Page -11 of 186
PDF/HTML Page 1 of 198
single page version
Page -10 of 186
PDF/HTML Page 2 of 198
single page version
This shastra has been kindly donated by Madhubhai Shah, London, UK who has paid for it to be "electronised" and made available on the internet in memory of Mrs Hiruben Rajpar Shah and Mrs Savitaben Jivraj Shah.
Version history
see Corrigenda.
Page -9 of 186
PDF/HTML Page 3 of 198
single page version
Mistake highlighted in
red
highlighted in red
Gatha 75, Anvaiyarth,
line 4 3 (Verfied
against Gujarati
scanned version &
Hindi scanned version)
Gatha 128, Anvaiyarth,
line 2 3 (Verfied
against Gujarati
scanned version)
चित्त सदा विरक्त ज रहे छे
तेथी प्रत्येक गृहस्थे
चित्त सदा विरक्त ज रहे छे
तेथी प्रत्येक गृहस्थे
Gatha 152, Bhavarth,
line 3 (Verfied against
Tika in this gujarati
version & Hindi
scanned version of this
shastra)
Gatha 198, Anvayarth,
line 2 (Verfied against
mool gatha in this
Gujarati version &
Anvayarth in Hindi
scanned version of this
shastra)
Gatha 199, tika, line 2
(Same text verfied
against Hindi scanned
version of this shastra)
स्वाध्याय
स्वाध्याय
Gatha 201, Anvayarth,
line 2 (Verfied against
scanned Gujarati
version)
Page -8 of 186
PDF/HTML Page 4 of 198
single page version
वगेरेना डंश, निन्दा,
वगेरेना डंश, निन्दा,
Gatha 206-208, Tika,
line 5 (Verfied against
anvayarth in this
Gujarati version & Tika
in Hindi scanned
version of this shastra)
आदरसत्कार, शयन
आदरसत्कार, शयन,
Gatha 206-208, Tika,
line 7 (Verfied against
anvayarth in this
Gujarati version & Tika
in Hindi scanned
version of this shastra)
नरकगति अने तिर्यंचगतिमां
तें घणी तरस
नरकगति अने तिर्यंचगतिमां
तें घणी तरस
Gatha 206-208, line 4
(Verfied Gujarati
scanned version &
Hindi scanned version
of this shastra)
No.
No.
Page -7 of 186
PDF/HTML Page 5 of 198
single page version
वीर संवत २प०४ विक्रम संवत २०३४
Page -5 of 186
PDF/HTML Page 7 of 198
single page version
अति प्रशस्त अध्यात्मविद्याकुशळ तथा जिनागममर्मज्ञ श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे ‘पुरुषार्थसिद्धयुपाय’ अपर नाम ‘जिनप्रवचनरहस्य–कोष’ नी रचना करी छे. तेना पर आचार्यकल्प पं. श्री टोडरमलजीकृत भाषा–टीका मूळ ढूंढारीमां छे. तेनो गुजराती भाषामां आ अनुवाद बीजी आवृत्तिमां प्रसिद्ध करीने मुमुक्षुओने आपतां अत्यानंद अनुभवाय छे.
पंडितप्रवर श्री टोडरमलजीए रचेल देशभाषामय टीका अपूर्ण रही गयेल छे. त्यारबाद पं.श्री दौलतरामजीए वि. सं. १८२७मां ते पूर्ण करेल छे.
आ ग्रंथ वीर सं. २४प६मां श्री दुलीचंदजी परवार, मालिक जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता तरफथी प्रसिद्ध करवामां आवेल, पण तेमां अनेक अशुद्धिओ रही जवा पामेल; तेथी अत्यंत सावधानी अने श्रमपूर्वक तेने शुद्ध करीने आ गुजराती भाषांतर तैयार करवामां आवेल छे. आ ग्रंथ उपरोक्त प्रकाशकनी संमति लईने छपाव्यो छे अने संमति आपवा बदल तेमनो आभार मानवामां आवे छे.
सर्वज्ञ वीतराग कथित वस्तुस्वभावदर्शक जैनधर्मनुं माहात्म्य, अहिंसादि व्रतोनुं स्वरूप, गृहस्थोचित नीतिमय व्यवहारधर्म अर्थात् सम्यग्दर्शनपूर्वक यथापदवी चारित्रमय जैनत्व शुं छे तेनुं अत्यंत सुगम शैलीथी वर्णन आ ग्रंथमां करवामां आव्युं छे. आत्महित माटे पुरुषार्थनो धारावाही स्त्रोत जेओ निरंतर वहावी रह्या छे एवा आत्मज्ञ संत पूज्य श्री कानजीस्वामी पासेथी प्रेरणा पामीने सद्धर्मप्रेमी ब्र. भाईश्री व्रजलाल गिरधरलाल शाहे आ अनुवाद तैयार करी आप्यो छे.
