बहिरर्थव्यक्तिषु प्रवृत्तमैत्रीकस्य शिथिलितात्मविवेकतयात्यन्तबहिर्मुखस्य पुनः पौद्गलिककर्म-
निर्मापकरागद्वेषद्वैतमनुवर्तमानस्य दूरत एवात्मावाप्तिः
ज्ञानपूर्वकविभागकरणात
ज्ञप्तिव्यक्तिनिमित्ततया ज्ञेयभूतासु बहिरर्थव्यक्तिषु न नाम मैत्री प्रवर्तते; ततः
सुप्रतिष्ठितात्मविवेकतयात्यन्तमन्तर्मुखीभूतः पौद्गलिककर्मनिर्मापकरागद्वेषद्वैतानुवृत्तिदूरीभूतो
दूरत एवाननुभूतपूर्वमपूर्वज्ञानानन्दस्वभावं भगवन्तमात्मानमवाप्नोति
मोहकल्लोलक्षोभरहितप्रस्तावे यदा निजशुद्धात्मस्वरूपे स्थिरो भवति तदा तदैव निजशुद्धात्मस्वरूपं
प्राप्नोति
उसकी मैत्री प्रवर्तती है, इसलिये आत्मविवेक शिथिल हुआ होनेसे अत्यन्त बहिर्मुख ऐसा वह
पुनः पौद्गलिक कर्मके रचयिता रागद्वेषद्वैतरूप परिणमित होता है और इसलिये उसके
आत्मप्राप्ति दूर ही है
होनेसे समुद्रकी भाँति अपनेमें ही अति निष्कंप रहता हुआ एक साथ ही अनन्त ज्ञप्तिव्यक्तियोंमें
व्याप्त होकर अवकाशके अभावके कारण सर्वथा विवर्तन [परिवर्तन ] को प्राप्त नहीं होता, तब
ज्ञप्तिव्यक्तियोंके निमित्तरूप होनेसे जो ज्ञेयभूत हैं ऐसी बाह्यपदार्थव्यक्तियोंके प्रति उसे वास्तवमें
मैत्री नहीं प्रवर्तती और इसलिये आत्मविवेक सुप्रतिष्ठित [सुस्थित ] हुआ होनेके कारण अत्यन्त
अन्तर्मुख हुआ ऐसा यह आत्मा पौद्गलिक कर्मोंके रचयिता रागद्वेषद्वैतरूप परिणतिसे दूर होता
हुआ पूर्वमें अनुभव नहीं किये गये अपूर्व ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान् आत्माको आत्यंतिक रूपसे
ही प्राप्त करता है