Pravachansar (Hindi).

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अस्य खलु भगवतः समस्तावरणक्षयक्षण एव सांसारिकपरिच्छित्तिनिष्पत्तिबलाधान-
हेतुभूतानि प्रतिनियतविषयग्राहीण्यक्षाणि तैरतीतस्य, स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दपरिच्छेदरूपैः
समरसतया समन्ततः सर्वै̄रेवेन्द्रियगुणैः समृद्धस्य, स्वयमेव सामस्त्येन स्वपरप्रकाशनक्षममनश्वरं
लोकोत्तरज्ञानं जातस्य, अक्रमसमाक्रान्तसमस्तद्रव्यक्षेत्रकालभावतया न किंचनापि परोक्षमेव
स्यात
।।२२।।
प्रत्यक्षं भवतीत्यन्वयरूपेण पूर्वसूत्रे भणितमिदानीं तु परोक्षं किमपि नास्तीति तमेवार्थं व्यतिरेकेण
दृढयति
णत्थि परोक्खं किंचि वि अस्य भगवतः परोक्षं किमपि नास्ति किंविशिष्टस्य समंत
सव्वक्खगुणसमिद्धस्स समन्ततः सर्वात्मप्रदेशैः सामस्त्येन वा स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दपरिच्छित्तिरूप-
सर्वेन्द्रियगुणसमृद्धस्य तर्हि किमक्षसहितस्य नैवम् अक्खातीदस्स अक्षातीतस्येन्द्रियव्यापाररहितस्य,
अथवा द्वितीयव्याख्यानम्अक्ष्णोति ज्ञानेन व्याप्नोतीत्यक्ष आत्मा तद्गुणसमृद्धस्य सदा सर्वदा
सर्वकालम् पुनरपि किंरूपस्य सयमेव हि णाणजादस्स स्वयमेव हि स्फु टं केवलज्ञानरूपेण जातस्य
परिणतस्येति तद्यथाअतीन्द्रियस्वभावपरमात्मनो विपरीतानि क्रमप्रवृत्तिहेतुभूतानीन्द्रियाण्यतिक्रान्तस्य
जगत्त्रयकालत्रयवर्तिसमस्तपदार्थयुगपत्प्रत्यक्षप्रतीतिसमर्थमविनश्वरमखण्डैकप्रतिभासमयं केवलज्ञानं
परिणतस्यास्य भगवतः परोक्षं किमपि नास्तीति भावार्थः
।।२२।। एवं केवलिनां समस्तं प्रत्यक्षं
भवतीति कथनरूपेण प्रथमस्थले गाथाद्वयं गतम् अथात्मा ज्ञानप्रमाणो भवतीति ज्ञानं च
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापन
३९
टीका :समस्त आवरणके क्षयके क्षण ही जो (भगवान) सांसारिक ज्ञानको उत्पन्न
करनेके बलको कार्यरूप देनेमें हेतुभूत ऐसी अपने अपने निश्चित् विषयोंको ग्रहण करनेवाली
इन्द्रियोंसे अतीत हुए हैं, जो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्दके ज्ञानरूप सर्व इन्द्रिय
गुणोंके
द्वारा सर्व ओरसे समरसरूपसे समृद्ध हैं (अर्थात् जो भगवान स्पर्श, रस, गंध, वर्ण तथा शब्दको
सर्व आत्मप्रदेशोंसे समानरूपसे जानते हैं) और जो स्वयमेव समस्तरूपसे स्वपरका प्रकाशन
करनेमें समर्थ अविनाशी लोकोत्तर ज्ञानरूप हुए हैं, ऐसे इन (केवली) भगवानको समस्त द्रव्य-
क्षेत्र -काल -भावका अक्रमिक ग्रहण होनेसे कुछ भी परोक्ष नहीं है
भावार्थ :इन्द्रियका गुण तो स्पर्शादिक एक -एक गुणको ही जानना है जैसे
चक्षुइन्द्रियका गुण रूपको ही जानना है अर्थात् रूपको ही जाननेमें निमित्त होना है और
इन्द्रियज्ञान क्रमिक है केवलीभगवान इन्द्रियोंके निमित्तके बिना समस्त आत्मप्रदेशोंसे स्पर्शादि
सर्व विषयोंको जानते हैं, और जो समस्तरूपसे स्व -पर प्रकाशक है ऐसे लोकोत्तर ज्ञानरूप
(
लौकिकज्ञानसे भिन्न केवलज्ञानरूप) स्वयमेव परिणमित हुआ करते हैं; इसलिये समस्त
द्रव्य -क्षेत्र -काल और भावको अवग्रहादि क्रम रहित जानते हैं इसलिये केवली भगवानके कुछ
भी परोक्ष नहीं है
।।२२।।