रनंकु शा स्यात् । किंच – स्वतोऽव्यतिरिक्तसमस्तपरिच्छेद्याकारपरिणतं ज्ञानं स्वयं परिणम-
ज्ञातृज्ञानविभागक्लेशकल्पनया ।।३५।।
भवतीति । अथ मतम् --यथा भिन्नदात्रेण लावको भवति देवदत्तस्तथा भिन्नज्ञानेन ज्ञायको भवतु को दोष इति । नैवम् । छेदनक्रियाविषये दात्रं बहिरङ्गोपकरणं तद्भिन्नं भवतु, अभ्यन्तरोपकरणं तु देवदत्तस्य छेदनक्रियाविषये शक्तिविशेषस्तच्चाभिन्नमेव भवति; तथार्थपरिच्छित्तिविषये ज्ञानमेवा- भ्यन्तरोपकरणं तथाभिन्नमेव भवति, उपाध्यायप्रकाशादिबहिरङ्गोपकरणं तद्भिन्नमपि भवतु दोषो नास्ति । यदि च भिन्नज्ञानेन ज्ञानी भवति तर्हि परकीयज्ञानेन सर्वेऽपि कुम्भस्तम्भादिजडपदार्था ज्ञानिनो (पृथग्वर्ती) ज्ञानसे आत्मा जाननेवाला (-ज्ञायक) है । यदि ऐसा हो तो दोनोंके अचेतनता आ जायेगी और अचेतनोंका संयोग होने पर भी ज्ञप्ति उत्पन्न नहीं होगी । आत्मा और ज्ञानके पृथग्वर्ती होने पर भी यदि आत्माके ज्ञप्तिका होना माना जाये तो परज्ञानके द्वारा परको ज्ञप्ति हो जायेगी और इसप्रकार राख इत्यादिके भी ज्ञप्तिका उद्भव निरंकुश हो जायेगा । (‘आत्मा और ज्ञान पृथक् हैं किन्तु ज्ञान आत्माके साथ युक्त हो जाता है इसलिये आत्मा जाननेका कार्य करता है’ यदि ऐसा माना जाये तो जैसे ज्ञान आत्माके साथ युक्त होता है, उसीप्रकार राख, घड़ा, स्तंभ इत्यादि समस्त पदार्थोंके साथ युक्त हो जाये और उससे वे सब पदार्थ भी जाननेका कार्य करने लगें; किन्तु ऐसा तो नहीं होता, इसलिये आत्मा और ज्ञान पृथक् नहीं हैं ) और, अपनेसे अभिन्न ऐसे समस्त ज्ञेयाकाररूप परिणमित जो ज्ञान है उसरूप स्वयं परिणमित होनेवालेको, कार्यभूत समस्त ज्ञेयाकारोंके कारणभूत समस्त पदार्थ ज्ञानवर्ति ही कथंचित् हैं । (इसलिये) ज्ञाता और ज्ञानके विभागकी क्लिष्ट कल्पनासे क्या प्रयोजन है ? ।।३५।।