ब्र. श्री व्रजलालभाई बी. ए. (ओनर्स) एस. टी. सी. होवा उपरांत राष्ट्रभाषारत्न छे. तेओ अति नम्र, वैराग्यशील, बालब्रह्मचारी, उत्तम धार्मिकवृत्तिवाळा, निःस्पृही सज्जन छे. वढवाण शहेरनी हाईस्कूलमां प्रतिष्ठाप्राप्त शिक्षक छे.
Page -4 of 186
PDF/HTML Page 8 of 198
single page version
तेओ दर वर्षे बंने वेकेशनोमां सोनगढ आवीने पूज्य गुरुदेवश्रीनां कल्याणपथप्रदर्शक प्रवचनोनो तथा अध्यात्मचर्चानो अलभ्य लाभ ल्ये छे. ग्रीष्मावकाशमां सोनगढमां चालता धार्मिक शिक्षणवर्गमां विधार्थीओने तेमनी सचोट शैलीथी शिक्षण पण आपे छे. तेमणे आ शास्त्रनो गुजराती अनुवाद जिनवाणी प्रत्येनी भक्तिवश, अत्यंत उल्लासपूर्वक, तद्न निःस्पृहभावे करी आप्यो छे. ते माटे आ संस्था तेमनी अत्यंत ऋणी छे अने धन्यवाद आपवा साथे तेमनो आभार माने छे.
सोनगढमां अजित मुद्रणालयना मालिक श्री मगनलाल जैने पूरेपूरी सावधानी राखीने सुंदर ढंगथी आ ग्रंथ छापी आप्यो ते बदल तेमनो आभार मानीए छीए.
परमश्रुतप्रभावक–मंडळ द्वारा संचालित रायचंद्र जैन शास्त्रमाळा, मुंबई तरफथी प्रकाशित ‘‘पुरुषार्थसिद्धयुपाय’’ ग्रंथमां छपायेल मूळ श्लोको तथा अन्वयार्थ संशोधनकार्यमां उपकारभूत थया छे, तथा तेमांथी समाधिमरण अर्थात् सल्लेखना धर्म संबंधी लेख उद्धृत करेल छे, ते बदल उपरोक्त मंडळनो आभार मानवामां आवे छे.
जिनेन्द्र कथित निश्चय–व्यवहारनी संधिवाळुं सुलभ वर्णन आ ग्रंथमांथी वांची– विचारीने, नयपक्षना रागथी मध्यस्थ थई जिज्ञासुओ स्वसन्मुखतारूप अपूर्व सम्यग्दर्शन– ज्ञान–चारित्रनी प्राप्ति माटे निरंतर पुरुषार्थवंत बनो ए भावना. भावनगर ः निवेदकः पोस वद प ट्रस्टीगण सं. २०३४ श्री वीतराग सत्साहित्य प्रसारक ट्रस्ट भावनगर
Page -3 of 186
PDF/HTML Page 9 of 198
single page version
आ ग्रंथनुं नाम ‘पुरुषार्थसिद्धयुपाय’ अथवा ‘जिनप्रवचनरहस्य–कोष’ छे. पुरुष अर्थात् आत्माना प्रयोजननी सिद्धिनो उपाय अथवा जैनसिद्धांतनां रहस्योनो भंडार–एवो तेनो अर्थ थाय छे. समस्त दुःखरूपी संसारनुं मूळ मिथ्याश्रद्धा छे अने सत्यसुखरूपी धर्मनुं मूळ सम्यग्दर्शन छे. ते सम्यग्दर्शन–ज्ञानपूर्वक निजात्मस्वरूपमां लीन थवुं ते पुरुषार्थनी सिद्धिनो उपाय छे. अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्रनी एकतारूप मोक्षमार्ग ज पुरुषार्थसिद्धि–उपाय छे.
आ ग्रन्थना रचयिता श्री अमृतचंद्राचार्यदेव छे. आध्यात्मिक विद्वानोमां भगवान श्री कुंदकुंदाचार्य पछी जो कोईनुं नाम लेवामां आवे तो ते श्री अमृतचंद्राचार्य छे. आवा महान अने उत्तम प्रज्ञावंत आचार्यदेवना विषयमां तेमनी साहित्य–रचना सिवाय अन्य कांई पण सामग्री उपलब्ध नथी. तेओ आ भरतक्षेत्रमां स्वरूपानंदनी मस्तीमां झुलता, प्रचुर संवेदनस्वरूप स्वसंवेदनथी आत्मवैभव पोतामां प्रगट करनार अनेक उत्तम गुणोना धारक महान संत हता. वळी तेओ भगवान श्री कुंदकुंदाचार्य विरचित परमागम श्री समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकायसंग्रह शास्त्रना अद्वितीय टीकाकार तथा ‘कलिकाल गणधर’ नी उपमाने प्राप्त हता.
