Purusharth Siddhi Upay-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 23-44 ; Samyak-Gnan Adhikar; Samyak-Charitra Vyakhyan; Ahimsa Vrat.

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प. संवरतत्त्वजीवना रागादि परिणामना अभावथी पुद्गलोनुं न आववुं तेने संवर कहीए.

६. निर्जरातत्त्व जीवना शुद्धोपयोगना बळथी पूर्वे बंधायेलां कर्मोनो एकदेश नाश थवो तेने संवरपूर्वक निर्जरा कहीए. कर्मफळने भोगवीने निर्जरा करवामां आवे ते निर्जरा मोक्षने आपे नहि.

७. मोक्षतत्त्व सर्वथा कर्मनो नाश थतां जीवनो निजभाव प्रगट थवो तेने मोक्ष कहीए. आ सात तत्त्वार्थ जाणवां. पुण्य–पाप आस्रवादिनां भेद छे, माटे जुदां कह्यां नथी आ रीत आ तत्त्वार्थनुं श्रद्धान ते सम्यग्दर्शननुं लक्षण कहीए.

प्रश्नः– आ लक्षणमां अव्याप्तिदोष आवे छे. केवी रीत? जे समये सम्यग्द्रष्टि विषय– कषायनी तीव्रतारूपे परिणमे छे त्यारे एवुं श्रद्धान कयां होय छे? लक्षण तो एवुं कहेवुं जोईए के सर्व लक्ष्यमां ते सदाकाळ होय.

उत्तरः– जीवना बे भाव छे. एक श्रद्धानरूप छे. बीजो परिणमनरूप छे. श्रद्धानरूप सम्यक्त्वनुं लक्षण छे, परिणामरूप चारित्रनुं लक्षण छे. सम्यग्दष्टि विषयकषायना परिणमनरूप थयो छे, श्रद्धानमां प्रतीति यथावत् छे. जेम नोकर शेठनो चाकर छे. तेना अंतरंगमां एवी प्रतीति छे के आ बधुं शेठनुं कार्य छे, मारुं घर जुदुं ज छे. परिणामो वडे तो शेठना काममां प्रवर्ते छे, ते शेठना कामने ‘मारुं मारुं’ कहे छे, नफो के खोट जाय त्यां हर्ष–शोक पण करे छे. ते प्रतीतिने वारंवार संभारतो पण नथी. पण ज्यारे ते शेठनो अने पोतानो हिसाब करे छे त्यारे जेवी प्रतीति अंतरंगमां हती ते प्रगट करे छे. शेठना कार्यमां प्रवर्ततां ते शक्ति प्रतीतिरूप रहे छे. कदाचित् जो ते शेठनुं धन चोरीने तेने पोतानुं जाणे तो तेने अपराधी कहीए. वळी ते नोकर शेठनी नोकरीने पराधीन दुःखदायक जाणे छे. परंतु पोताना धनना बळ विना आजीविकावश तेना काममां प्रवर्ते छे, तेम ज्ञानी कर्मना उदयने भोगवे छे.

एना अंतरंगमां एवी प्रतीत छे के आ बधो देखावनो ठाठ छे, मारुं स्वरूप जुदुं ज छे. परिणामो वडे औदयिक भावोमां परिणमे छे. उदयना संबंधने कारणे ‘मारुं–मारुं’ पण कहे छे, ईष्ट–अनिष्टमां हर्ष–विवाद पण करे छे. ते पोतानी प्रतीतिने वारंवार संभारतो पण नथी. पण जे वखते ते कर्म अने पोताना स्वरूपनो विचार करे त्यारे जेवी प्रतीति अंतरंगमां हती तेवी ज प्रगट करे छे. वळी ते


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कर्मना उदयमां ते प्रतीति शक्तिरूप रहे छे ते कदीपण ते कर्मना उदयने श्रद्धानमां पोतानो जाणे तो तेने मिथ्यात्वी कहीए.

वळी ते ज्ञानी कर्मना उदयने पराधीन दुःख जाणे छे. परंतु पोताना शुद्धोपयोगना बळ विना पूर्वबद्ध कर्मने वश थई कर्मना औदयिक भावोमां प्रवर्ते छे. आ रीते सम्यग्द्रष्टिने तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यग्दर्शन परिणमनरूप तो निर्बाधपणे निरन्तर ज छे, पण ज्ञानोपयोग अपेक्षाथी जोवामां आवे तो सामान्यरूप अथवा विशेषरूप, शक्ति अवस्थामां के व्यक्त अवस्थामां सदाकाळ होय छे.

