Purusharth Siddhi Upay-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 6-22 ; Granth Prarumbh; Shravak Dharma Vyakhyan.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 2 of 10

 

Page 9 of 186
PDF/HTML Page 21 of 198
single page version

कतकफळ (निर्मळी) नाखीने कादव अने जळने जादुं जादुं करे छे. त्यां निर्मळ जळनो स्वभाव एवो प्रगट थाय छे के जेमां पोतानो पुरुषाकार प्रतिभासे छे एवा निर्मळ जळनो आस्वाद ले छे. तेम घणा अज्ञानी जीवो कर्मना संयोगथी जेनो ज्ञानस्वभाव ढंकाई गयो छे एवा अशुद्ध आत्माने अनुभवे छे. कोई पोतानी बुद्धि वडे शुद्ध निश्चयनयना स्वरूपने जाणी कर्म अने आत्माने जुदा जुदा करे छे. त्यां निर्मळ आत्मानो स्वभाव एवो प्रगट थाय छे के जेमां पोताना चैतन्य पुरुषनो आकार प्रतिभासे छे एवो निर्मळ आत्माने स्वानुभवरूप आस्वादे छे. तेथी शुद्धनय कतकफळ समान छे. एना श्रद्धानथी सर्व सिद्धि थाय छे. प.

आगळ कहे छे के जो एक निश्चयनयना श्रद्धानथी ज सर्व सिद्धि थाय तो आचार्य व्यवहारनयनो उपदेश शा माटे करे छे? तेनो उत्तर–अर्थ आ गाथमां कह्यो छे. प.

वळी जे श्रोता गाथाना अर्थमांना उपदेशने अंगीकार करवा लायक नथी तेनुं कथन करे छे–

अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम्।
व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति।। ६।।

अन्वयार्थः– [मुनीश्वराः] ग्रन्थ करनार आचार्य [अबुधस्य] अज्ञानी जीवोने [बोधनार्थः] ज्ञान उत्पन्न करवा माटे [अभूतार्थ] व्यवहारनयनो [देशयन्ति] उपदेश करे छे अने [यः] जे जीव [केवलं]केवळ [व्यवहारम् एव] व्यवहारनयने ज [अवैति] जाणे छे. [तस्य] तेने–ते मिथ्याद्रष्टि माटे [देशना] उपदेश [नास्ति] नथी.

टीकाः– ‘मुनीश्वराः अबुधस्य बोधनार्थं अभुतार्थं देशयन्ति–’ मुनीश्वरो एटले आचार्यो अज्ञानी जीवोने ज्ञान उत्पन्न करवा माटे अभूतार्थ एवो जे व्यवहारनय तेनो उपदेश करे छे.

भावार्थः– अनादिनो अज्ञानी जीव व्यवहारनयना उपदेश विना समजे नहि तेथी आचार्य व्यवहारनय द्वारा तेमने समजावे छे. ते ज बतावीए छीए. जेम कोई म्लेच्छने ब्राह्मणे ‘स्वस्ति’ शब्द वडे आशीर्वाद आप्यो. तेने (अर्थनी) कांई खबर पडी नहि, तेना तरफ ताकी ज रह्यो. त्यां दुभाषियो तेने म्लेच्छनी भाषामां कहेवा लाग्यो के आ कहे छे के ‘तारु भलुं थाव.’ त्यारे आनंदित थईने तेनो


Page 10 of 186
PDF/HTML Page 22 of 198
single page version

आशीर्वाद अंगीकार करे छे. तेम अज्ञानी जीवोने आचार्ये ‘आत्मा’ एवा शब्द वडे उपदेश कर्यो. त्यारे तेने कांई समजण न पडवाथी आचार्य तरफ जोई रह्यो. त्यां निश्चयव्यवहारनयना जाणनार आचार्ये व्यवहारनय वडे भेद उपजावीने कह्युं के–जे आ देखनार, जाणनार, आचरण करनार पदार्थ छे ते ज आत्मा छे, त्यारे सहज परमानंद दशाने प्राप्त थई ते आत्माने निज स्वरूप वडे अंगीकार करे छे. आ रीत आ सद्भूत व्यवहारनयनुं उदाहरण आप्युं.

हवे असद्भूत व्यवहारनयनुं उदाहरण कहीए छीए. जेम माटीनो घडो घीथी संयुक्त छे तेने व्यवहारे घीनो घडो कहीए छीए. अहीं कोई पुरुष जन्मथी घीनो घडो जाणे छे. जो कोई तेने घीनो घडो कहीने समजावे तो समजे अने जो माटीनो घडो कहे तो बीजा कोई कोरा घडानुं नाम समजे छे. निश्चयथी विचारीए तो घडो छे ते माटीनो ज छे, परंतु तेने समजाववा माटे ‘घीनो घडो’ एवा नाम वडे कहीए छीए. तेम चैतन्यस्वरूप आत्मा कर्मजनित पर्यायथी संयुक्त छे तेने व्यवहारथी देव, मुनष्य ईत्यादि नामथी कहीए छीए. अहीं अज्ञानी अनादिथी ते आत्माने देव, मनुष्य इत्यादि स्वरूप ज जाणे छे. जो कोई एने देव, मनुष्य वगेरे नामथी संबोधीने समजावे तो समजे अने चैतन्यस्वरूप आत्मानुं नाम कहे तो बीजा कोई परमब्रह्म, परमेश्वरनुं नाम समजे. निश्चयथी विचारीए तो आत्मा छे ते चैतन्यस्वरूप ज छे. परंतु एने समजाववा माटे आचार्य गति, जातिना भेद वडे जीवनुं निरूपण करे छे. आ रीते अज्ञानी जीवोने ज्ञान उपजाववा माटे आचार्य व्यवहारनो उपदेश करे छे. अहीं मात्र व्यवहार ‘एवं अवैति तस्य देशना नास्ति’– जे जीव केवळ व्यवहारनी ज श्रद्धा करे छे तेने माटे उपदेश नथी.

भावार्थः– निश्चयनयनी श्रद्धा विना केवळ व्यवहार मार्गमां ज जे प्रवर्ते ते मिथ्याद्रष्टिने उपदेश करवो निष्फळ छे. ६.

आगळ केवळ व्यवहारनयनुं श्रद्धान थवानुं कारण बतावे छे–

माणवक
एव सिंहो यथा भवत्यनवगीत सिंहस्य।
व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य।। ७।।

अन्वयार्थः– [यथा] जेम[अनवगीत सिंहस्य] सिंहने सर्वथा न जाणनार पुरुषने [माणवकः] बिलाडी [एव][सिंहः] सिंहरूप [भवति] थाय छे, [हि]


Page 11 of 186
PDF/HTML Page 23 of 198
single page version

निश्चयथी [तथा] तेम [अनिश्चयज्ञस्य] निश्चयनयना स्वरूपथी अपरिचित पुरुषने माटे [व्यवहारः] व्यवहार [एव][निश्चयतां] निश्चयपणुं [याति] पामे छे.

टीकाः– ‘यथा हि अनवगीतसिंहस्य माणवक एव सिंहो भवति’– जेम निश्चयथी (खरेखर) जेणे सिंहने जाण्यो नथी तेने बिलाडी ज सिंहरूप थाय छे. तथा ‘अनिश्चयज्ञस्य व्यवहारः एव निश्चयतां याति’– तेम जेणे निश्चयनुं स्वरूप जाण्युं नथी तेमने व्यवहार ज निश्चयरूप थाय छे. अर्थात् तेओ व्यवहारने ज निश्चय मानी बेसे छे.