उपरोक्त शास्त्रोनी संस्कृत टीका उपरांत ‘तत्त्वार्थसार’ अने ‘पुरुषार्थसिद्धयुपाय’ तेमनी मौलिक रचना छे. तेना अभ्यासीओ तेमनी सर्वोत्तम प्रज्ञानी मुक्त कंठे प्रशंसा करे छे. आत्मज्ञ संत पूज्य श्री कानजीस्वामी तो अनेक वखत फरमावे छे के ‘गणधरदेव तुल्य तेमनी संस्कृत टीका न होत तो भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यनुं हार्द समजी शकात नहि. तेमणे सर्वज्ञ परमात्मानी वाणीना अपूर्व, अचिंत्य रहस्य खोल्यां छे.’ एवा महान् योगीश्वरने अत्यंत भक्तिभावे नमस्कार हो!
पुरुषार्थसिद्धयुपाय उपर त्रण टीकाओ उपलब्ध छे. प्रथम संस्कृत टीका छे तेना कर्ता अज्ञात छे, बीजी टीका पंडितप्रवर श्री टोडरमलजी तथा पं. श्री दौलतरामजी कृत ढूंढारी भाषामां छे त्रीजी टीका पं. श्री भूधर मिश्र रचित व्रजभाषामां छे.
बीजी टीका प्रसिद्ध भाषाटीकाकार पं. प्रवर श्री टोडरमलजीनी अंतिम कृति होय एम लागे छे कारण के ते अपूर्ण रही गई छे. जो तेओ जीवित होत तो
Page -2 of 186
PDF/HTML Page 10 of 198
single page version
अवश्य तेने पूर्ण करत. त्यारबाद आ टीका जयपुरना महाराजा पृथ्वीसिंहजीना मुख्य दीवान श्री रतनचंदजीनी प्रेरणाथी पं. श्री दौलतरामजीए सं. १८२७मां पूर्ण करी छे. ते टीकानो गुजराती अनुवाद आ ग्रंथमां प्रसिद्ध करवामां आव्यो छे ए रीते बंने पंडितोनो उपकार छे.
जैनधर्म ज अहिंसाप्रधान छे. निश्चय–अहिंसा तो वीतरागी श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र छे तेनुं, तथा व्यवहार–अहिंसानुं वास्तविक स्वरूप श्री जिनेन्द्रकथित शास्त्रोमां प्ररूपवामां आव्युं छे.
हिंस्य, हिंसक, हिंसा अने हिंसानुं फळ– ए चार बाबतोना ज्ञान विना तथा भूतार्थ निजज्ञायकस्वभावनो आश्रय कर्या विना हिंसानो यथार्थ त्याग थई शकतो नथी. श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे अहिंसानुं वर्णन जे अपूर्व शैलीथी आ ग्रंथमां कर्युं छे तेवुं अन्य मतना कोई ग्रंथमां छे ज नहि. तेमणे मिथ्याश्रद्धा उपरांत हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म अने परिग्रहादि पापोने खूबीनी साथे केवळ हिंसारूप ज साबित करेल छे. वर्तमानमां तो पशुवध, मांसभक्षण अने अभक्ष्यादिना प्रचार द्वारा हिंसानी ज पुष्टि थई रही छे, तेना त्याग वगर विश्वमां शांतिनी प्राप्ति थवी असंभवित छे. तेथी सर्वज्ञ वीतराग कथित अहिंसाना रहस्यने समजी जगतना सर्व जीवो शांतिनो अनुभव करो ए ज भावना. सोनगढ –ब्र गुलाबचंद जैन ता. २–९–६६
Page -1 of 186
PDF/HTML Page 11 of 198
single page version
Page 0 of 186
PDF/HTML Page 12 of 198
single page version
तेमां कांई करायुं नथी
Page 1 of 186
PDF/HTML Page 13 of 198
single page version
भावार्थः– जे परम पुरुष निज स्वरूप साधीने शुद्धगुण समूहरूपे थया ते सुखकन्द आनंदस्वरूप श्री अमृतचंद्राचार्यने वंदुं छुं. १. वाणीनो योग न होय तो वर्णन थाय नहीं, जिनवाणीना वर्णन विना ज्ञानचक्षु न होय, भावभासनरूप ज्ञानचक्षु विना वर्णनने निमित्त कही शकातुं नथी, निरक्षरी जिनवाणीने नमस्कार हो. २. श्रीगुरु केवा छे? के हृदयमां स्व–पर भेदविज्ञान भावे छे, तारक छे, पापनुं निवारण करनारा छे; वचनबली वादीने जीतनारा जे सुरगुरु तेओ भेदविज्ञान गाय छे–भक्ति करे छे.
