अथात्मज्ञानयोः कर्तृकरणताकृतं भेदमपनुदति —
जो जाणदि सो णाणं ण हवदि णाणेण जाणगो आदा ।
णाणं परिणमदि सयं अट्ठा णाणट्ठिया सव्वे ।।३५।।
यो जानाति स ज्ञानं न भवति ज्ञानेन ज्ञायक आत्मा ।
ज्ञानं परिणमते स्वयमर्था ज्ञानस्थिताः सर्वे ।।३५।।
अपृथग्भूतकर्तृकरणत्वशक्तिपारमैश्वर्ययोगित्वादात्मनो य एव स्वयमेव जानाति स
एव ज्ञानमन्तर्लीनसाधकतमोष्णत्वशक्तेः स्वतंत्रस्य जातवेदसो दहनक्रियाप्रसिद्धेरुष्ण-
ज्ञानी न भवतीत्युपदिशति — जो जाणदि सो णाणं यः कर्ता जानाति स ज्ञानं भवतीति । तथा हि —
यथा संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽपि सति पश्चादभेदनयेन दहनक्रियासमर्थोष्णगुणेन परिणतो-
ऽग्निरप्युष्णो भण्यते, तथार्थक्रियापरिच्छित्तिसमर्थज्ञानगुणेन परिणत आत्मापि ज्ञानं भण्यते । तथा
चोक्तम् – ‘जानातीति ज्ञानमात्मा’ । ण हवदि णाणेण जाणगो आदा सर्वथैव भिन्नज्ञानेनात्मा ज्ञायको न
१. पारमैश्वर्य = परम सामर्थ्य; परमेश्वरता । २.साधकतम = उत्कृष्ट साधन वह करण ।
३. जो स्वतंत्र रूपसे करे वह कर्ता ।
४. अग्नि जलानेकी क्रिया करती है, इसलिये उसे उष्णता कहा जाता है ।
जे जाणतो ते ज्ञान, नहि जीव ज्ञानथी ज्ञायक बने;
पोते प्रणमतो ज्ञानरूप, ने ज्ञानस्थित सौ अर्थ छे. ३५.
कहानजैनशास्त्रमाला ]
ज्ञानतत्त्व -प्रज्ञापन
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अब, आत्मा और ज्ञानका कर्त्तृत्व -करणत्वकृत भेद दूर करते हैं (अर्थात् परमार्थतः
अभेद आत्मामें, ‘आत्मा ज्ञातृक्रियाका कर्ता है और ज्ञान करण है’ ऐसा व्यवहारसे भेद किया
जाता है, तथापि आत्मा और ज्ञान भिन्न नहीं हैं इसलिये अभेदनयसे ‘आत्मा ही ज्ञान है’ ऐसा
समझाते हैं) : —
अन्वयार्थ : — [यः जानाति ] जो जानता है [सः ज्ञानं ] सो ज्ञान है (अर्थात् जो
ज्ञायक है वही ज्ञान है), [ज्ञानेन ] ज्ञानके द्वारा [आत्मा ] आत्मा [ज्ञायकः भवति ] ज्ञायक
है [न ] ऐसा नहीं है । [स्वयं ] स्वयं ही [ज्ञानं परिणमते ] ज्ञानरूप परिणमित होता है [सर्वे
अर्थाः ] और सर्व पदार्थ [ज्ञानस्थिताः ] ज्ञानस्थित हैं ।।३५।।
टीका : — आत्मा अपृथग्भूत कर्तृत्व और करणत्वकी शक्तिरूप १पारमैश्वर्यवान होनेसे
जो स्वयमेव जानता है (अर्थात् जो ज्ञायक है) वही ज्ञान है; जैसे – जिसमें २साधकतम
उष्णत्वशक्ति अन्तर्लीन है, ऐसी ३स्वतंत्र अग्निके ४दहनक्रियाकी प्रसिद्धि होनेसे उष्णता कही जाती
है । परन्तु ऐसा नहीं है कि जैसे पृथग्वर्ती हँसियेसे देवदत्त काटनेवाला कहलाता है उसीप्रकार