भावार्थः– जेम बाळक सिंहने ओळखतुं नथी, बिलाडीने ज सिंह माने छे तेम अज्ञानी निश्चयना स्वरूपने ओळखतो नथी, व्यवहारने ज निश्चय माने छे. ते ज बतावीए छीए. जे जीव पोताना शुद्ध चैतन्यरूप आत्माना श्रद्धान, ज्ञान, आचरणरूप मोक्षमार्गने ओळखतो नथी ते जीव व्यवहारदर्शन, ज्ञान, चारित्रनुं साधन करी पोताने मोक्षनो अधिकारी माने छे. अरिहंतदेव, निर्ग्रंथ गुरु, दयाधर्मनुं श्रद्धान करी पोताने सम्यग्द्रष्टि माने छे. अने किंचित् जिनवाणीने जाणी पोताने ज्ञानी माने छे, महाव्रतादि क्रियानुं साधन करी पोताने चारित्रवान माने छे. आ रीते ए शुभोपयोगमां संतुष्ट थई, शुद्धोपयोगरूप मोक्षमार्गमां प्रमादी छे ते कारणे केवळ व्यवहारनयना अवलंबी थया छे एने उपदेश आपीए तो निष्फळ छे. अहीं प्रश्न ऊपजे छे के आवा श्रोता पण उपदेश लायक नथी.

तो श्रोता केवा गुणवाळा होवा जोईए? तेनो उत्तर आगळ कहे छे–

व्यवहारनिश्चयौ यः प्रबुध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थः।
प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं
शिष्यः।। ८।।

अन्वयार्थः– [यः] जे जीव [व्यवहारनिश्चयौ] व्यवहारनय अने निश्चयनयने [तत्त्वेन] वस्तुस्वरूप वडे [प्रबुध्य] यथार्थपणे जाणीने [मध्यस्थः] मध्यस्थ [भवति] थाय छे, अर्थात् निश्चयनय अने व्यवहारनयना पक्षपातरहित थाय छे [सः] ते [एव][शिष्यः] शिष्य [देशनायाः] उपदेशना [अविकलं] सम्पूर्ण [फलं] फळने [प्राप्नोति] पामे छे.

टीकाः– ‘यः व्यवहारनिश्चयौ तत्त्वेन प्रबुध्य मध्यस्थः भवति’– जे जीव व्यवहारनय अने निश्चयनयने यथार्थपणे जाणीने पक्षपातरहित थाय छे ‘स एव शिष्यः


Page 12 of 186
PDF/HTML Page 24 of 198
single page version

देशनायाः अविकलं फलं प्राप्नोति’– ते ज शिष्य उपदेशनुं संपूर्ण फळ पामे छे.

भावार्थः– श्रोतामां अनेक गुण जोईए. परंतु व्यवहार अने निश्चयने जाणीने एक पक्षना हठाग्रहीरूप न थवुं ए गुण मुख्य जोईए. कह्युं छे के–

जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहार णिच्छए मुअह।
एकेण विणा छिज्जइ तित्थं, अप्णेण पुण तच्चं।।
(– पं. प्रवर आशाधरकृत अनगार धर्मामृत प्र. अ. पृ. १८)

अर्थः– जो तुं जिनमतमां प्रवर्ते छे तो व्यवहार अने निश्चयने न छोड. जो निश्चयनो पक्षपाती थई व्यवहारने छोडीश तो रत्नत्रयस्वरूप धर्मतीर्थनो अभाव थशे. अने जो व्यवहारनो पक्षपाती थई निश्चयने छोडीश तो शुद्ध तत्त्वस्वरूपनो अनुभव नहि थाय. तेथी पहेलां व्यवहार–निश्चयने बराबर जाणी पछी यथायोग्यपणे एने अंगीकार करवा, पक्षपाती न थवुं ए ज उत्तमश्रोतानुं लक्षण छे. अहीं प्रश्नः–जे निश्चय–व्यवहारना जाणपणारूप गुण वक्तानो कह्यो हतो ते ज श्रोतानो कह्यो तेमां विशेष शुं आव्युं? उत्तरः–जे गुण वक्तामां अधिकपणे होय ते ज श्रोतामां हीनतापणे–थोडा अंशे होय छे. ए रीते वक्ता अने श्रोतानुं वर्णन कर्युं. ८.


[भूमिका समाप्त]


Page 13 of 186
PDF/HTML Page 25 of 198
single page version

हवे ग्रन्थनुं वर्णन करे छे. आ ग्रन्थमां पुरुषना अर्थनी सिद्धिना उपायनुं व्याख्यान करशे. तेथी प्रथम ज पुरुषनुं स्वरूप कहे छेः–

अस्ति पुरुषश्चिदात्मा विवर्जितः स्पर्शगन्धरसवर्णैः।
गुणपर्ययसमवेतः
समाहितः समुदयव्ययध्रौव्यैः।। ९।।

अन्वयार्थः– [पुरुषः] पुरुष अर्थात् आत्मा [चिदात्मा] चेतनास्वरूप [अस्ति] छे, [स्पर्शगन्धरसवर्णैः] स्पर्श, गंध, रस, अने वर्णथी [विवर्जितः] रहित छे, [गुणपर्ययसमवेतः] गुण अने पर्याय सहित छे तथा [समुदयव्ययध्रौव्यैः] उत्पाद, व्यय अने ध्रौव्य [समाहितः] युक्त छे.

टीकाः– पुरुषः चिदात्मा अस्ति –पुरुष छे ते चैतन्यस्वरूप छे.

भावार्थः– (पुरु) उत्तम चेतना गुणमां (सेते) स्वामी थईने प्रवर्ते तेनुं नाम पुरुष छे. ज्ञान, दर्शन, चेतनाना नाथने पुरुष कहीए. आ ज चेतना अव्याप्ति, अतिव्याप्ति अने असंभव ए त्रण दोषरहित आ आत्मानुं असाधारण लक्षण छे. अव्याप्ति दोष तेने कहे छे के जेने जेनुं लक्षण कह्युं होय ते तेना कोई लक्ष्यमां होय, अने कोई लक्ष्यमां न होय. पण कोई आत्मा चेतना रहित नथी.

जो आत्मानुं लक्षण रागादि कहीए तो अव्याप्ति दूषण लागे छे कारण के रागादि संसारी जीवने छे, सिद्ध जीवोने नथी.

जे लक्षण लक्ष्यमां होय अने अलक्ष्यमां पण होय तेने अतिव्याप्ति दूषण कहीए. पण चेतना जीव पदार्थ सिवाय बीजा कोई पदार्थमां नथी. जो आत्मानुं लक्षण अमूर्तत्व कहीए तो अतिव्याप्ति दूषण लागे; कारण के जेवी रीते आत्मा अमूर्तिक छे तेवी रीते धर्म, अधर्म, आकाश अने काळ पण अमूर्तिक छे. वळी जे प्रमाणमां न आवे तेने असंभव कहीए. चेतना जीव पदार्थमां प्रत्यक्ष अने परोक्ष प्रमाणथी जणाय छे. जो आत्मानुं लक्षण जडपणुं कहीए तो असंभव दोष लागे छे; कारण के ते प्रत्यक्ष प्रमाणथी बाधित छे. आ रीते त्रण दोष रहित आत्मानुं चेतना लक्षण


Page 14 of 186
PDF/HTML Page 26 of 198
single page version

बे प्रकारे छे. एक ज्ञानचेतना छे, बीजी दर्शनचेतना छे. जे पदार्थोने साकाररूपे विशेषपणे करीने जाणे तेने ज्ञानचेतना कहे छे.

