Pravachansar (Hindi).

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मालिनी छंद.
इति गदितमनीचैस्तत्त्वमुच्चावचं यत
चिति तदपि किलाभूत्कल्पमग्नौ हुतस्य
अनुभवतु तदुच्चैश्चिच्चिदेवाद्य यस्माद्
अपरमिह न किंचित्तत्त्वमेकं परं चित
।।२२।।
समाप्तेयं तत्त्वदीपिका वृत्तिः
✾ ✾ ✾
ज्ञेयाधिकारापरनामा सम्यक्त्वाधिकारः, तदनन्तरं ‘एवं पणमिय सिद्धे’ इत्यादि सप्तनवतिगाथापर्यन्तं
चारित्राधिकारश्चेति महाधिकारत्रयेणैकादशाधिकत्रिशतगाथाभिः
प्रवचनसारप्राभृतं समाप्तम् ।।
समाप्तेयं तात्पर्यवृत्तिः प्रवचनसारस्य
कहानजैनशास्त्रमाला ]
परिशिष्ट
५०५
प्र. ६४
[अर्थ : ] इसप्रकार [इस परमागममें ] अमन्दरूपसे [बलपूर्वक, जोरशोरसे ] जो
थोड़ाबहुत तत्त्व कहा गया है, वह सब चैतन्यमें वास्तवमें अग्निमें होमी गई वस्तुके समान
[स्वाहा ] हो गया है [अग्निमें होमे गये घीको अग्नि खा जाती है, मानो कुछ होमा ही न
गया हो ! इसीप्रकार अनन्त माहात्म्यवन्त चैतन्यका चाहे जितना वर्णन किया जाय तथापि मानो
उस समस्त वर्णनको अनन्त महिमावान चैतन्य खा जाता है; चैतन्यकी अनन्त महिमाके निकट
सारा वर्णन मानो वर्णन ही न हुआ हो इस प्रकार तुच्छताको प्राप्त होता है
] उस चैतन्यको
ही चैतन्य आज प्रबलताउग्रतासे अनुभव करो (अर्थात् उस चित्स्वरूप आत्माको ही आत्मा
आज अत्यन्त अनुभवो ] क्योंकि इस लोकमें दूसरा कुछ भी [उत्तम ] नहीं है, चैतन्य ही परम
[उत्तम ] तत्त्व है
इस प्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री प्रवचनसार शास्त्रकी श्रीमद् -
अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित) तत्त्वदीपिका नामक संस्कृत टीकाके श्री हिम्मतलाल जेठालाल
शाह कृत गुजराती अनुवादका हिन्दी रूपान्तर समाप्त हुआ
समाप्त