Page 2 of 186
PDF/HTML Page 14 of 198
single page version
हुं जिनमुद्राधारक जैन नग्न दिगम्बर मुनिने नमस्कार करुं छुं के जेओ ज्ञान–ध्यानरूपी धन–स्वरूपमां लीन छे, काम, मान (घमंड, कर्तृत्व, ममत्व)थी रहित, मेघ समान धर्मोपदेशनी वृष्टि करनारा, पापरहित अने क्षीणकाय छे, अर्थात् कषाय अने काया क्षीण छे तथा ज्ञानस्वरूपमां बेहद पुष्ट छे. ४.
थया छे स्वच्छंद न पिछाने निज शुद्धता;
कोई व्यवहार दान तप शील भावने ज
आतमानुं हित मानी छांडे नहि मूढता;
कोई व्यवहारनय–निश्चयना मारगने
भिन्नभिन्न जाणीने करे छे निज उद्धता;
जाणे ज्यारे निश्चयना भेद व्यवहार सहु,
कारणने उपचार माने त्यारे बुद्धता. प
हवे ग्रन्थकर्ता श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव मंगलाचरणनिमित्ते पोताना ईष्टदेवनुं स्मरण करीने आ जीवनुं प्रयोजन सिद्ध थवाना कारणभूत निश्चय अने व्यवहार मोक्षमार्गनी एकतारूप उपदेश जेमां छे एवा ग्रन्थनो आरंभ करे छे.
सूत्रावतारः–
अन्वयार्थः– [यत्र] जेमां [दर्पणतल इव] दर्पणनी सपाटीनी पेठे [सकला] बधा [पदार्थमालिका] पदार्थोनो समूह [समस्तैरनन्तपर्यायैः समं] अतीत, अनागत अने वर्तमानकाळना समस्त अनंत पर्यायो सहित [प्रतिफलति] प्रतिबिंबित थाय छे, [तत्] ते [परं ज्योतिः] सर्वोत्कृष्ट शुद्धचेतनास्वरूप प्रकाश [जयति] जयवंत वर्तो.
Page 3 of 186
PDF/HTML Page 15 of 198
single page version
टीकाः– ‘तत् परं ज्योतिः जयति’ –ते परम ज्योति–सर्वोत्कृष्ट शुद्ध चेतनानो प्रकाश जयवंत वर्ते छे. ते केवो छे? ‘यत्र सकला पदार्थमालिका प्रतिफलति– जे शुद्ध चेतना प्रकाशमां बधा ज जीवादि पदार्थोनो समूह प्रतिबिंबित थाय छे. केवी रीते? ‘समस्तैः अनन्त पर्यायैः समं’–पोताना समस्त अनंत पर्यायो सहित प्रतिबिंबित थाय छे.
भावार्थः– शुद्ध चेतना प्रकाशनो कोई एवो ज महिमा छे के तेमां जेटला पदार्थो छे ते बधा ज पोताना आकार सहित प्रतिमा समान थाय छे. कया द्रष्टांते? ‘दर्पणतल इव– अरीसाना उपरना भागमां घटपटादि प्रतिबिंबित थाय छे तेम. अहीं अरीसानुं द्रष्टांत आप्युं छे तेनुं प्रयोजन ए जाणवुं के अरीसाने एवी ईच्छा नथी के हुं आ पदार्थोने प्रतिबिंबित करुं. जेम लोढानी सोय लोहचुंबकनी पासे पोतानी मेळे जाय छे तेम अरीसो पोतानुं स्वरूप छोडी तेमने प्रतिबिंबित करवा माटे पदार्थनी समीपे जतो नथी. वळी ते पदार्थो पण पोतानुं स्वरूप छोडीने ते अरीसामां पेसता नथी. जेम कोई पुरुष (बीजा) कोई पुरुषने कहे के अमारुं आ काम करो ज, तेम ते पदार्थो पोताने प्रतिबिंबित करवानी अरीसाने प्रार्थना पण करता नथी. सहज ज एवो संबंध छे के जेवो ते पदार्थोनो आकार छे तेवा ज आकाररूपे अरीसामां प्रतिबिंबित थाय छे. प्रतिबिंबि पडतां अरीसो एम मानतो नथी के आ पदार्थो मारा माटे भला छे, उपकारी छे, राग करवा योग्य छे, बधा पदार्थो प्रत्ये समान भाव प्रवर्ते छे. जेवी रीते अरीसामां केटलाक घटपटादि पदार्थो प्रतिबिंबित थाय छे तेवी ज रीते ज्ञानरूपी दर्पणमां समस्त जीवादि प्रतिबिंबित थाय छे एवुं कोई द्रव्य के पर्याय नथी जे ज्ञानमां न आव्युं होय. आवा शुद्ध चैतन्यरूप प्रकाशनो सर्वोत्कृष्ट महिमा स्तुति करवा योग्य छे.