जे पदार्थोने निराकाररूपे सामान्यपणे देखे तेने दर्शनचेतना कहीए. आज चेतना परिणामनी अपेक्षाए त्रण प्रकारनी छे. ज्यारे आ चेतना शुद्ध ज्ञानस्वभावरूपे परिणमे त्यारे ज्ञानचेतना कहीए, ज्यारे रागादि कार्यरूपे परिणमे त्यारे कर्मचेतना अने हर्ष–शोकादि वेदनरूप कर्मना फळरूपे परिणमे त्यारे कर्मफळचेतना कहीए. आ रीत चेतना अनेक स्वांग करे पण चेतनानो अभाव कदी थतो नथी. आवा चेतनालक्षणथी विराजमान जीव नामना पदार्थनुं नाम पुरुष छे वळी केवो छे पुरुष? स्पर्श, रस गंध अने वर्णथी रहित छे. आठ प्रकारना स्पर्श, बे प्रकारनी गंध, पांच प्रकारना रस, पांच प्रकारना वर्ण एवा जे पुद्गलोनां लक्षण तेनाथी रहित अमूर्तिक छे. आ विशेषणथी पुद्गल द्रव्यथी जुदाई प्रगट करी, कारण के आ आत्मा अनादिथी संबंधरूप जे पुद्गल द्रव्य छे तेमां अहंकार–ममकाररूप प्रवर्ते छे. जो पोतानां चैतन्य पुरुषने अमूर्तिक जाणे तो द्रव्यकर्म, नोकर्म, धनधान्यादि पुद्गलद्रव्यमां अहंकार–ममकार न करे.

वळी केवो छे पुरुष? ‘गुणपर्यायसमवेतः’–गुणपर्यायोथी विराजमान छे. त्यां गुणनुं लक्षण सहभूत छे. सह एटले द्रव्यनी साथे छे, भू एटले सत्ता. द्रव्यमां जे सदाकाळ प्राप्त छे तेने गुण कहीए. आत्मामां गुण बे प्रकारे छे. ज्ञान–दर्शनादि असाधारण गुण छे, बीजा द्रव्यमां ते होता नथी. अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्वादि साधारण गुण छे, बीजां द्रव्यमां पण होय छे. पर्यायनुं लक्षण क्रमवर्ती छे. जे द्रव्यमां अनुक्रमे ऊपजे, कदाचित्–कोईवार होय तेने पर्याय कहीए. आत्मामां पर्याय बे प्रकारे छे. जे नर–नारकादि आकाररूप अथवा सिद्धना आकाररूप पर्याय तेने व्यंजनपर्याय कहीए. ज्ञानादि गुणने पण स्वभाव वा विभागरूप परिणमन जे छ प्रकारे हानि–वृद्धिरूप छे तेने अर्थपर्याय कहे छे. आ गुणपर्यायोथी आत्मानी तदात्मक एक्ता छे. आ विशेषण वडे आत्मानुं विशेष्य जाणी शकाय छे.

वळी केवो छे पुरुष? ‘समुदयव्ययध्रौव्यैः समाहितः’– उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यथी संयुक्त छे. नवीन अर्थपर्याय अने व्यंजनपर्यायनुं ऊपजवुं ते उत्पाद, पूर्व पर्यायनो नाश थवो ते व्यय अने गुणनी अपेक्षाए अथवा द्रव्यनी अपेक्षाए शाश्वतपणुं तेने ध्रौव्य कहीए. जेम सोनुं कुंडळ पर्यायथी ऊपजे छे, कंकण पर्यायथी विणसे छे,


Page 15 of 186
PDF/HTML Page 27 of 198
single page version

पीळाश वगेरेनी अपेक्षाए अथवा सोनापणानी अपेक्षाए सर्व अवस्थाओमां शाश्वतता छे. आ विशेषणथी आत्मानुं अस्तित्व प्रगट कर्युं. ९.

प्रश्नः– आवा चैतन्य पुरुषने अशुद्धता कई रीते थई जेथी एने पोताना अर्थनी सिद्धि करवी पडे? तेनो उत्तर आगळ कहे छे–

परिणममानो नित्यं ज्ञानविवर्त्तैरनादिसन्तत्या।
परिणामानां स्वेषां स भवति कर्त्ता च भोक्ता च।। १०।।

अन्वयार्थः– [सः] ते चैतन्य आत्मा [अनादिसन्तत्या] अनादिनी परिपाटीथी [नित्यं] निरंतर [ज्ञानविवर्त्तैः] ज्ञानादि गुणोना विकाररूप रागादि परिणामोथी [परिणममानः] परिणमतो थको [स्वेषां] पोताना [परिणामानां] रागादि परिणामोनो [कर्त्ता च भोक्ता च] कर्ता अने भोक्ता पण [भवति] थाय छे.

टीकाः– ‘‘अनादि सन्तत्या नित्यं ज्ञानविवर्त्तैः परिणममानः स्वेषां परिणामानां कर्त्ता च भोक्ता च भवति।’’ – ते चैतन्य पुरुष अनादिनी परिपाटीथी सदा ज्ञान चारित्ररहित जे रागादि परिणाम ते वडे परिणमतो थको पोताना जे रागादि परिणाम थया तेनो ए कर्ता पण छे अने भोक्ता पण छे.

भावार्थः– आ आत्माने नवी अशुद्धता थई नथी. अनादिकालथी संतानरूपे द्रव्यकर्मथी रागादि थाय छे, रागादिथी वळी द्रव्यकर्मनो बंध थाय छे. सुवर्णकीटिका जेम अनादि संबंध छे. ते संबंधथी पोताना ज्ञानस्वभावनी खबर ज नथी तेथी उदयागत कर्म पर्यायमां ईष्ट– अनिष्टभाव वडे राग, द्वेष, मोहरूप परिणम्यो छे. जोके आ परिणामोने द्रव्यकर्मनुं कारण छे तोपण ए परिणाम चेतनामय छे. तेमां आ परिणामनो व्याप्यव्यापक भावथी आत्मा ज कर्ता छे.

भाव्यभावकभावथी आत्मा ज भोक्ता छे. व्याप्यव्यापकभाव एटले शुं ते कहीए छीए. जे नियमथी सहचारी होय तेने व्याप्ति कहे छे. जेम धूमाडा अने अग्निमां सहचारीपणुं छे. ज्यां धूमाडो होय त्यां अग्नि होय अने अग्नि विना धूमाडो न होय. तेम रागादिभाव अने आत्मामां सहचारीपणुं छे. ज्यां रागादि होय त्यां आत्मा होय ज. आत्मा विना रागादि न होय. आ व्याप्तिक्रियामां जे कर्म छे तेने व्याप्य कहीए. आत्मा कर्ता छे तेने व्यापक कहीए. आवी रीते ज्यां व्याप्य व्यापक संबंध होय त्यां कर्ता कर्म संबंध संभवे, बीजा स्थानमां न संभवे. ए ज


Page 16 of 186
PDF/HTML Page 28 of 198
single page version

रीते जे जे भाव अनुभववा योग्य होय तेने भाव्य कहीए. अनुभव करनार पदार्थने भावक कहीए. आवो भाव्यभावकसंबंध ज्यां होय त्यां भोक्ताभोग्यसंबंध संभवे, बीजी जग्याए न संभवे. १०.

आ रीते आ अशुद्ध आत्माने अर्थसिद्धि कयारे थाय अने अर्थसिद्धि कोने कहेवाय ते आगळ कहे छे–

सर्वविवर्त्तोतीर्णं यदा स चैतन्यमचलमाप्नोति।
भवति तदा कृतकृत्यः सम्यक्पुरुषार्थसिद्धिमापन्नः।। ११।।

अन्वयार्थः– [यदा] ज्यारे [सः] उपर्युक्त अशुद्ध आत्मा [सर्वविवर्त्तोत्तीर्णं] सर्व विभावोथी पार थईने [अचलं] पोताना निष्कम्प [चैतन्यं] चैतन्य स्वरूपने [आप्नोति] प्राप्त थाय छे [तदा] त्यारे आ आत्मा ते [सम्यक्पुरुषार्थसिद्धिम्] सम्यक्पणे पुरुषार्थना प्रयोजननी सिद्धिने [आपन्नः] प्राप्त थतो थको [कृतकृत्यः] कृतकृत्य [भवति] थाय छे.