प्रश्नः– भले, आ लक्षणमां अव्याप्ति दोष तो नथी, पण अतिव्याप्ति दोष तो लागे छे? कारण के द्रव्यलिंगी मुनि जिनप्रणीत सात तत्त्वोने ज माने छे, अन्यमतना कल्पित तत्त्वोने मानता नथी. लक्षण तो एवुं कहेवुं जोईए के लक्ष्य विना बीजा स्थानमां न होय.

उत्तरः– द्रव्यलिंगी मुनि जिनप्रणीत तत्त्वने ज माने छे, परंतु विपरीत अभिनिवेश सहित माने छे, शरीराश्रित क्रियाकांडने पोताना जाणे छे, तेथी अजीवतत्त्वमां जीवतत्त्व मान्युं. वळी आस्रवबंधरूप शील, संयमादिकरूप परिणाम तेने संवर–निर्जरारूप मानी मोक्षनुं कारण माने छे. द्रव्यलिंगी पापथी तो विरक्त थयो छे पण पुण्यमां उपादेयबुद्धिथी परिणम्यो छे माटे तत्त्वार्थश्रद्धान नथी. आ रीते (विपरीत अभिप्राय रहित) तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन अंगीकार करवुं. २२.

सम्यक्त्वना आठ अंगोनुं वर्णन.

१–निःशंकित अंग

सकलमनेकान्तात्मकमिदमुक्तं वस्तुजातमखिलज्ञैः।
किमु सत्यमसत्यं वा न जातु
शङ्केति कर्तव्या।। २३।।

अन्वयार्थः– [अखिलज्ञैः] सर्वज्ञदेवे [उक्तं] कहेलो [इदं][सकलं] समस्त [वस्तुजातं] वस्तुसमूह [अनेकान्तात्मकं] अनेक स्वभावरूप छे ते [किमु सत्यं] शुं सत्य छे? [वा असत्यं] अथवा जूठ छे [इति] एवी [शंका] शंका [जातु] कदीपण [न] [कर्तव्या] करवी जोईए. _________________________________________________________________ १. शील शुभभावरूप व्यवहार ब्रह्मचर्य.


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टीकाः– ‘‘अखिलज्ञैः इदं सकलं वस्तुजातं अनेकान्तात्मकं उक्तं किमु सत्यं वा असत्यं वा। जातु इति शंका न कर्तव्या’’– सर्वज्ञदेवे आ समस्त जीवादि पदार्थोनो समूह अनेकान्तात्मक एटले अनेक स्वभावसहित कह्यो छे ते शुं साचुं छे के जूठुं छे–कदी एवी शंका न करवी.

भावार्थः– शंका नाम संशयनुं छे. जिनप्रणीत पदार्थोमां संदेह न करवो तेने निःशंकित नामनुं अंग कहीए. २३.

२– निःकांक्षित अंग

इह जन्मनि विभवादीन्यमुत्र चिक्रित्वकेशवत्वादीन्।
एकान्तवाददूषितपरसमयानपि च
नाकांक्षेत्।। २४।।

अन्वयार्थः– [इह] [जन्मनि] लोकमां [विभवादीनि] ऐश्वर्य, संपदा आदि, [अमुत्र] परलोकमां [चिक्रत्वकेशवत्वादीन्] चक्रवर्ती, नारायणआदि पदोने [च] अने [एकान्तवाददूषितपरसमयान्] एकान्तवादथी दूषित अन्य धर्मोने [अपि] पण [न आकांक्षेत्] चाहे नहि.

टीकाः– ‘‘इह जन्मनि विभवादीनि न आकांक्षेत्’’ सम्यग्द्रष्टि आ लोकमां तो संपदा वगेरे अने पुत्रादिने चाहे नहि. ‘च अमुत्र चक्रित्व केशवत्वादीन् न आकांक्षेत्’– वळी परलोकमां चक्रवर्तीपद, नारायणपद अने आदि शब्दथी ईन्द्रादि पदने चाहता नथी. ‘एकान्तवाददूषितपरसमयान् अपि न आकांक्षेत्– वस्तुना एकान्तस्वभावनुं कथन करवाने लीधे दूषण सहित जे अन्यमत तेने पण चाहता नथी.

