इति श्रीजयसेनाचार्यकृतायां तात्पर्यवृत्तौ एवं पूर्वोक्तक्रमेण ‘एस सुरासुर’ इत्याद्येकोत्तरशत- गाथापर्यन्तं सम्यग्ज्ञानाधिकारः, तदनन्तरं ‘तम्हा तस्स णमाइं’ इत्यादि त्रयोदशोत्तरशतगाथापर्यन्तं
[अर्थ : — ] आनन्दामृतके पूरसे भरपूर बहती हुई कैवल्यसरितामें (मुक्तिरूपीनदीमें) जो डूबा हुआ है, जगतको देखनेमें समर्थ ऐसी महासंवेदनरूपी श्री (महाज्ञानरूपी लक्ष्मी) जिसमें मुख्य है, जो उत्तम रत्न – किरणकी भाँति स्पष्ट है और जो इष्ट है ऐसे उल्लसित (प्रकाशमान, आनन्दमय) स्वतत्त्वको जन स्यात्कारलक्षण जिनेश शासनके वशसे प्राप्त हों । ( – ‘स्यात्कार’ जिसका चिह्न है ऐसे जिनेन्द्रभगवानके शासनका आश्रय लेकरके प्राप्त करो ।)
[अब, ‘अमृतचन्द्रसूरि इस टीकाके रचयिता हैं ’ ऐसा मानना योग्य नहीं है ऐसे अर्थवाले काव्य द्वारा यथार्थ वस्तुस्वरूपको प्रगट करके स्वतत्त्वप्राप्तिकी प्रेरणा की जाती है : — ]
[अर्थ : — ] (वास्तवमें पुद्गल ही स्वयं शब्दरूप परिणमित होते हैं, आत्मा उन्हें परिणमित नहीं कर सकता, तथा वास्तवमें सर्व पदार्थ ही स्वयं ज्ञेयरूप – प्रमेयरूप परिणमित होते हैं, शब्द उन्हें ज्ञेय बना – समझा नहीं सकते इसलिये) ‘आत्मा सहित विश्व वह व्याख्येय (समझाने योग्य) है, वाणीका गुंथन वह व्याख्या है और अमृतचन्द्रसूरि वे व्याख्याता हैं, इसप्रकार जन मोहसे मत नाचो ( – मत फू लो) (किन्तु) स्याद्वादविद्याबलसे विशुद्ध ज्ञानकी कला द्वारा इस एक समस्त शाश्वत स्वतत्त्वको प्राप्त करके आज [जन ] अव्याकुलरूपसे नाचो ( – परमानन्दपरिणामरूप परिणत होओ । ]
[अब काव्य द्वारा चैतन्यकी महिमा गाकर, वही एक अनुभव करने योग्य है ऐसी प्रेरणा करके, इस परम पवित्र परमागमकी पूर्णाहुति की जाती है : — ] ★शार्दूलविक्रीडित छंद