Pravachansar (Hindi).

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भवति चात्र श्लोकः
आनन्दामृतपूरनिर्भरवहत्कैवल्यकल्लोलिनी-
निर्मग्नं जगदीक्षणक्षममहासंवेदनश्रीमुखम्
स्यात्कारांक जिनेशशासनवशादासादयन्तूल्लसत
स्वं तत्त्वं वृतजात्यरत्नकिरणप्रस्पष्टमिष्टं जनाः ।।२०।।
व्याख्येयं किल विश्वमात्मसहितं व्याख्या तु गुम्फो गिरां
व्याख्यातामृतचन्द्रसूरिरिति मा मोहाज्जनो वल्गतु
वल्गत्वद्य विशुद्धबोधकलया स्याद्वादविद्याबलाद
लब्ध्वैकं सकलात्मशाश्वतमिदं स्वं तत्त्वमव्याकुलः ।।२१।।
इति श्रीजयसेनाचार्यकृतायां तात्पर्यवृत्तौ एवं पूर्वोक्तक्रमेण ‘एस सुरासुर’ इत्याद्येकोत्तरशत-
गाथापर्यन्तं सम्यग्ज्ञानाधिकारः, तदनन्तरं ‘तम्हा तस्स णमाइं’ इत्यादि त्रयोदशोत्तरशतगाथापर्यन्तं
५०४प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
यहाँ श्लोक भी है :
[अर्थ : ] आनन्दामृतके पूरसे भरपूर बहती हुई कैवल्यसरितामें (मुक्तिरूपीनदीमें)
जो डूबा हुआ है, जगतको देखनेमें समर्थ ऐसी महासंवेदनरूपी श्री (महाज्ञानरूपी लक्ष्मी)
जिसमें मुख्य है, जो उत्तम रत्न
किरणकी भाँति स्पष्ट है और जो इष्ट है ऐसे उल्लसित
(प्रकाशमान, आनन्दमय) स्वतत्त्वको जन स्यात्कारलक्षण जिनेश शासनके वशसे प्राप्त हों
(‘स्यात्कार’ जिसका चिह्न है ऐसे जिनेन्द्रभगवानके शासनका आश्रय लेकरके प्राप्त करो )
[अब, ‘अमृतचन्द्रसूरि इस टीकाके रचयिता हैं ’ ऐसा मानना योग्य नहीं है ऐसे अर्थवाले
काव्य द्वारा यथार्थ वस्तुस्वरूपको प्रगट करके स्वतत्त्वप्राप्तिकी प्रेरणा की जाती है : ]
[अर्थ : ] (वास्तवमें पुद्गल ही स्वयं शब्दरूप परिणमित होते हैं, आत्मा उन्हें
परिणमित नहीं कर सकता, तथा वास्तवमें सर्व पदार्थ ही स्वयं ज्ञेयरूपप्रमेयरूप परिणमित
होते हैं, शब्द उन्हें ज्ञेय बनासमझा नहीं सकते इसलिये) ‘आत्मा सहित विश्व वह व्याख्येय
(समझाने योग्य) है, वाणीका गुंथन वह व्याख्या है और अमृतचन्द्रसूरि वे व्याख्याता हैं,
इसप्रकार जन मोहसे मत नाचो (
मत फू लो) (किन्तु) स्याद्वादविद्याबलसे विशुद्ध ज्ञानकी
कला द्वारा इस एक समस्त शाश्वत स्वतत्त्वको प्राप्त करके आज [जन ] अव्याकुलरूपसे नाचो
(
परमानन्दपरिणामरूप परिणत होओ ]
[अब काव्य द्वारा चैतन्यकी महिमा गाकर, वही एक अनुभव करने योग्य है ऐसी प्रेरणा
करके, इस परम पवित्र परमागमकी पूर्णाहुति की जाती है : ]
शार्दूलविक्रीडित छंद