भावार्थः– निःकांक्षित नाम वांच्छा रहितनुं छे. कारण के आ लोक संबंधी पुण्यना फळने चाहता नथी तेथी सम्यक्त्वी पुण्यना फळरूप ईन्द्रियना विषयोने _________________________________________________________________

१. स्वामी समंतभद्राचार्यकृत रत्नकरंडश्रावकाचार गा ११ मां कह्युं छे के– तत्त्व आ ज छे, आवुं ज छे, अन्य नथी अथवा बीजी रीते नथी. एवी निष्कम्प तलवारनी तीक्ष्णधार समान सन्मार्गमां संशय रहित रुचि–विश्वासने निःशंकित अंग कहे छे.

२. निःकांक्षा (विषयोनी–विषयना साधनोनी अभिलाषा–आशाने कांक्षा कहे छे) अर्थात् कर्मने वश थईने, अंतवाळा, उदयमां दुःखमिश्रित अने पापना बीजरूप सुखमां अनित्यतानुं श्रद्धान थवुं ते निःकांक्षित अंग छे. (रत्न श्रा गा १२)


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आकुळताना निमित्त होवाथी दुःखरूप ज माने छे. वळी अन्यमती नाना प्रकारनी एकान्तरूप कल्पना करे छे तेने भला जाणी चाहता नथी. २४.

३. निर्विचिकित्सा अंग

क्षुत्तृष्णाशीतोष्णप्रभृतिषु नानाविधेषु भावेषु।
द्रव्येषु पुरुषादिषु विचिकित्सा नैव करणीया।। २५।।

अन्वयार्थः– [क्षुत्तृष्णाशीतोष्णप्रभृतिषु] भूख, तरस, ठंडी, गरमी वगेरे [नानाविधेषु] नाना प्रकारना [भावेषु] भावोमां अने [पुरीषादिषु] विष्टा आदि [द्रव्येषु] पदार्थोमां [विचिकित्सा] ग्लानि [नैव][करणीया] करवी जोईए.

टीकाः– क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण वगेरे नाना प्रकारना दुःखदायक पर्यायो अने अपवित्र विष्टा आदि पदार्थोमां ग्लानि न करवी.

भावार्थः– विचिकित्सा नाम अणगमानुं छे, अथवा ग्लानिनुं छे. तेनाथी रहित ते निर्विचिकित्सा. पापना उदयथी दुःखदायक भावनो संयोग थतां उद्वेगरूप न थवुं, कारण के उदयाधीन कार्य पोताने वश नथी. ए दुःखथी अमूर्तिक आत्मानो घात पण नथी. वळी विष्टादि निंद्य वस्तुमां ग्लानिरूप न थवुं कारण के वस्तुनो एवो ज स्वभाव छे. एमां आत्माने शुं? अथवा जे शरीरमां आ आत्मा वसे छे तेमां तो बधी ज वस्तु निंद्य छे. २प.

अमूढद्रष्टि अंग

लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे।
नित्यमपि तत्त्वरुचिना कर्तव्यममूढद्रष्टित्वम्।। २६।।

_________________________________________________________________

१. निर्विचिकित्सा अंग रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रथी पवित्र परन्तु स्वाभाविक अपवित्र शरीरमां (मुनि–धर्मात्माना मलिन शरीरमां) ग्लानि–सूग न करवी पण तेमना गुणोमां प्रीति करवी तेने निर्जुगुप्सा अंग कहे छे (रत्न श्रा गा १३)

२. अमूढत्व दुःखदायक खोटा मार्गो अथवा कुत्सितधर्मोमां अने कुमार्गोमां रहेलां पुरुषोमां (भले ते लौकिकमां प्रख्यात होय) मनथी प्रामाणिक माने नही, कायाथी प्रशंसा अने वचनथी स्तुति न करे तेने अमूढद्रष्टि कहे छे (गा १४)

३. समयाभास यथार्थमां जे पदार्थ तत्त्वार्थ नथी पण भ्रमबुद्धिथी तेवां देखावा लागे, जेमके मिथ्याद्रष्टिओनां बनावेलां शास्त्र यथार्थमां तो शास्त्र नथी ज परन्तु भ्रमथी शास्त्र जेवां भासे छे ते शास्त्राभास–समयाभास छे.