अहीं कोई प्रश्न करे छे के अहीं गुणनुं स्तवन कर्युं, कोई पदार्थनुं नाम न लीधुं तेनुं कारण शुं? पहेलां पदार्थनुं नाम लेवुं जोईए अने पछी गुणनुं वर्णन करवुं जोईए. तेनो उत्तरः– अहीं आचार्ये पोतानुं परीक्षाप्रधानपणुं प्रगट कर्युं छे. भक्त बे प्रकारना छे–एक आज्ञाप्रधान, बीजा परीक्षाप्रधान. जे जीवो परंपरा मार्गवडे गमे तेवा देव–गुरुनो उपदेश प्रमाण करीने विनयादि क्रियारूप प्रवर्ते तेने आज्ञाप्रधान कहीए अने जेओ पोताना सम्यग्ज्ञान वडे पहेलां स्तुति करवा योग्य गुणनो निश्चय करे अने पछी जेमनामां ते गुण होय तेमना प्रत्ये विनयादि क्रियारूप प्रवर्ते तेने परीक्षाप्रधान कहीए. केम के कोई पद, वेश अथवा
Page 4 of 186
PDF/HTML Page 16 of 198
single page version
स्थान पूज्य नथी, गुण पूज्य छे तेथी अहीं शुद्ध चेतना प्रकाशरूप गुण स्तुति करवा योग्य छे एम आचार्ये निश्चय कर्यो. जेमनामां एवो गुण होय ते सहज ज स्तृति करवा योग्य थयो. कारण के जे गुण छे ते द्रव्यना आश्रये छे, जुदो नथी एम विचारीने निश्चय करीए तो एवो गुण प्रगटरूप अरिहंत अने सिद्धमां होय छे. आ रीते पोताना ईष्टदेवनुं स्तवन कर्युं. १.
हवे ईष्ट आगमनुं स्तवन करे छे.
अन्वयार्थः– [निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम्] जन्मथी अंध पुरुषोना हाथीना विधाननो निषेध करनार [सकलनयविलसितानाम्] समस्त नयोथी प्रकाशित वस्तुस्वभावोना [विरोध मथनं] विरोधोने दूर करनार [परमागमस्य] उत्कृष्ट जैन सिद्धान्तना [जीवं] जीवभूत[अनेकान्तम्] अनेकान्तने–एक पक्षरहित स्याद्वादने हुं अमृतचंद्रसूरि [नमामि] नमस्कार करुं छुं.
टीकाः– ‘अहं अनेकान्तं नमामि’– हुं–ग्रंथकर्ता अनेकान्त–एकपक्ष रहित स्याद्वादने नमस्कार करुं छुं. अहीं कोई प्रश्न करे छे के जिनागमने नमस्कार करवा हता, अहीं स्याद्वादने नमस्कार कर्या तेनुं कारण शुं? तेनो उत्तर–जे स्याद्वादने अमे नमस्कार कर्या ते केवो छे? ‘परमागमस्य जीवं’– उत्कृष्ट जैन सिद्धांतना जीवभूत छे.
भावार्थः– जेम शरीर जीव सहित कार्यकारी छे, जीव विनानुं मृतक शरीर कांई कामनुं नथी तेम जैन सिद्धांत छे ते वचनात्मक छे, वचन क्रमवर्ती छे. ते जे कथन करे छे ते एक नयनी प्रधानताथी करे छे, परन्तु जैन सिद्धांत सर्वत्र स्याद्वादथी व्याप्त छे. ज्यां एक नयनी प्रधानता छे त्यां बीजो नय सापेक्ष छे तेथी जैन सिद्धांत आ जीवने कार्यकारी छे. अन्यमतना सिद्धांत एक पक्षथी दूषित छे, स्याद्वादरहित छे माटे कार्यकारी नथी. जे जैनशास्त्रना उपदेशने पण पोताना अज्ञानथी स्याद्वादरहित श्रद्धे छे तेने विपरीत फळ मळे छे. माटे स्याद्वाद परमागमना जीवभूत छे. तेने नमस्कार करुं छुं.
