अपरमिह न किंचित्तत्त्वमेकं परं चित् ।।२२।।
चारित्राधिकारश्चेति महाधिकारत्रयेणैकादशाधिकत्रिशतगाथाभिः प्रवचनसारप्राभृतं समाप्तम् ।।
[अर्थ : — ] इसप्रकार [इस परमागममें ] अमन्दरूपसे [बलपूर्वक, जोरशोरसे ] जो थोड़ा – बहुत तत्त्व कहा गया है, वह सब चैतन्यमें वास्तवमें अग्निमें होमी गई वस्तुके समान [स्वाहा ] हो गया है । [अग्निमें होमे गये घीको अग्नि खा जाती है, मानो कुछ होमा ही न गया हो ! इसीप्रकार अनन्त माहात्म्यवन्त चैतन्यका चाहे जितना वर्णन किया जाय तथापि मानो उस समस्त वर्णनको अनन्त महिमावान चैतन्य खा जाता है; चैतन्यकी अनन्त महिमाके निकट सारा वर्णन मानो वर्णन ही न हुआ हो इस प्रकार तुच्छताको प्राप्त होता है । ] उस चैतन्यको ही चैतन्य आज प्रबलता – उग्रतासे अनुभव करो (अर्थात् उस चित्स्वरूप आत्माको ही आत्मा आज अत्यन्त अनुभवो ] क्योंकि इस लोकमें दूसरा कुछ भी [उत्तम ] नहीं है, चैतन्य ही परम [उत्तम ] तत्त्व है ।
इस प्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री प्रवचनसार शास्त्रकी श्रीमद् - अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित) तत्त्वदीपिका नामक संस्कृत टीकाके श्री हिम्मतलाल जेठालाल शाह कृत गुजराती अनुवादका हिन्दी रूपान्तर समाप्त हुआ ।
मालिनी छंद. प्र. ६४