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अन्वयार्थः– [लोके] लोकमां, [शास्त्राभासे] शास्त्राभासमां, [समयाभासे] धर्माभासमां [च] अने [देवाभासे] देवाभासमां [तत्त्वरुचिना] तत्त्वोमां रुचिवाळा सम्यग्द्रष्टि पुरुषे [नित्यमपि] सदाय [अमूढद्रष्टित्वम्] मूढतारहित श्रद्धान [कर्तव्यम्] करवुं जोईए.

टीकाः– ‘‘तत्त्वरुचिना नित्यं अपि अमूढद्रष्टित्वं कर्तव्यम्’’–तत्त्वश्रद्धानवाळा पुरुषे हंमेशा अमूढद्रष्टि थवुं योग्य छे. मूढद्रष्टि यथार्थ ज्ञानरहितनुं नाम छे, ते श्रद्धानवाळा थवुं योग्य नथी. कयां कयां?

लोके लोकमां घणा माणसो विपरीत भावमां प्रवर्तता होय तोपण पोते तेमनी जेम (देखादेखीथी) न प्रवर्तवुं.

शास्त्राभासे शास्त्र जेवा लागता, अन्य वादीओए नीपजावेला ग्रन्थोमां रुचिरूप न प्रवर्तवुं

समयाभासे साचा मत जेवा लागता अन्यमतमां कोई क्रिया भली जेवी देखीने तेमां भलुं जाणीने न प्रवर्तवुं. अथवा समय एटले पदार्थ सरखां लागे तेवां अन्यवादीओए कहेलां कल्पित तत्त्वो तेमां युक्ति जेवुं जोईने सत्यबुद्धि न करवी.

देवताभासे देव जेवा प्रतिभासे एवा, अरिहंत देव सिवाय अन्य देवोमां कांईक चमत्कारादि देखीने विनयरूप न प्रवर्तवुं कार वडे बीजा पण जे गुरु जेवा प्रतिभासे एवा विषय–कषाय वडे लंपटी, वेशधारीओ तेना प्रत्ये विनयरूप न प्रवर्तवुं. ए प्रमाणे यथार्थ ज्ञानथी भ्रष्ट थवाना कारणो तेमां सावधान रहेवुं. २६.

उपगूहन अंग

धर्मोऽभिवर्द्धनीयः सदात्मनो मार्दवादिभावनया।
परदोषनिगूहनमपि
विघेयमुपबृंहणगुणार्थम्।। २७।।

अन्वयार्थः– [उपबृंहणगुणार्थं] उपबृंहण नामना गुण अर्थे [मार्दवादिभावनया] मार्दव, क्षमा, संतोषादि भावनाओ वडे [सदा] निरंतर [आत्मनो धर्मः] पोताना आत्माना धर्मनी अर्थात् शुद्ध स्वभावनी [अभिवर्द्धनीयः] वृद्धि करवी _________________________________________________________________

१. उपगुहनत्व मोक्षमार्ग पोते तो शुद्ध ज छे तेनी अशक्त अने अज्ञानी जीवोना आश्रये थती निंदाने दूर करवी तेने उपगूहन कहे छे [स्वसन्मुखताना बळ वडे शुद्धिनी वृद्धि करवी तेने उपबृंहण अंग कहे छे.] (गा १प रत्न श्रावकाचार)


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जोइए अने [परदोषनिगूहनमपि] बीजाना दोषोने गुप्त राखवा पण [विधेयम्] जोईए. (ए पण कर्तव्य छे.)

टीकाः– ‘‘उपबृंहणं गुणार्थ मार्दवादिभावनया सदा आत्मनः धर्मः अभिवर्द्धनीयः’’। उपबृंहण नामना गुणने माटे मार्दव एटले कोमळ परिणाम अने आदि शब्दथी क्षमा, संतोषादिनी भावना वडे सदा पोताना आत्मानो निज स्वभाव प्रगटपणे वधारवो.‘परदोषनिगूहनमपि विघेयम्।’– अन्य जीवना जे कोई अक्रियारूप दोष होय तेने प्रगट न करवा, दाबी देवा ए पण करवुं.

भावार्थः– उपबृंहण नाम वधारवानुं छे. पोताना आत्मानो धर्म वधारवो. वळी आ धर्मनुं नाम उपगूहन पण कह्युं छे. ते अपेक्षाए दोष ढांकवानुं कह्युं. बीजाना दोष प्रगट करवाथी तेने दुःख ऊपजे छे. २७.