वळी केवो छे स्याद्वाद? ‘निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानं’ जन्मांध पुरुषोनुं हस्ति–विधान जेणे दूर कर्युं छे एवो छे. जेम घणा जन्मांध पुरुषो मळ्या. तेमणे _________________________________________________________________ ङ्क्त पाठान्तर बीज
Page 5 of 186
PDF/HTML Page 17 of 198
single page version
एक हाथीना अनेक अंग पोतानी स्पर्शन्द्रियथी जुदा जुदा जाण्या. आंखो विना आखा सर्वांग हाथीने न जाणवाथी हाथीनुं स्वरूप अनेक प्रकारे कहीने (एक अंगने ज सर्वांग गणीने) परस्पर वाद करवा लाग्या. त्यां आंखो वाळो पुरुष हाथीनो यथार्थ निर्णय करीने तेमनी भिन्न भिन्न कल्पनाने दूर करे छे, तेम अज्ञानी एक वस्तुना अनेक अंगोनो पोतानी बुद्धिथी जुदी जुदी अन्य अन्य रीतिथी निश्चय करे छे. सम्यग्ज्ञान विना सर्वांग (संपूर्ण) वस्तुने न जाणवाथी एकांतरूप वस्तु मानीने परस्पर वाद करे छे त्यां स्याद्वाद विद्याना बळ वडे सम्यग्ज्ञानी यथार्थपणे वस्तुनो निर्णय करी तेमनी भिन्न भिन्न कल्पना दूर करे छे. तेनुं उदाहरण–
सांख्यमती वस्तुने नित्य ज माने छे, बौद्धमती क्षणिक ज माने छे, स्याद्वादी कहे छे के जो वस्तु सर्वथा नित्य ज होय तो अनेक अवस्थानुं पलटवुं थाय छे ते केवी रीते बने छे? जो वस्तुने सर्वथा क्षणिक मानीए तो ‘जे वस्तु पहेलां देखी हती ते आ ज छे’ एवुं प्रत्यभिज्ञान केवी रीते थाय छे? माटे कथंचित् द्रव्यनी अपेक्षाए वस्तु नित्य छे अने पर्यायनी अपेक्षाए क्षणिक छे. आ रीते स्याद्वाद वडे सर्वांग वस्तुनो निर्णय करवामां आवे त्यारे एकांत श्रद्धानो निषेध थाय छे. वळी केवो छे स्याद्वाद? ‘सकलनयविलसितानां विरोधमथनं’ समस्त नयोथी प्रकाशित जे वस्तुनो स्वभाव तेना विरोधने दूर करे छे.
भावार्थः– नयविवक्षाथी वस्तुमां अनेक स्वभावो छे. वळी तेमां परस्पर विरोध छे. जेम के अस्ति अने नास्तिनुं प्रतिपक्षपणुं छे, परन्तु ज्यारे स्याद्वादथी स्थापन करीए त्यारे सर्व विरोध दूर थाय छे. केवी रीते? एक ज पदार्थ कथंचित् स्वचतुष्टयनी अपेक्षाए अस्तिरूप छे, कथंचित् परचतुष्टयनी अपेक्षाए नास्तिरूप छे. कथंचित् समुदायनी अपेक्षाए एकरूप छे, कथंचित् गुणपर्यायनी अपेक्षाए अनेकरूप छे. कथंचित् संज्ञा, संख्या, लक्षणनी अपेक्षाए गुण– पर्यायादि अनेक–भेदरूप छे, कथंचित् सत्नी अपेक्षाए अभेदरूप छे. कथंचित् द्रव्य अपेक्षाए नित्य छे, कथंचित् पर्याय अपेक्षाए अनित्य छे. आ रीते स्याद्वाद सर्व विरोधने दूर करे छे. स्यात् एटले कथंचित् नय अपेक्षाए, वाद एटले वस्तुस्वभावनुं कथन तेने स्याद्वाद कहे छे, तेने नमस्कार कर्या. २.
आगळ आचार्य ग्रन्थ करवानी प्रतिज्ञा करे छे.
Page 6 of 186
PDF/HTML Page 18 of 198
single page version
अन्वयार्थः– [लोकत्रयैकनेत्रं] त्रण लोक संबंधी पदार्थोने प्रकाशित करवामां अद्वितीय नेत्र [परमागमं] उत्कृष्ट जैनागमने [प्रयत्नेन] अनेक प्रकारना उपायोथी [निरूप्य] जाणीने अर्थात् परंपरा जैन सिद्धांतोना निरूपणपूर्वक [अस्माभिः] अमारा वडे [विदुषां] विद्वानोने माटे [अयं] आ [पुरुषार्थसिद्धयुपायः] पुरुषार्थसिद्धिउपाय नामनो ग्रन्थ [उपोद्ध्रियते] उद्धार करवामां आवे छे.
टीकाः– ‘अस्माभिः विदुषां अयं पुरुषार्थसिद्धयुपायः’ उपोद्ध्रियते’ –अमे ग्रन्थकर्ता ज्ञानी जीवोने माटे आ पुरुषार्थसिद्धिउपाय नामनो ग्रन्थ अथवा चैतन्यपुरुषनुं प्रयोजन सिद्ध करवानो उपाय प्रगट करीए छीए. ‘किं कृत्वा’ –केवी रीते? ‘प्रयत्नेन’–अनेक प्रकारे उद्यम करीने सावधानताथी–‘परमागमं निरूप्य’– परंपराथी जैन सिद्धान्तनो विचार करीने.