टीकाः– ‘स यदा सर्वविवर्त्तोत्तीर्णं चैतन्यमचलमाप्नोति तदा कृतकृत्यः भवति’– रागादि भावोथी लिप्त ते ज आत्मा ज्यारे सर्व विभावथी पार थई पोताना चैतन्यस्वरूप आत्माने निःशंकपणे प्राप्त थाय त्यारे आ ज आत्मा कृतकृत्य थाय छे. केवो छे आ आत्मा? ‘सम्यक्पुरुषार्थसिद्धिमापन्नः’– सम्यक् प्रकारे पुरुषार्थनी सिद्धिने प्राप्त थयो छे.

भावार्थः– ज्यारे आ आत्मा स्व–पर भेदविज्ञान वडे शरीरादि परद्रव्यने जुदा जाणे त्यारे तेमां ‘‘आ भला–ईष्ट, आ बूरा’’ एवी बुद्धिनो त्याग करे. कारण के जे कांई भलुं के बूरुं थाय छे ते तो पोताना परिणामोथी ज थाय छे, परद्रव्यना करवाथी भलुं–बूरुं थतुं नथी. तेथी सर्व परद्रव्योमां रागद्वेष भावनो त्याग करे. जो अवशपणे (–पुरुषार्थनी निर्बळताथी) रागादि ऊपजे तो तेना नाशना माटे अनुभव–अभ्यासमां उद्यमवंत रहे. आम करतां ज्यारे सर्व विभावभावनो नाश थाय, अक्षुब्ध समुद्रवत् शुद्धात्मस्वरूपमां लवणवत् परिणाम लीन थाय, ध्याताध्येयनो विकल्प न रहे, एम न जाणे के हुं शुद्धात्मस्वरूपने ध्यावुं छुं, पोते ज तादात्म्यवृत्तिथी शुद्धात्मस्वरूप थई निष्कंपपणे परिणमे, ते वखते आ आत्माने जे कांई करवानुं हतुं ते करी लीधुं, कांई करवानुं हवे बाकी रह्युं नहि तेथी एने


Page 17 of 186
PDF/HTML Page 29 of 198
single page version

कृतकृत्य कहीए छीए. तेनी अवस्थामां पुरुषार्थनी सिद्धि थई. पुरुषनो जे अर्थ अर्थात् प्रयोजनरूप कार्य तेनी जे सिद्धि थवानी हती ते थई गई. आवी अवस्थाने जे प्राप्त थयो ते आत्माने कृतकृत्य कहीए छीए. ११.

आगळ पुरुषार्थसिद्धिनो उपाय कहेवा ईच्छे छे त्यां प्रथम परद्रव्यना संबंधनुं कारण कहे छे, जे जतां जे कंई उपाय करवामां आवे छे ते कहे छेः–

जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये।
स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र
पुद्गलाः कर्मभावेन।। १२।।

अन्वयार्थः– [जीवकृतं] जीवना करेला [परिणामं] रागादि परिणामने [निमित्तमात्रं] निमित्तिमात्र [प्रपद्य] पामीने [पुनः] फरी [अन्ये पुद्गलाः] जीवथी भिन्न अन्य पुद्गल स्कन्ध [अत्र] आत्मामां [स्वयमेव] पोतानी मेळे ज [कर्मभावेन] ज्ञानावरणादि कर्मरूप [परिणमन्ते] परिणमे छे.

टीकाः– ‘‘जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनः अन्ये पुद्गलाः स्वयमेव कर्मभावेन परिणमन्ते।’’ जीवे करेला जे रागादि परिणाम तेने निमित्तमात्र पामीने नवा अन्य पुद्गलस्कंध स्वयमेव ज्ञानावरणादि कर्मरूप थई परिणमे छे.

भावार्थः– ज्यारे जीव रागद्वेषमोहभावे परिणमे छे त्यारे ते भावोनुं निमित्त पामी पोते ज पुद्गल द्रव्य कर्मअवस्थाने धारण करे छे. विशेष एटलुं के जो आत्मा देव–गुरु–धर्मादिक प्रशस्त रागरूपे परिणमे तो शुभकर्मनो बंध थाय.

प्रश्नः– जीवना भाव महा सूक्ष्मरूप छे तेनी खबर जडकर्मने केवी रीते पडे? अने खबर विना केवी रीते पुण्य–पापरूपे थईने परिणमे छे?

उत्तरः– जेम मंत्रासाधक पुरुष बेठो बेठो गुप्तपणे मंत्र जपे छे, तेम मंत्रना निमित्तथी एना कर्या विना ज कोईने पीडा ऊपजे छे, कोईनुं मरण थाय छे, कोईनुं भलुं थाय छे, कोई विटंबणारूप परिणमे छे–एवी ए मंत्रमां शक्ति छे. तेनुं निमित्त पामी चेतन–अचेतन पदार्थ पोते ज अनेक अवस्था धारण करे छे. तेवी रीते अज्ञानी जीव पोताना अंतरंगमां विभावभावरूपे परिणमे छे. ते भावनुं निमित्त पामीने एना कर्या सिवाय ज कोई पुद्गल पुण्यप्रकृतिरूपे परिणमे छे, कोई पापरूप परिणमे छे एवी एना भावोमां शक्तिछे. तेनुं निमित्त पामीने पुद्गल पोते ज अनेक अवस्था धारण करे छे. एवो ज निमित्तनैमित्तिक संबंध छे. १२.


Page 18 of 186
PDF/HTML Page 30 of 198
single page version

आ जीवने जे विभावभाव थाय छे ते पोताथी ज थाय छे वा एनुं पण निमित्त कारण छे ए प्रश्ननो उत्तर आगळ कहेशे.

परिणममानस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि, स्वकैर्भावैः।
भवति हि निमित्तमात्रं पौद्गलिकं कर्म
तस्यापि।। १३।।

अन्वयार्थः– [हि] निश्चयथी [स्वकैः] पोताना [चिदात्मकैः] चेतनास्वरूप [भावैः] रागादि परिणामोथी [स्वयमपि] पोते ज [परिणममानस्य] परिणमता [तस्य चितः अपि] पूर्वोक्त आत्माने पण [पौद्गलिकं] पुद्गल संबंधी [कर्म] ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म [निमित्तमात्रं] निमित्त मात्र [भवति] थाय छे.

टीकाः– हि चिदात्मकैः स्वकैर्भावैः परिणममानस्य तस्य चितः अपि पौद्गलिकं कर्म निमित्तमात्रं भवति’– निश्चयथी चैतन्यस्वरूप पोताना रागादि परिणामरूपे परिणमेला ते पूर्वोक्त आत्माने पण पौद्गलिक ज्ञानावरणादि कर्म निमित्तमात्र थाय छे.

भावार्थः– आ जीवने रागादि विभावभाव पोताथी ज (स्वद्रव्यना आलंबनथी) थता नथी. जो पोताथी ज थाय तो ते ज्ञान–दर्शननी जेम स्वभावभाव थई जाय. स्वभावभाव होय तो तेनो नाश पण न थाय. तेथी ए भाव औपाधिक छे, अन्य निमित्तथी थाय छे. ते निमित्त ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मोने जाणवुं. जे जे प्रकारे द्रव्यकर्म उदय अवस्थारूपे परिणमे ते ते प्रकारे आत्मा विभावभावरूपे परिणमे छे.

प्रश्नः– पुद्गलमां एवी कई शक्ति छे के जे चैतन्यने विभावरूपे परिणमावे छे.?