स्थितिकरण अंग

कामक्रोधमदादिषु चलयितुमुदितेषु वर्त्मनो न्यायात्।
श्रुतमात्मनः परस्य च युक्त्या स्थितिकरणमपि कार्यम्।। २८।।

अन्वयार्थः– [कामक्रोधमदादिषु] काम, क्रोध, मद, लोभादि विकार [न्यायात् वर्त्मनः] न्यायमार्गथी अर्थात् धर्ममार्गथी चिलयितुम्] विचलित करवाने माटे [उदितेषु] प्रगट थया होय त्यारे [श्रुतं] शास्त्र अनुसार [आत्मनः परस्य च] पोतानी अने परनी [स्थितिकरणं] स्थिरता [अपि] पण [कार्यम्] करवी जोईए.

टीकाः– ‘‘काम क्रोध मदादिषु न्यायात् वर्त्मनः चलयितुं उदितेषु आत्मनः परस्य च श्रुतं युक्त्या स्थितिकरणं अपि कार्यम्।’’ मैथुनना भाव, क्रोधना, मानना भाव अने आदि शब्दथी लोभादिकना भाव न्यायरूप धर्ममार्गथी भ्रष्ट करनारा छे, माटे ते प्रगट थतां पोताने अने अन्य जीवोने शास्त्र प्रमाणे युक्तिवडे धर्ममां स्थिर करवा ते कार्य पण श्रद्धानवाळाए करवा योग्य छे.

भावार्थः– भ्रष्टने धर्ममां स्थापवो तेनुं नाम स्थितिकरण कहीए. धर्मथी जे भ्रष्ट थाय छे ते काम, क्रोधादिने वश थवाथी थाय छे. तेथी जो एना निमित्ते _________________________________________________________________

१. स्थितिकरणत्व सम्यग्दर्शनथी अने सम्यग्चारित्रथी चलायमान थतां जीवोने धर्मवत्सल विद्वानो द्वारा स्थिरीभूत करवामां आवे तेने स्थितिकरण अंग कहे छे. (गा १६)


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पोताना परिणाम भ्रष्ट थाय तो पोते युक्ति वडे धर्ममां स्थिर थवुं, अन्य जीव भ्रष्ट थाय तो तेने जेम बने तेम धर्ममां द्रढ करवो. २८.

७. वात्सल्य अंग

अनवरतमहिंसायां शिवसुखलक्ष्मीनिबन्धने धर्मे।
सर्वेष्वपि च सधर्मिषु
परमं वात्सल्यमालम्ब्यम्।। २९।।

अन्वयार्थः– [शिवसुखलक्ष्मी निबन्धने] मोक्षसुखरूप संपदाना कारणभूत [धर्मे] धर्ममां [अहिंसायां] अहिंसामां [च] अने [सर्वेष्वपि] बधाय [सधार्मिषु] साधर्मीजनोमां [अनवरतं] सतत [परमं] उत्कृष्ट [वात्सल्यं] वात्सल्य अथवा प्रीतिनुं [आलम्ब्यम्] आलंबन करवुं जोईए.

टीकाः– मोक्षसुखनी संपदाना कारणभूत एवो जे हिंसारहित जिनप्रणीत धर्म तेमां अने ते धर्मसहित एवा बधाय धर्मीओमां उत्कृष्ट वात्सल्य निरंतर राखवुं.

भावार्थः– वात्सल्य गायने वाछरडा प्रत्ये होय तेवी प्रीतिने कहे छे. जेम वाछरडा प्रत्येना प्रेमने लीधे गाय सिंहनी सामे जाय छे–एवा विचारथी के मारुं भक्षण करीने आ वाछरडानुं भलुं थई जाय तो घणुं सारुं. एवी प्रीति धर्ममां अने धर्मात्मा साधर्मीमां जोईए. जे तन, मन, धन, –सर्वस्व खरचीने पोतानी प्रीति पाळे. २९.

८ प्रभावना अंग

आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव।
दान तपोजिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः।। ३०।।

अन्वयार्थः– [सततमेव] निरंतर[रत्नत्रयतेजसा] रत्नत्रयना तेजथी [आत्मा] पोताना आत्माने [प्रभावनीयः] प्रभावनायुक्त करवो जोईए. [च] अने [दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैः] दान, तप, जिनपूजन अने विद्याना अतिशयथी अर्थात् एनी वृद्धि करीने [जिनधर्मः] जैनधर्मनी [प्रभावनीयः] प्रभावना करवी जोईए. _________________________________________________________________

१. वात्सल्य पोताना समूहना धर्मात्मा जीवोनो साचा भावथी कपट रहित, यथायोग्य सत्कार करवो ते.


