प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
साधक जीवकी दृष्टि
अध्यात्ममें सदा निश्चयनय ही प्रधान है, उसीके आश्रयसे धर्म होता है । शास्त्रोंमें जहाँ
विकारी पर्यायोंका व्यवहारनयसे कथन किया जावे वहाँ भी निश्चयनय को ही मुख्य और
व्यवहारनयको गौण करनेका आशय है ऐसा समझना चाहिये । क्योंकि पुरुषार्थके द्वारा अपनेमें
शुद्ध पर्यायको प्रगट करने अर्थात् विकारी पर्यायको टालनेके लिये सदा निश्चयनय ही आदरणीय
है । उस समय दोनों नयोंका ज्ञान होता है, किन्तु धर्मको प्रगट करनेके लिये दृष्टिमें दोनों नय
कदापि आदरणीय नहीं हैं । व्यवहारनयके आश्रयसे क भी आंशिक धर्म भी नहीं होता, प्रत्युत
उसके आश्रयसे रागद्वेषके विकल्प ही उठा करते हैं ।
छहों द्रव्य, उनके गुण और उनकी पर्यायोंके स्वरूपका ज्ञान करानेके लिये कभी
निश्चयनयकी मुख्यता और व्यवहारनयकी गौणता रखकर कथन किया जाता है, और कभी
व्यवहारनयको मुख्य करके और निश्चयनयको गौण रखकर कथन किया जाता है । स्वयं विचार
करे उसमें भी कभी निश्चयनयकी और कभी व्यवहारनयकी मुख्यता की जाती है ।
अध्यात्मशास्त्रमें भी जीवकी विकारी पर्याय जीव स्वयं करता है तो होती है, और वह जीवका
अनन्य परिणाम है — इसप्रकार व्यवहारनयसे कहा या समझाया जाय, किन्तु उस प्रत्येक समयमें
दृष्टिमें तो निश्चयनय एक ही मुख्य और आदरणीय है — ऐसा ज्ञानियोंका कथन है । शुद्धता
प्रकट करनेके लिये कभी निश्चयनय आदरणीय होता है और कभी व्यवहारनय – ऐसा मानना
भूल है । तीनों कालमें एकमात्र निश्चयनयके आश्रयसे ही धर्म प्रगट होता है – ऐसा समझना
चाहिये ।
साधक जीव प्रारंभसे अंत तक निश्चयकी ही मुख्यता रखकर व्यवहारको गौण ही
करता जाता है, जिससे साधक दशामें निश्चयकी मुख्यताके बलसे साधकके शुद्धताकी वृद्धि
ही होती जाती है और अशुद्धता टलती ही जाती है । इसप्रकार निश्चयकी मुख्यताके बलसे
पूर्ण केवलज्ञान होने पर वहाँ मुख्यत्व गौणत्व नहीं होता और नय भी नहीं होते ।