उत्तरः– जेम कोई मनुष्यना शिर उपर मंत्रेली रज नाखी होय तो ते रजना निमित्त द्वारा ते पुरुष पोताने भूली नाना प्रकारनी विपरीत चेष्टा करे छे. मंत्रना निमित्ते रजमां एवी शक्ति होय छे के जे बुद्धिमान मनुष्यने विपरीत परिणमावे छे. तेवी ज रीते आ आत्माना प्रदेशोमां रागादिना निमित्ते बंधायेलां पुद्गलोना निमित्ते आ आत्मा पोताने भूलीने नाना प्रकारना विपरीत भावोरूपे परिणमे छे. एना विभावभावोना निमित्ते पुद्गलमां एवी शक्ति होय छे के जे चैतन्यपुरुषने विपरीत _________________________________________________________________

१. दरेक द्रव्य स्वद्रव्य–क्षेत्र–काळ अने भावथी छे, पर द्रव्यादिनो तेमां सदाय अभाव ज छे. तेथी कोई कोईने परिणमावी शकतुं नथी, छतां जीवनी ते प्रकारे परिणमवानी योग्यता काळे बाह्यमां कई सामग्रीने निमित्त बनाववामां आवी तेनुं ज्ञान कराववा माटे असद्भूत व्यवहारनयथी निमित्तने कर्त्ता कहेवामां आवे छे, व्यवहार कथननी रीत आम छे एम जाणवुं जोईए.


Page 19 of 186
PDF/HTML Page 31 of 198
single page version

परिणमावे छे. आ रीते भावकर्मथी द्रव्यकर्म थाय छे अने द्रव्यकर्मथी भावकर्म थाय छे. तेनुं नाम संसार कहीए. १३.

आगळ आ संसारनुं मूळ कारण बतावीए छीए.–

एवमयं कर्मकृतैर्भा वैरसमाहितोऽपि युक्त इव।
प्रतिभाति बालिशानां प्रतिभासः स खलु भवबीजम्।। १४।।

अन्वयार्थः– [एवम्] ए रीते [अयं] आ आत्मा [कर्मकृतैः] कर्मोना करेला [भावैः] रागादि अथवा शरीरादि भावोथी [असमाहितोऽपि] संयुक्त न होवा छतां पण [बालिशानां] अज्ञानी जीवोने [युक्तः इव] संयुक्त जेवो [प्रतिभाति] प्रतिभासे छे अने [सः प्रतिभासः] ते प्रतिभास ज [खलु] निश्चयथी [भवबीजं] संसारना बीजरूप छे.

टीकाः– ‘स एवं अयं कर्मकृतैर्भावैः असमाहितः अपि बालिशानां युक्तः इति प्रतिभाति’– आवी रीते आ आत्मा कर्म वडे करेला नाना प्रकारना भावथी संयुक्त नथी तोपण अज्ञानीने पोताना अज्ञानथी आत्मा कर्मजनित भावोथी संयुक्त जेवो प्रतिभासे छे.

भावार्थः– पहेलां आम कह्युं के पुद्गलकर्मने कारणभूत रागादिभाव छे, रागादिभावोनुं कारण पुद्गलकर्म छे. तेथी आ आत्मा निज स्वभावभावनी अपेक्षाए कर्मजनित नाना प्रकारना भावोथी जुदो ज चैतन्यमात्र वस्तु छे.

जेम लाल फूलना निमित्ते स्फटिक लाल रंगरूपे परिणमे छे परंतु ते लाल रंग स्फटिकनो निज भाव नथी. स्फटिक स्वच्छतारूप पोताना श्वेत वर्णथी बिराजमान छे. लाल रंग छे ते स्वरूपमां पेठा सिवाय उपर उपर ज झलक मात्र देखाय छे. त्यां रत्ननो पारखु झवेरी तो एम ज जाणे छे अने अपारखु (अपरीक्षक) पुरुषने सत्यरूप लाल मणिनी जेम लालरंगरूप ज प्रतिभासे छे. तेवी ज रीते कर्मनिमित्तथी आत्मा रागादिरूपे परिणमे छे. ते रागादि आत्माना निज भाव नथी. आत्मा पोतानी स्वच्छतारूप चैतन्यगुणमां विराजमान छे. रागादि छे ते स्वरूपमां पेठा विना उपर उपर ज झलक मात्र देखाय छे. त्यां ज्ञानी स्वरूपना परीक्षक तो एम ज जाणे छे. अने अपरीक्षक जीवोने सत्यरूप आत्मा पुद्गल कर्मनी पेठे रागादि स्वरूप ज प्रतिभासे छे. अहीं प्रश्न–तमे ज रागादिभावने जीवकृत कह्या हता. अहीं तेने कर्मकृत केवी


Page 20 of 186
PDF/HTML Page 32 of 198
single page version

रीते कहो छो? तेनो उत्तर– रागादिभाव चेतनारूप छे तेथी एनो कर्ता जीव ज छे, परंतु अही श्रद्धा कराववा माटे मूळभूत जीवना शुद्धस्वभावनी अपेक्षाए रागादि भाव कर्मना निमित्तथी थाय छे तेथी कर्मकृत कह्या.

जेम कोई मनुष्यने भूत वळग्युं होय तो ते मनुष्य ते भूतना निमित्ते नाना प्रकारनी विपरीत चेष्टा करे छे. तेथी ते चेष्टाओनो कर्ता तो मनुष्य ज छे परंतु ते चेष्टा मनुष्यनो निजभाव नथी माटे ए चेष्टाओने भूतकृत कहीए. तेम आ जीव कर्मना निमित्ते नाना प्रकारना विपरीत भावोरूपे परिणमे छे, ते भावोनो कर्ता तो जीव ज छे परंतु आ जीवनो निजभाव नथी तेथी ते भावोने कर्मकृत कहीए छीए. अथवा कर्मे करेला जे नाना प्रकारना पर्याय, वर्ण, गंध, रस स्पर्श, कर्म, अथवा देव–नारक–मनुष्य–तिर्यंचशरीर, संहनन, संस्थानादि भेद अथवा पुत्र, मित्र, मकान, धन, धान्यादि भेद–ए बधाथी शुद्धात्मा प्रत्यक्ष भिन्न ज छे. जेम कोई मनुष्य अज्ञानी गुरुना कहेवाथी एकांत ओरडामां बेसी पाडानुं ध्यान करवा लाग्यो, पोताने पाडा समान मोटा शरीरवाळो चिंतववा लाग्यो, आकाश जेवडा मोटा शिंगडांवाळो मानी हुं आ ओरडामांथी केवी रीते नीकळीश एम चिंतववा लाग्यो. ते पोताने पाडो न माने तो मनुष्यस्वरूप पोते बनी ज रह्यो छे. तेम आ जीव मोहना निमित्तथी पोताने वर्णादिक स्वरूप मानी देवादि पर्यायोमां आव्यो माने छे. जो न माने तो अमूर्तिक शुद्धात्मा पोते बनी रहेल ज छे.

आ रीते आ आत्मा कर्मजनित रागादिकभाव अथवा वर्णादिकभाव तेनाथी सदाकाळ भिन्न छे. कह्युं छे के –‘‘वर्णाद्या वा राग मोहादयो वा। भिन्ना भावाः सर्वएवास्य पुंसः।।’’ तोपण अज्ञानी जीवोने आत्मा कर्मजनित भावोथी संयुक्त प्रतिभासे छे, ‘‘खलु सः प्रतिभासः भवबीजम्’’। निश्चयथी आ प्रतिभास ते ज संसारना बीजभूत छे.

भावार्थः– जेम बधां वृक्षोना मूळभूत बीज छे तेम अनंत संसारनुं मूळकारण कर्मजनित भावोने पोताना मानवा ते छे. आवी रीते अशुद्धतानुं कारण बताव्युं. १४. _________________________________________________________________ १–आ पुरुष (–आत्मा)ने वर्णादि, रागादि अथवा मोहादि बधाय भाव (पोताथी) भिन्न छे.