भावार्थः– जेवी रीते केवळी, श्रुतकेवळी अने आचार्योना उपदेशनी परंपरा छे तेनो विचार करीने अमे उपदेश करीए छीए, स्वमतिथी कल्पित रचना करता नथी. केवां छे परमागम? ‘लोकत्रयैकनेत्रं’– त्रणे लोकमां त्रण लोक संबंधी पदार्थोने बताववा माटे अद्वितीय नेत्र छे. ३.
आ ग्रन्थ नी शरूआतमां वक्ता, श्रोता अने ग्रन्थनुं वर्णन करवुं जोईए. एवी परंपरा छे.
माटे प्रथम ज वक्तानुं लक्षण कहे छे–
व्यवहारनिश्चयज्ञाः प्रवर्तयन्ते जगति तीर्थम्।। ४।।
अन्वयार्थः– [मुख्योपचारविवरणनिरस्तदुस्तरविनेय दुर्बोधाः] मुख्य अने उपचार कथनना विवेचन वडे प्रगटपणे शिष्योनो दुर्निवार अज्ञानभाव जेमणे नष्ट कर्यो छे तेवा तथा [व्यवहारनिश्चयज्ञाः] व्यवहारनय अने निश्चयनयना जाणनार एवा आचार्यो [जगति] जगतमां [तीर्थं] धर्मतीर्थ [प्रवर्तयन्ते] प्रवर्तावे छे.
टीकाः– ‘व्यवहारनिश्चयज्ञाः जगति तीर्थं प्रवर्तयन्ते’– व्यवहार अने निश्चयना जाणनार आचार्यो आ लोकमां धर्मतीर्थ प्रवर्तावे छे. केवा छे आचार्य? ‘मुख्योपचारविवरणनिरस्तदुस्तरविनेय दुर्बोधाः’– मुख्य अने उपचार कथनवडे शिष्यना अपार अज्ञानभावनो जेमणे नाश कर्यो छे एवा छे.
Page 7 of 186
PDF/HTML Page 19 of 198
single page version
भावार्थः– उपदेशदाता आचार्यमां अनेक गुणो जोईए. पण व्यवहार अने निश्चयनयनुं जाणपणुं मुख्य जोईए. शा माटे? जीवोने अनादिनो अज्ञानभाव छे ते मुख्य (– निश्चय) कथन अने उपचार (–व्यवहार)कथनना जाणपणाथी दूर थाय छे. त्यां मुख्य कथन तो निश्चयनयने आधीन छे. ते ज बतावीए छीए. ‘‘स्वाश्रित ते निश्चय.’’ जे पोताना ज आश्रये होय तेने निश्चय कहीए. जे द्रव्यना अस्तित्वमां जे भाव प्राप्त होय ते द्रव्यमां तेनुं ज स्थापन करवुं, परमाणुमात्र पण अन्य कल्पना न करवी तेने स्वाश्रित कहीए. तेनुं जे कथन तेने मुख्य कहीए. एने जाणवाथी अनादि शरीरादि परद्रव्यमां एकत्वश्रद्धानरूप अज्ञानभावनो अभाव थाय छे. भेदविज्ञाननी प्राप्ति थाय छे. सर्व परद्रव्यथी भिन्न पोताना शुद्ध चैतन्यस्वरूपनो अनुभव थाय छे. त्यां परमानंददशामां मग्न थई केवळदशाने पामे छे. जे अज्ञानी आने जाण्या विना धर्ममां लागे छे ते शरीराश्रित क्रियाकांडने उपादेय जाणी, संसारनुं कारण जे शुभोपयोग तेने ज मुक्तिनुं कारण मानी, स्वरूपथी भ्रष्ट थयो थको संसारमां भमे छे. तेथी मुख्य (–निश्चय) कथननुं जाणपणुं अवश्य जोईए. ते निश्चयनयने आधीन छे तेथी उपदेशदाता निश्चयनयना जाणनार जोईए. कारण के पोते ज न जाणे ते शिष्योने केवी रीते समजावी शके?
