सर्वासामेव हि द्रव्यजातीनां त्रिसमयावच्छिन्नात्मलाभभूमिकत्वेन क्रमप्रतपत्स्वरूपसंपदः घटादिवत् । परिहारमाह --प्रदीपेन व्यभिचारः, प्रदीपस्तावत्प्रमेयः परिच्छेद्यो ज्ञेयो भवति न च प्रदीपान्तरेण प्रकाश्यते, तथा ज्ञानमपि स्वयमेवात्मानं प्रकाशयति न च ज्ञानान्तरेण प्रकाश्यते । यदि पुनर्ज्ञानान्तरेण प्रकाश्यते तर्हि गगनावलम्बिनी महती दुर्निवारानवस्था प्राप्नोतीति सूत्रार्थः ।।३६।। एवं निश्चयश्रुतकेवलिव्यवहारश्रुतकेवलिकथनमुख्यत्वेन भिन्नज्ञाननिराकरणेन ज्ञानज्ञेयस्वरूपकथनेन च चतुर्थस्थले गाथाचतुष्टयं गतम् । अथातीतानागतपर्याया वर्तमानज्ञाने सांप्रता इव दृश्यन्त इति निरूपयति — सव्वे सदसब्भूदा हि पज्जया सर्वे सद्भूता असद्भूता अपि पर्यायाः ये हि स्फु टं वट्टंते ते तेतेतेतेते (आत्मा और द्रव्य समय -समय पर परिणमन किया करते हैं, वे कूटस्थ नहीं हैं; इसलिये आत्मा ज्ञान स्वभावसे और द्रव्य ज्ञेय स्वभावसे परिणमन करता है, इसप्रकार ज्ञान स्वभावमें परिणमित आत्मा ज्ञानके आलम्बनभूत द्रव्योंको जानता है और ज्ञेय -स्वभावसे परिणमित द्रव्य ज्ञेयके आलम्बनभूत ज्ञानमें — आत्मामें — ज्ञात होते हैं ।) ।।३६।।
अब, ऐसा उद्योत करते हैं कि द्रव्योंकी अतीत और अनागत पर्यायें भी तात्कालिक पर्यायोंकी भाँति पृथक्रूपसे ज्ञानमें वर्तती हैं : —
अन्वयार्थ : — [तासाम् द्रव्यजातीनाम् ] उन (जीवादि) द्रव्यजातियोंकी [ते सर्वे ] समस्त [सदसद्भूताः हि ] विद्यमान और अविद्यमान [पर्यायाः ] पर्यायें [तात्कालिकाः इव ] तात्कालिक (वर्तमान) पर्यायोंकी भाँति, [विशेषतः ] विशिष्टतापूर्वक (अपने -अपने भिन्न- भिन्न स्वरूपमें ) [ज्ञाने वर्तन्ते ] ज्ञानमें वर्तती हैं ।।३७।।
टीका : — (जीवादिक) समस्त द्रव्यजातियोंकी पर्यायोंकी उत्पत्तिकी मर्यादा तीनोंकालकी मर्यादा जितनी होनेसे (वे तीनोंकालमें उत्पन्न हुआ करती हैं इसलिये), उनकी (उन समस्त द्रव्य -जातियोंकी), क्रमपूर्वक तपती हुई स्वरूप -सम्पदा वाली (-एकके बाद