Page 21 of 186
PDF/HTML Page 33 of 198
single page version

पुरुषार्थसिद्धिनो उपाय

विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वम्।
यत्तस्मादविचलनं
स एव पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयम्।। १५।।

अन्वयार्थः– [विपरीताभिनिवेशं] विपरीत श्रद्धाननो [निरस्य] नाश करीने [निजतत्त्वम्] निजस्वरूपने [सम्यक्] यथार्थपणे [व्यवस्य] जाणीने [यत्] जे [तस्मात्] ते पोताना स्वरूपमांथी [अविचलनं] भ्रष्ट न थवुं [स एव] ते ज [अयं][पुरुषार्थ– सिद्धयुपायः] पुरुषार्थसिद्धिनो उपाय छे.

टीकाः– ‘‘यत्विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यक् निजतत्त्वं व्यवस्य तत् तस्मात् अविचलनं स एव अयं पुरुषार्थसिद्धयुपायः।’’– जे विपरीत श्रद्धाननो नाश करी यथार्थपणे निजस्वरूपने जाणे अने ते पोताना स्वरूपमांथी भ्रष्ट न थाय ते ज पुरुषार्थसिद्धि थवानो उपाय छे.

भावार्थः– पूर्वे जे कह्युं हतुं के संसारना बीजभूत कर्मजनित पर्यायने आत्मापणे– पोतारूपे जाणवुं तेनुं ज नाम विपरीत श्रद्धान कहीए छीए. तेनो मूळमांथी नाश करवो ते सम्यग्दर्शन छे. कर्मजनित पर्यायथी भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वरूपने यथार्थपणे जाणवुं ते सम्यग्ज्ञान छे अने कर्मजनित पर्यायोथी उदासीन थई स्वरूपमां अकंप–स्थिर रहेवुं ते सम्यक् चारित्र छे. ए त्रणे भावोनो समूह ते ज आ जीवने कार्य सिद्ध थवानो उपाय छे, बीजो कोई उपाय सर्वथा नथी १प.

जे आ उपायमां लागे छे तेमनुं वर्णन आगळ करे छे–

अनुसरतां पदमेतत् करम्बिताचारनित्यनिरभिमुखा।
एकान्तविरतिरुपा
भवति मुनीनामलौकिकी वृत्तिः।। १६।।

अन्वयार्थः– [एतत् पद्म अनुसरतां] आ रत्नत्रयरूप पदवीने अनुसरनार अर्थात् प्राप्त करेल [मुनीनां] महामुनिओनी [वृत्तिः] वृत्ति [करम्बिताचारनित्यनिरभिमुखा] पापक्रिया मिश्रित आचारोथी सर्वथा पराङ्मुख तथा [एकान्तविरतिरुपा] परद्रव्योथी सर्वदा उदासीनरूप अने [अलौकिकी] लोकथी विलक्षण प्रकारनी [भवति] होय छे.


Page 22 of 186
PDF/HTML Page 34 of 198
single page version

टीकाः– ‘‘एतत्पदं अनुसरतां मुनीनां वृत्तिः अलौकिकी भवति’’– आ रत्नत्रयरूप पदवीने प्राप्त थयेला जे महामुनिओ छे तेमनी रीत लोकरीतिने मळती आवती नथी. ते ज कहीए छीए. लोको पापक्रियामां आसक्त थई प्रवर्ते छे, मुनि पापक्रियानुं चिंतवन पण करता नथी. लोको अनेक प्रकारे शरीरनी संभाळ राखे, पोषे छे, मुनि अनेक प्रकारे शरीरने परीषह उपजावे छे अने परीषह सहे छे. वळी लोकोने ईन्द्रियविषयो बहु मीठा लागे छे, मुनि विषयोने हळाहळ झेर समान जाणे छे.

लोकोने पोतानी पासे माणसोनो संग–समुदाय गमे छे. मुनि बीजानो पण संयोग थतां खेद माने छे. लोकोने वस्ती गमे छे, मुनिने निर्जन स्थान सारुं लागे छे. कयांसुधी कहीए? महा मुनीश्वरोनी रीत लोकोनी रीतथी ऊलटा रूपे होय छे. केवी छे मुनीश्वरोनी प्रवृत्ति? ‘करम्बिताचार नित्यनिरभिमुखा’– पापक्रिया सहितना आचारथी पराङ्मुख छे. जेम श्रावकनो आचार पापक्रियाथी मिश्रित छे, तेम मुनीश्वरोना आचारमां पापनो मेळाप नथी अथवा करंबित एटले कर्मजनित भावमिश्रित जे आचरण तेमां पराङ्मुख छे, केवळ निजस्वरूपने अनुभवे छे ते माटे एकांत विरतिरूपा एटले सर्वथा पापक्रियाना त्यागस्वरूप छे अथवा एक निजस्वभावना अनुभव वडे सर्वथा परद्रव्योथी उदासीन स्वरूप छे. रत्नत्रयना धारक महामुनिओनी एवी प्रवृत्ति छे. १६.

उपदेश देवानो क्रम

बहुशः समस्तविरतिं प्रदर्शितां यो न जातु गृह्णाति।
तस्यैक
देशविरतिः कथनीयानेन बीजेन।। १७।।

अन्वयार्थः– [यः] जे जीव [बहुशः] वारंवार [प्रदर्शितां] बतावेली [समस्तविरतिं] सकळ पापरहित मुनिवृत्तिने [जातु] कदाच [न गृह्णाति] ग्रहण न करे तो [तस्य] तेने [एकदेशविरतिः] एकदेश पापक्रिया रहित गृहस्थाचार [अनेन बीजेन] हेतुथी [कथनीया] समजावे अर्थात् कहे.

टीकाः– ‘‘यउ बहुशः प्रदर्शितां समस्तविरतिं न जातु गृह्णाति तस्य एकदेशविरतिः अनेन बीजेन कथनीया।’’– जे जीव वारंवार उपदेश वडे बताववामां आवेल सकल पापरहित महाव्रतनी क्रिया तेने कदाच ग्रहण न करे तो ते जीवने एकदेश पापरहित श्रावक–क्रिया आ रीते कहेवी.


Page 23 of 186
PDF/HTML Page 35 of 198
single page version

भावार्थः– जे जीव उपदेश सांभळवानी रुचिवाळा होय तेमने पहेलां वारंवार मुनिधर्मनो उपदेश आपवो. जो ते जीव मुनिपदवी अंगीकार न करे तो पछी तेने श्रावक धर्मनो उपदेश आपवो. १७.

श्रावकधर्मनुं व्याख्यान आगळ जे रीत करे छे ते रीतथी उपदेश न लागे तो आ अनुक्रम छोडीने जे उपदेशदाता उपदेश आपे छे तेनी निंदा करे छे–

यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः।
तस्य
भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम्।। १८।।

अन्वयार्थः– [यः] जे [अल्पमति] तुच्छ बुद्धि उपदेशक [यतिधर्मं] मुनिधर्मनुं [अकथयन्] कथन न करतां [गृहस्थधर्मं] श्रावकधर्मनो [उपदिशति] उपदेश आपे छे [तस्य] ते उपदेशकने [भगवत्प्रवचने] भगवानना सिद्धान्तमां [निग्रहस्थानं] दंड देवानुं स्थान [प्रदर्शितं] बताव्युं छे.

टीकाः– ‘‘यः अल्पमतिः यतिधर्मः अकथयन् गृहस्थधर्मं उपदिशति तस्य भगवत्प्रवचने निग्रहस्थानं प्रदर्शितम्’’– तुच्छ बुद्धिवाळा उपदेशक मुनिधर्मनो उपदेश न आपतां, गृहस्थधर्मनो उपदेश आपे छे, तेने भगवानना सिद्धान्तमां दंडनुं स्थान कह्युं छे.

भावार्थः– जे उपदेशक पहेलां यतीश्वरना धर्मनो तो उपदेश न संभळावे पण पहेलां ज श्रावकधर्मनुं व्याख्यान करे तो ते उपदेशकने जिनमतमां प्रायश्चितरूप दंड योग्य कह्यो छे. १८.