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टीकाः– ‘‘रत्नत्रयतेजसा सततं एव आत्मा प्रभावनीयः’’– रत्नत्रयना तेजथी निरंतर पोताना आत्माने प्रभावनासंयुक्त करवो जोईए. अने ‘‘दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैः जिनधर्मः प्रभावनीयः’’– वळी दान, तप, जिनपूजा, विद्या, चमत्कारादि वडे जैनधर्मने प्रभावनासंयुक्त करवो.

भावार्थः– प्रभावना एटले अत्यंतपणे प्रगट करवुं. पोताना आत्मानो अतिशय तो रत्नत्रयनो प्रताप वधवाथी प्रगट थाय छे. अने जैनधर्मनो अतिशय घणां दान–दयावडे उग्र तप करीने, खूब धन खर्ची भगवाननी पूजा करावीने, शास्त्राभ्यास करीने तथा निर्दोष देवादिना चमत्कारवडे (जैनधर्मनी महिमा) प्रगट थाय छे, तेथी आवो अतिशय प्रगट करवो. आ रीते सम्यकत्वनां आठ अंग कह्यां ते कोई सम्यग्द्रष्टिने पूरेपरां होय छे, कोईने थोडा होय छे, कोईने गौणपणे होय छे, कोईने मुख्यरूपे होय छे. परंतु सम्यकत्वनी शोभा तो त्यारे ज थाय ज्यारे ए आठे अंग संपूर्ण मुख्यपणे, प्रगट प्रत्यक्ष भासे. आ रीते सम्यकत्व अंगीकार कर्या पछी धर्मी गृहस्थे शुं करवुं ते आगळ कहीए छीए. ३०.

आ प्रमाणे श्रीमद् अमृतचंद्रसूरि विरचित पुरुषार्थसिद्धि उपाय जेनुं बीजुं नाम प्रवचनरहस्य कोष छे तेमां सम्यग्दर्शन वर्णन नामे प्रथम अधिकार. _________________________________________________________________

१. प्रभावना अज्ञान–अंधकारनो फेलाव तेने जे रीते थई शके ते रीते दूर करीने जिनशासननां माहात्म्यनो प्रकाश करवो ते प्रभावना छे. (रत्न. श्रावकाचार गा. १८)


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इत्याश्रितसम्यक्त्वैः सम्यग्ज्ञानं निरुप्य यत्नेन।
आम्नाययुक्तियोगैः समुपास्यं नित्यमात्महितैः।। ३१।।

पृथगाराधनमिष्टं दर्शनसहभाविनोऽपि बोधस्य।
लक्षणभेदेन यतो नानात्वं संभवत्यनयोः।। ३२।।

अन्वयार्थः– [इति] ए रीते [आश्रितसम्यक्त्वैः] जेमणे सम्यकत्वनो आश्रय लीधो छे तेवा [आत्महितैः] आत्माना हितकारी पुरुषोए [नित्यं] सर्वदा [आम्नाययुक्तियोगैः] जिनागमनी परंपरा अने युक्ति अर्थात् प्रमाण नयना अनुयोगवडे [निरुप्य] विचारीने [यत्नेन] प्रयत्नपूर्वक [सम्यग्ज्ञानं] सम्यग्ज्ञाननुं [समुपास्यं] सारी रीते सेवन करवुं योग्य छे. [दर्शनसहभाविनोऽपि] सम्यग्दर्शननी साथे उत्पन्न थवा छतां पण [बोधस्य] सम्यग्ज्ञाननुं [पृथगाराधनं] जुदुं ज आराधन करवुं [इष्टं] कल्याणकारी छे. [यतः] कारण के [अनयोः] आ बन्नेमां अर्थात् सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञानमां [लक्षणभेदेन] लक्षणना भेदथी [नानात्वं] भिन्नता [संभवति] संभवे छे.

टीकाः– ‘‘इत्याश्रित सम्यक्त्वैः आत्महितै च यत्नेन सम्यग्ज्ञानं समुपास्यम्’’– रीते जेमणे सम्यकत्व अंगीकार कर्युं एवा पोताना आत्मानुं हित करनार धर्मात्मा जीवोए जे– ते उपाये सम्यग्ज्ञान सेववुं योग्य छे.

