तत्र विप्रतिषेधस्यावतारः । यथा हि प्रकाशकस्य प्रदीपस्य परं प्रकाश्यतामापन्नं प्रकाशयतः
स्वस्मिन् प्रकाश्ये न प्रकाशकान्तरं मृग्यं स्वयमेव प्रकाशनक्रियायाः समुपलम्भात्; तथा
परिच्छेदकस्यात्मनः परं परिच्छेद्यतामापन्नं परिच्छिन्दतः स्वस्मिन् परिच्छेद्ये न परिच्छेदकान्तरं
मृग्यं स्वयमेव परिच्छेदनक्रियायाः समुपलम्भात् ।
ननु कुत आत्मनो द्रव्यज्ञानरूपत्वं द्रव्याणां च आत्मज्ञेयरूपत्वं च ? परिणाम-
संबन्धत्वात् । यतः खलु आत्मा द्रव्याणि च परिणामैः सह संबध्यन्ते, तत आत्मनो
द्रव्यालम्बनज्ञानेन द्रव्याणां तु ज्ञानमालम्ब्य ज्ञेयाकारेण परिणतिरबाधिता प्रतपति ।।३६।।
तथैवोत्पादव्ययध्रौव्यरूपेण च त्रिधा समाख्यातम् । दव्वं ति पुणो आदा परं च तच्च ज्ञेयभूतं द्रव्यमात्मा
भवति परं च । कस्मात् । यतो ज्ञानं स्वं जानाति परं चेति प्रदीपवत् । तच्च स्वपरद्रव्यं कथंभूतम् ।
परिणामसंबद्धं कथंचित्परिणामीत्यर्थः । नैयायिकमतानुसारी कश्चिदाह ---ज्ञानं ज्ञानान्तरवेद्यं प्रमेयत्वात्
१.कोई पर्याय स्वयं अपनेमेंसे उत्पन्न नहीं हो सकती, किन्तु वह द्रव्यके आधारसे – द्रव्यमेंसे उत्पन्न होती है;
क्योंकि यदि ऐसा न हो तो द्रव्यरूप आधारके बिना पर्यायें उत्पन्न होने लगें और जलके बिना तरंगें होने लगें; किन्तु
यह सब प्रत्यक्ष विरुद्ध है; इसलिये पर्यायके उत्पन्न होनेके लिये द्रव्यरूप आधार आवश्यक है । इसीप्रकार ज्ञानपर्याय
भी स्वयं अपनेमेंसे उत्पन्न नहीं हो सकती; वह आत्मद्रव्यमेंसे उत्पन्न हो सकती है — जो कि ठीक ही है । परन्तु ज्ञान
पर्याय स्वयं अपनेसे ही ज्ञात नहीं हो सकती यह बात यथार्थ नहीं है । आत्म द्रव्यमेंसे उत्पन्न होनेवाली ज्ञानपर्याय स्वयं
अपनेसे ही ज्ञात होती है । जैसे दीपकरूपी आधारमेंसे उत्पन्न होने वाली प्रकाशपर्याय स्व -परको प्रकाशित करती है,
उसी प्रकार आत्मारूपी आधारमेंसे उत्पन्न होनेवाली ज्ञानपर्याय स्वपरको जानती है । और यह अनुभव सिद्ध भी है कि
ज्ञान स्वयं अपनेको जानता है ।
२.ज्ञानके ज्ञेयभूत द्रव्य आलम्बन अर्थात् निमित्त हैं । यदि ज्ञान ज्ञेयको न जाने तो ज्ञानका ज्ञानत्व क्या ?
३.ज्ञेयका ज्ञान आलम्बन अर्थात् निमित्त है । यदि ज्ञेय ज्ञानमें ज्ञात न हो तो ज्ञेयका ज्ञेयत्व क्या ?
६२प्रवचनसार[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
ज्ञप्तिरूप क्रियामें विरोध नहीं आता, क्योंकि वह, प्रकाशन क्रियाकी भाँति, उत्पत्तिक्रियासे
विरुद्ध प्रकारसे (भिन्न प्रकारसे) होती है । जैसे जो प्रकाश्यभूत परको प्रकाशित करता है ऐसे
प्रकाशक दीपकको स्व प्रकाश्यको प्रकाशित करनेके सम्बन्धमें अन्य प्रकाशककी आवश्यकता
नहीं होती, क्योंकि उसके स्वयमेव प्रकाशन क्रियाकी प्राप्ति है; उसीप्रकार जो ज्ञेयभूत परको
जानता है ऐसे ज्ञायक आत्माको स्व ज्ञेयके जाननेके सम्बन्धमें अन्य ज्ञायककी आवश्यकता
नहीं होती, क्योंकि स्वयमेव ज्ञान -क्रिया की प्राप्ति१ है । (इससे सिद्ध हुआ कि ज्ञान स्वको
भी जान सकता है ।)
(प्रश्न) : — आत्माको द्रव्योंकी ज्ञानरूपता और द्रव्योंको आत्माकी ज्ञेयरूपता कैसे
( – किसप्रकार घटित) है ?
(उत्तर) : — वे परिणामवाले होनेसे । आत्मा और द्रव्य परिणामयुक्त हैं, इसलिये
आत्माके, द्रव्य जिसका २आलम्बन हैं ऐसे ज्ञानरूपसे (परिणति), और द्रव्योंके, ज्ञानका
३अवलम्बन लेकर ज्ञेयाकाररूपसे परिणति अबाधितरूपसे तपती है — प्रतापवंत वर्तती है ।