आगळ एने दंड आपवानुं कारण कहे छेः–

अक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोऽतिदूरमपि शिष्यः।
अपदेऽपि सम्प्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना।। १९।।

अन्वयार्थः– [यतः] जे कारणे [तेन] ते [दुर्मतिना] दुर्बुद्धिना [अक्रमकथनेन] क्रमभंग कथनरूप उपदेश करवाथी [अतिदुरं] अत्यंत दूर–वधारे [प्रोत्सहमानोऽपि] उत्साहवाळो होवा छतां पण [शिष्यः] शिष्य [अपदे अपि] तुच्छ स्थानमां ज [संप्रतृप्तः] संतुष्ट थईने [प्रतारितः भवति] ठगाय छे.


Page 24 of 186
PDF/HTML Page 36 of 198
single page version

टीकाः– ‘‘यतः तेन दुर्मतिना अक्रमकथनेन शिष्यः प्रतारितो भवति।’’– जे कारणे ते मंदबुद्धि उपदेशदाताए अनुक्रम छोडीने कथन करवाथी सांभळनार शिष्य छेतरायो छे. पहेलां श्रावकधर्मनो उपदेश संभळावीने शिष्यने छेतरवामां आव्यो छे. तेनुं कारण कहे छे. केवो छे शिष्य? ‘‘अतिदूरं प्रोत्साहमानो अपि अपदेऽपि संप्रतृप्तः’’– अत्यंत दूर सुधी जवा माटे उत्साहित थयो हतो तोपण ते अपद जे तुच्छ स्थान तेमां संतुष्ट थयो छे. ए शिष्यना अंतरंगमां एटलो उत्साह थयो हतो के जो पहेलां मुनिधर्म सांभळ्‌यो होत तो मुनिपदवी ज अंगीकार करत. परन्तु उपदेशदाताए तेने प्रथम ज श्रावकधर्म संभळाव्यो. तेणे ए ज धर्म अंगीकार कर्यो. ते माटे मुनिधर्म छेतर्यो एटले उपदेशदाताने तेनो दंड आपवो योग्य छे. १९.


Page 25 of 186
PDF/HTML Page 37 of 198
single page version

श्रावकधर्म व्याख्यान

जे जीव मुनिधर्मनो भार उपाडी न शके तेना निमित्ते आचार्य आगळ श्रावकधर्मनुं व्याख्यान करे छे. त्यां श्रावकने धर्मसाधनमां शुं कहेवुं तेनुं व्याख्यान करे छे.

एवं सम्यग्दर्शनबोधचरित्रत्रयात्मको नित्यम्।
तस्यापि मोक्षमार्गो भवति निषेव्यो यथाशक्ति।। २०।।

अन्वयार्थः– [एवं] आ रीते [तस्यापि] ते गृहस्थने पण [यथाशक्ति] पोतानी शक्ति अनुसार [सम्यग्दर्शनबोधचरित्रत्रयात्मकः] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र ए त्रण भेदरूप [मोक्षमार्गः] मुक्तिनो मार्ग [नित्यं] सर्वदा [निषेव्यः] सेवन करवा योग्य [भवति] थाय छे.

टीकाः– ‘‘तस्य अपि यथाशिक्त एवं मोक्षमार्गः निषेव्य भवति’’– ते गृहस्थने पण पोतानी शक्ति अनुसार आगळ जेनुं वर्णन करे छे ते प्रकारे मोक्षमार्ग सेवन करवा योग्य छे.

भावार्थः– मुनिने तो मोक्षमार्गनुं सेवन संपूर्णपणे होय छे अने गृहस्थे पण पोतानी शक्ति प्रमाणे मोक्षमार्गनुं थोडुंघणुं सेवन करवुं. कारण के धर्मनुं बीजुं कोई अंग नथी के जेनुं सेवन करवाथी पोतानुं भलुं थाय. केवो छे मोक्षमार्ग? ‘‘सम्यग्दर्शनबोधचरित्रत्रयात्मकः’ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रनुं त्रिक जेनुं स्वरूप छे. जुदा जुदा त्रणे मोक्षमार्ग नथी. त्रणे मळीने मोक्षमार्ग छे. २०.

आ त्रणेमां प्रथम कोने ग्रहण करवुं ते कहे छेः–

तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन।
तस्मिन्
सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरित्रं च।। २१।।

अन्वयार्थः– [तत्रादौ] ए त्रणेमां प्रथम [अखिलयत्नेन] समस्त प्रकारे सावधानतारूप यत्नथी [सम्यक्त्वं] सम्यग्दर्शन [समुपाश्रयणीयम्] सारी रीते अंगीकार करवुं जोईए. [यतः] केम के [तस्मिन् सति एव] ते होतां ज [ज्ञानं] सम्यग्ज्ञान [च] अने [चारित्रं] सम्यक्चारित्र [भवति] थाय छे.


Page 26 of 186
PDF/HTML Page 38 of 198
single page version

टीकाः– ‘‘तत्र आदौ अखिलयत्नेन सम्यक्त्वं समुपाश्रणीयम्’’– ए त्रणेमां पहेलां समस्त उपायो वडे जो बने तो सम्यग्दर्शन अंगीकार करवुं. ए प्राप्त थतां अवश्य मोक्षपद प्राप्त थाय छे. एना विना सर्वथा मोक्ष थतो नथी. वळी ते स्वरूपप्राप्तिनुं अद्वितीय कारण छे. माटे एने अंगीकार करवामां प्रमादी न रहेवुं. मरीने पण आ कार्यजेम बने तेम करवुं वधारे शुं कहीए? आ जीवनुं भलुं थवानो उपाय एक सम्यग्दर्शन समान कोई नथी. माटे तेने अवश्य अंगीकार करवुं. पहेलां एने अंगीकार करवानुं कारण शुं छे ते कहे छे. ‘‘यतः तस्मिन् सति एव ज्ञानं च चरित्रं भवति’’– ते सम्यग्दर्शन थतां ज सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र थाय छे.

भावार्थः– सम्यकत्व विना अगियार अंग सुधी भणे तोपण ते अज्ञान नाम पामे. वळी महाव्रतादिकनुं साधन करी अन्तिम ग्रैवेयक सुधीना बंधयोग्य विशुद्ध परिणाम करे तोपण असंयम नाम पामे. पण सम्यकत्व सहित जे कांई जाणपणुं होय ते बधुं सम्यग्ज्ञान नाम पामे अने जो थोडा पण त्यागरूप प्रवर्ते तो सम्यक्चारित्र नाम पामे. जेम अंकसहित शून्य होय तो प्रमाणमां आवे, अंक विना शून्य शून्य ज छे, तेम सम्यकत्व विना ज्ञान अने चारित्र व्यर्थ ज छे. माटे पहेलां सम्यकत्व अंगीकार करी पछी बीजुं साधन करवुं. २१.

आम जो सम्यकत्वनुं लक्षण जाणीए तो तेने अंगीकार करीए. माटे ते सम्यकत्वनुं लक्षण कहे छेः–

जीवाजीवादीनां तत्त्वाथरनां सदैव कर्त्तव्यम्।
श्रद्धानं विपरीताभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत्।। २२।।

अन्वयार्थः– [जीवाजीवादीनां] जीव, अजीवादि [तत्त्वाथरनां] तत्त्वार्थोनुं [विपरिताभिनिवेशविविक्तं] विपरीत अभिनिवेश (आग्रह) रहित अर्थात् बीजाने बीजापणे समजवारूप मिथ्याज्ञानथी रहित [श्रद्धानं] श्रद्धान अर्थात् द्रढ विश्वास [सदैव] निरंतर ज [कर्त्तव्यं] करवुं जोईए. कारण के [तत्] ते श्रद्धान ज [आत्मरूपं] आत्मानुं स्वरूप छे.

