद्वैतानुवर्ति ४५ । अशुद्धनयेन
इव रागद्वेषमोहकल्लोलैर्यावदस्वस्थरूपेण क्षोभं गच्छत्ययं जीवस्तावत्कालं निजशुद्धात्मानं न प्राप्नोति
इति । स एव वीतरागसर्वज्ञप्रणीतोपदेशात् एकेन्द्रियविकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तमनुष्यदेशकुल-
५००प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
रोगीको देखनेवाले वैद्यकी भाँति । [आत्मा अभोक्तानयसे केवल साक्षी ही है — भोक्ता नहीं;
जैसे सुख – दुःखको भोगनेवाले रोगीको देखनेवाला वैद्य वह तो केवल साक्षी ही है । ] ४१.
आत्मद्रव्य क्रियानयसे अनुष्ठानकी प्रधानतासे सिद्धि सधे ऐसा है, खम्भेसे सिर फू ट जाने
पर दृष्टि उत्पन्न होकर जिसे निधान प्राप्त हो जाय ऐसे अंधकी भाँति । [क्रियानयसे आत्मा अनुष्ठानकी
प्रधानतासे सिद्धि हो ऐसा है; जैसे किसी अंधपुरुषको पत्थरके खम्भेके साथ सिर फोड़नेसे सिरके
रक्तका विकार दूर होनेसे आँखे खुल जायें और निधान प्राप्त हो, उस प्रकार । ] ४२.
आत्मद्रव्य ज्ञाननयसे विवेककी प्रधानतासे सिद्धि सधे ऐसा है; मुट्ठीभर चने देकर
चिंतामणि – रत्न खरीदनेवाले घरके कोनेमें बैठे हुए व्यापारीकी भाँति । [ज्ञाननयसे आत्माको
विवेककी प्रधानतासे सिद्धि होती है, जैसे घरके कोनेमें बैठा हुआ व्यापारी मुट्ठीभर चना देकर
चिंतामणि – रत्न खरीद लेता है, उस प्रकार । ] ४३.
आत्मद्रव्य व्यवहारनयसे बंध और मोक्षमें १द्वैतका अनुसरण करनेवाला बंधक है, (बंध
करनेवाले) और मोचक (मुक्त करनेवाले) ऐसे अन्य परमाणुके साथ संयुक्त होनेवाले और
उससे वियुक्त होनेवाले परमाणुकी भाँति । [व्यवहारनयसे आत्मा बंध और मोक्षमें (पुद्गलके
साथ) द्वैतको प्राप्त होता है, जैसे परमाणुके बंधमें वह परमाणु अन्य परमाणुके साथ संयोगको
पानेरूप द्वैतको प्राप्त होता है और परमाणुके मोक्षमें वह परमाणु अन्य परमाणुसे पृथक् होनेरूप
द्वैतको पाता है, उस प्रकार । ] ४४.
आत्मद्रव्य निश्चयनयसे बंध और मोक्षमें अद्वैतका अनुसरण करनेवाला है, अकेले बध्यमान
और मुच्यमान ऐसे बंधमोक्षोचित्त स्निग्धत्वरूक्षत्वगुणरूप परिणत परमाणुकी भाँति । [निश्चयनयसे
आत्मा अकेला ही बद्ध और मुक्त होता है, जैसे बंध और मोक्षके योग्य स्निग्ध या रूक्षत्वगुणरूप
परिणमित होता हुआ परमाणु अकेला ही बद्ध और मुक्त होता है, उस प्रकार । ] ४५.
आत्मद्रव्य अशुद्धनयसे, घट और रामपात्रसे विशिष्ट मिट्टी मात्रकी भाँति,
१. द्वैत = द्वित्व, द्वैतपन, [व्यवहारनयसे आत्माके बन्धमें कर्मके साथके संयोगकी अपेक्षा आती है इसलिये
द्वैत है और आत्माकी मुक्तिमें कर्मके वियोगकी अपेक्षा आती है इसलिये वहाँ भी द्वैत है । ]