वळी ‘‘पराश्रितो व्यवहारः’’ जे परद्रव्यने आश्रित होय तेने व्यवहार कहीए. किंचित्मात्र कारण पामीने अन्य द्रव्यनो भाव अन्य द्रव्यमां स्थापन करे तेने पराश्रित कहे छे. तेनुं जे कथन तेने उपचार कथन कहे छे. एने जाणीने शरीरादि साथे संबंधरूप संसारदशा छे तेने जाणीने, संसारनां कारण जे आस्रवबंध तेने ओळखी, मुक्ति थवाना उपाय जे संवर– निर्जरा तेमां प्रवर्ते. अज्ञानी एने जाण्या विना शुद्धोपयोगी थवा ईच्छे छे ते पहेलां ज व्यवहारसाधनने छोडीने पापाचरणमां जोडाई, नरकादिक दुःखसंकटमां जईने पडे छे. तेथी उपचार कथननुं पण जाणपणुं जोईए. ते व्यवहारनयने आधीन छे तेथी उपदेशदाताने व्यवहारनुं पण जाणपणुं जोइए. आ रीते बन्ने नयोना जाणनार आचार्य धर्मतीर्थना प्रवर्तक छे, बीजा नहि. ४.
आगळ कहे छे के आचार्य बेय नयोनो उपदेश केवी रीते करे छे?
भूतार्थबोधविमुखः प्रायः सर्वोऽपि संसारः।। ५।।
Page 8 of 186
PDF/HTML Page 20 of 198
single page version
अन्वयार्थः– [इह] आ गं्रथमां[निश्चयं] निश्चयनयने [भूतार्थ] भूतार्थ अने [व्यवहारं] व्यवहारनयने[अभूतार्थ] अभूतार्थ [वर्णयन्ति] वर्णन करे छे. [प्रायः] घणुं करीने [भूतार्थबोधविमुखः] भूतार्थ अर्थात् निश्चयनयना ज्ञानथी विरुद्ध जे अभिप्राय छे, ते [सर्वोऽपि] बधोय [संसार] संसार स्वरूप छे.
टीकाः– ‘इह निश्चयं भूतार्थ व्यवहारं अभूतार्थ वर्णयन्ति’ आचार्य आ बन्ने नयोमां निश्चयनयने भूतार्थ कहे छे अने व्यवहारनयने अभूतार्थ कहे छे.
भावार्थः– भूतार्थ नाम सत्यार्थनुं छे. भूत एटले जे पदार्थमां होय ते अने अर्थ एटले ‘भाव.’ तेने जे प्रकाशे, बीजी कल्पना न करे तेने ‘भूतार्थ’ कहीए. जेम के सत्यवादी सत्य ज कहे, कल्पना करीने कहे नहि. ते ज बतावीए छीए. जोके जीव अने पुद्गलनो अनादिथी एकक्षेत्रावगाह संबंध छे, बन्ने मळेला जेवा देखाय छे तोपण निश्चयनय आत्मद्रव्यने शरीरादि पर द्रव्योथी भिन्न ज प्रकाशे छे. ते ज भिन्नता मुक्ति दशामां प्रगट थाय छे. माटे निश्चयनय सत्यार्थ छे.
वळी अभूतार्थ नाम असत्यार्थनुं छे. अभूत एटले जे पदार्थमां न होय ते अर्थ एटले भाव, तेने जे प्रकाशे अनेक कल्पना करे तेने अभूतार्थ कहीए. जेम जूठुं बोलनार माणस जरापण कारणनुं बहानुं– छळ पामे तो अनेक कल्पना करी तादश करी बतावे. ते ज कहीए छीए. जोके जीव अने पुद्गलनी सत्ता भिन्न छे, स्वभाव भिन्न छे, प्रदेश भिन्न छे तोपण एकक्षेत्रावगाह संबंधनुं छळ (ब्हानुं) प्राप्त करीने ‘‘आत्मद्रव्यने शरीरादि परद्रव्यथी एकपणुं कहे छे,’’ मुक्त दशामां प्रगट भिन्नता थाय छे एम व्यवहारनय पोते ज भिन्न भिन्न प्रकाशवाने तैयार थाय छे. तेथी व्यवहारनय असत्यार्थ छे. प्रायः भूतार्थबोधमुखः सर्वोऽपि संसारः– अतिशयपणे सत्यार्थ जे निश्चयनय तेना जाणपणाथी उलटो जे परिणाम (अभिप्राय) ते बधोय संसार स्वरूप छे.
भावार्थः– संसार कोई जुदो पदार्थ नथी. आ आत्माना परिणाम निश्चयनयना श्रद्धानथी विमुख थई, शरीरादि परद्रव्य साथे एकत्व श्रद्धानरूप प्रवर्ते तेनुं ज नाम संसार. तेथी जे संसारथी मुक्त थवा ईच्छे छे तेणे शुद्धनयनी सन्मुख रहेवुं योग्य छे.
ते ज बतावीए छीए. जेम घणा मनुष्य कादवना संयोगथी जेनुं निर्मळपणुं आच्छादित थयुं छे एवा समळ जळने ज पीए छे अने कोई पोताना हाथवडे