यत एव शुद्धात्मनो जातवेदस इव कालायसगोलोत्कूलितपुद्गलाशेषविलासकल्पो नास्तीन्द्रियग्रामस्तत एव घोरघनघाताभिघातपरम्परास्थानीयं शरीरगतं सुखदुःखं न स्यात् ।।२०।।
अथ ज्ञानस्वरूपप्रपंच सौख्यस्वरूपप्रपंच च क्रमप्रवृत्तप्रबन्धद्वयेनाभिदधाति । तत्र केवलिनोऽतीन्द्रियज्ञानपरिणतत्वात्सर्वं प्रत्यक्षं भवतीति विभावयति —
चाध्यात्मग्रन्थत्वान्नोच्यन्त इति । अयमत्र भावार्थः — इदं वस्तुस्वरूपमेव ज्ञातव्यमत्राग्रहो न कर्तव्यः । कस्मात् । दुराग्रहे सति रागद्वेषोत्पत्तिर्भवति ततश्च निर्विकारचिदानन्दैकस्वभावपरमात्मभावनाविघातो भवतीति ।।२०।। एवमनन्तज्ञानसुखस्थापने प्रथमगाथा केवलिभुक्तिनिराकरणे द्वितीया चेति गाथाद्वयं गतम् ।
टीका : – जैसे अग्निको लोहपिण्डके तप्त पुद्गलोंका समस्त विलास नहीं है (अर्थात् अग्नि लोहेके गोलेके पुद्गलोंके विलाससे — उनकी क्रियासे — भिन्न है) उसीप्रकार शुद्ध आत्माके (अर्थात् केवलज्ञानी भगवानके) इन्द्रिय -समूह नहीं है; इसीलिये जैसे अग्निको घनके घोर आघातोंकी परम्परा नहीं है (लोहेके गोलेके संसर्गका अभाव होने पर घनके लगातार आघातों की भयंकर मार अग्निपर नहीं पड़ती) इसीप्रकार शुद्ध आत्माके शरीर सम्बन्धी सुख दुःख नहीं हैं ।
भावार्थ : — केवली भगवानके शरीर सम्बन्धी क्षुधादिका दुःख या भोजनादिका सुख नहीं होता इसलिये उनके कवलाहार नहीं होता ।।२०।।
अब, ज्ञानके स्वरूपका विस्तार और सुखके स्वरूपका विस्तार क्रमशः प्रवर्तमान दो अधिकारोंके द्वारा कहते हैं । इनमेंसे (प्रथम) अतीन्द्रिय ज्ञानरूप परिणमित होनेसे केवली भगवानके सब प्रत्यक्ष है यह प्रगट करते हैं : —