टीकाः– ‘‘जीवाजीवादीनां तत्त्वाथरनां श्रद्धानं सदैव कर्त्तव्यं’’– जीव–अजीव आदि जे तत्त्वार्थतत्त्व एटले जेनो जेवो कांई निजभाव छे तेवो ज होवो ते. ते तत्त्वथी संयुक्त जे अर्थ एटले पदार्थ ते तत्त्वार्थ–तेनुं श्रद्धान एटले आम ज छे, बीजी


Page 27 of 186
PDF/HTML Page 39 of 198
single page version

रीत नथी एवो प्रतीतभाव ते सदैव कर्तव्य छे. तेवुं श्रद्धान करवा योग्य छे? ‘विपरीताभिनिवेशविविक्तं’– एटले बीजाने बीजारूपे मानवारूप मिथ्यात्वथी रहित श्रद्धान करवुं. ‘तत् आत्मरूपं अस्ति’– ते श्रद्धान आत्मानुं स्वरूप छे. जे श्रद्धान क्षायिक सम्यग्द्रष्टिने ऊपजे छे ते ज सिद्ध अवस्था सुधी रहे छे. तेथी उपाधिभाव नथी, आत्मानो निज भाव छे.

भावार्थः– तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शननुं लक्षण छे. ते तत्त्वार्थश्रद्धान बे प्रकारे छे. एक सामान्यरूप, एक विशेषरूप. जे परभावोथी भिन्न पोताना चैतन्यस्वरूपने पोतारूपे श्रद्धे छे ते सामान्य तत्त्वार्थ श्रद्धान कहीए. आ श्रद्धान तो नारकी, तिर्यंचादि सर्व सम्यग्द्रष्टि जीवोने होय छे. अने जीव–अजीवादि सात तत्त्वोना विशेषणो (भेदो) जाणी श्रद्धान करे ते विशेष तत्त्वार्थश्रद्धान कहीए. आ श्रद्धान मनुष्य, देवादि विशेष बुद्धिवान जीवोने होय छे. परंतु राजमार्ग (–मुख्यमार्ग) नी अपेक्षाए सात तत्त्वोने जाणवां ते सम्यक्त्वनुं–सम्यक्श्रद्धाननुं कारण छे. कारण के जो तत्त्वोने जाणे नहि तो श्रद्धान शानुं करे? तेथी सात तत्त्वोनुं थोडुंक वर्णन करीए छीए.

१. जीवतत्त्वः प्रथम ज जीवतत्त्व चेतना लक्षणथी विराजमान ते शुद्ध, अशुद्ध अने मिश्रना भेदथी त्रण प्रकारे छे. त्यां (१) शुद्ध जीवतत्त्वजे जीवोने सर्व गुण–पर्याय पोताना निजभावरूप परिणमे छे अर्थात् जेमना केवळज्ञानादि गुण शुद्ध परिणति–पर्यायथी बिराजमान थया तेने शुद्ध जीव कहीए.

(२) अशुद्ध जीवतत्त्व जे जीवोना सर्व गुण–पर्याय विकारभावने प्राप्त थई रह्या छे, ज्ञानादि गुण आवरणथी आच्छादित थई रह्या छे, जे थोडाघणा प्रगटरूप छे ते विपरीतपणे परिणमी रह्या छे अने जेनी परिणति रागादिरूप परिणमी रही छे ते मिथ्याद्रष्टि जीवोने अशुद्ध जीव कहीए.

(३) मिश्रजीव– जे जीवना सम्यक्त्वादि गुणोनी केटलीक शक्ति शुद्ध थई छे अथवा तेमां पण कांईक मलिनता रही गई छे. अर्थात् कोई ज्ञानादि गुणोनी केटलीक शक्ति शुद्ध थई छे, बीजी बधी अशुद्ध रही छे, केटलाक गुण अशुद्ध थई रह्या छे, एवी तो गुणोनी दशा थई छे अने जेनी परिणति शुद्धाशुद्धरूप परिणमे छे ते जीव शुद्धाशुद्धस्वरूप मिश्र कहीए. आ रीते जीव नामनुं तत्त्व त्रण प्रकारे छे.

२. अजीवतत्त्व जे चेतनागुण रहित ते पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश अने काळरूप (–कालाणुरूप) पांच प्रकारे छे. तेमां (१) पुद्गलद्रव्य–स्पर्श, रस, गंध,


Page 28 of 186
PDF/HTML Page 40 of 198
single page version

वर्णसंयुक्त, अणु अने स्कंधना भेदथी बे प्रकारे छे. तेमां जे एकाकी–अविभागी परमाणु तेने अणु कहीए. अनेक अणु मळीने स्कंध थाय छे तेने स्कंध कहीए. अथवा पुद्गलद्रव्यना छ भेद छेः–

१–स्थूलस्थूल– काष्ठ–पाषण आदि जे छेदाया भेदाया पछी मळे नहि तेने स्थूलस्थूल पुद्गल कहीए. २–स्थूल–जे जळ, दूध, तेल आदि द्रव पदार्थोनी जेम छिन्नभिन्न थवा छतां फरी तुरत ज मळी शके तेने स्थूल कहीए. ३–स्थुलसूक्ष्म–आताप, चांदनी, अंधकारादि आंखथी देखाय पण पकडाय नहि तेने स्थूलसूक्ष्म कहीए. ४–सूक्ष्मस्थूल– जे शब्द गंधादि आंखथी न देखाय पण अन्य ईन्द्रियथी जणाय तेने सूक्ष्मस्थूल कहीए, प–सूक्ष्म–जे घणा परमाणुओनो स्कंध छे पण ईन्द्रियगम्य नथी तेने सूक्ष्म कहीए. ६–सूक्ष्मसूक्ष्म– अति सूक्ष्म स्कंध अथवा परमाणुने सूक्ष्म–सूक्ष्म कहीए. आ रीते आ लोकमां घणो फेलावो आ पुद्गल द्रव्यनो छे.

(२) धर्मद्रव्य– जीव अने पुद्गलोने गति करवामां सहकारीगुणसंयुक्त लोकप्रमाण एक द्रव्य छे.

(३) अधर्मद्रव्य– जीव अने पुद्गलने स्थिति करवामां सहकारीगुणसंयुक्त लोकप्रमाण एक द्रव्य छे.

(४)आकाशद्रव्य– सर्व द्रव्योने अवगाहनहेतुत्वलक्षणसंयुक्त लोकालोकप्रमाण एक द्रव्य छे. ज्यां सर्व द्रव्यो प्राप्त थाय तेने लोक अने ज्यां केवळ एक आकाश ज छे तेने अलोक कहीए. बन्नेनी सत्ता जुदी नथी तेथी एक द्रव्य छे.

(प) काळद्रव्य– सर्व द्रव्योने वर्त्तनाहेतुत्वलक्षणसंयुक्त लोकना एकेक प्रदेश उपर स्थित एकेक प्रदेशमात्र असंख्यात द्रव्य छे. तेना परिणामना निमित्ते समय, आवली आदि व्यवहार काळ छे. आ रीते जीवद्रव्य सहित छ द्रव्य जाणवा. काळने बहु प्रदेश नथी तेथी काळ सिवाय पंचास्तिकाय कहीए. एमां जीवतत्त्व अने पुद्गल–अजीवतत्त्वना परस्पर संबंधथी अन्य पांच तत्त्व थाय छे.

३. आस्रवतत्त्व जीवना रागादि परिणामथी योग द्वारा आवता पुद्गलना आगमनने आस्रवतत्त्व कहीए.

४. बंधतत्त्वजीवने अशुद्धताना निमित्ते आवेलां पुद्गलोनुं ज्ञानावरणादिरूप पोतानी स्थिति अने रससंयुक्त प्रदेशो साथे सबंधरूप थवुं ते बंधतत्त्व कहीए.