भावार्थः– सम्यकत्वने अंगीकार कर्या पछी सम्यग्ज्ञान ने अंगीकार करवुं. किं कृत्य– केवी रीते सेववुं? ‘‘आम्नाययुक्तियोगैः निरुप्य’’ आम्नाय एटले जिनागमनी परंपरा अने युक्ति एटले प्रमाण– नयना अनुयोगथी सारी रीते ते सम्यग्ज्ञाननो विचार–निर्णय करीने तेनुं सेवन करवुं.

भावार्थः– जे पदार्थनुं स्वरूप जिनागमनी परंपरा साथे मळतुं आवे तेने प्रमाण– नयवडे पोताना उपयोगमां बराबर गोठवी, यथार्थ जाणे तेनुं नाम सम्यग्ज्ञाननुं सेववुं. ते प्रमाण–नयनुं स्वरूप थोडुं लखीए छीए.


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प्रमाण–नयनुं संक्षेप स्वरूप

प्रमाण नाम सम्यग्ज्ञाननुं छे. ते प्रत्यक्ष अने परोक्षना भेदथी बे प्रकारे छे. त्यां प्रत्यक्षना बे भेद छे. जे ज्ञान केवळ आत्माने ज आधीन थई जेटलो पोतानो विषय छे तेने विशदताथी स्पष्ट जाणे तेने पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहीए. तेना पण बे भेद छे. अविधज्ञान, मनःपर्ययज्ञान तो एकदेश प्रत्यक्ष छे, केवळज्ञान सर्वप्रत्यक्ष छे वळी जे नेत्रादि ईन्द्रियो द्वारा वर्णादिकने साक्षात् ग्रहण करे अर्थात् जाणे तेने सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहीए. परमार्थथी आ जाणवुं परोक्ष ज छे, कारण के स्पष्ट जाणपणुं नथी. तेनुं उदाहरणः– जेम आंख वडे कोई वस्तुने सफेद जाणी, तेमां मलिनतानुं पण मिश्रण छे. अमुक अंश श्वेत छे अने अमुक मलिन छे एम आने स्पष्ट प्रतिभासतुं नथी तेथी एने व्यवहारमात्र प्रत्यक्ष छे परंतु आचार्य परोक्ष ज कहे छे. मतिज्ञान, श्रुतज्ञानथी जे जाणवुं थाय ते बधुं परोक्ष नाम पामे छे.

परोक्ष प्रमाण– जे ज्ञान पोताना विषयने स्पष्ट न जाणे तेने परोक्ष प्रमाण कहीए. तेना पांच भेद छे. १. स्मृति, २. प्रत्यभिज्ञान, ३. तर्क, ४.अनुमान, प. आगम. आ पांच भेद जाणवा.

१. स्मृति– पूर्वे जे पदार्थने जाण्यो हतो तेने याद करीने काळांतरमां जे जाणीए तेने स्मृति कहीए छीए.

२. प्रत्यभिज्ञान– जेम पहेलां कोई पुरुषने जोयो हतो पछी तेने याद कर्यो के आ ते ज पुरुष छे जेने में पहेलां जोयो हतो. जे पहेलांनी वात याद करीने प्रत्यक्ष पदार्थनो निश्चय करवामां आवे तेने प्रत्यभिज्ञान कहीए छीए. जेम पहेलां एम सांभळ्‌युं हतुं के रोझ नामनुं जानवर (पशु) गाय जेवुं होय छे. त्यां कदाच वनमां रोझने जोयुं त्यारे ए वात याद करी के गाय जेवुं रोझ होय छे एम सांभळ्‌युं हतुं ते रोझ जानवर आ ज छे.

३. तर्क– व्याप्तिना ज्ञानने तर्क कहीए छीए. ‘आना विना ते नहि’ एने व्याप्ति कहीए. जेम अग्नि विना धूमाडो न होय, आत्मा विना चेतना न होय. आ व्याप्तिना ज्ञानने तर्क कहीए.

४. अनुमान–लक्षणवडे पदार्थनो निश्चय करीए तेने अनुमान कहीए छीए. जेम कोई पर्वतमांथी धूमाडो नीकळतो देखी निश्चय करवो के अहीं अग्नि छे.

प. आगम– आप्तनां वचनना निमित्ते पदार्थने जाणवो तेने आगम कहीए


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छीए. जेम शास्त्र वडे लोकनुं स्वरूप जाणीए. आ रीते पांच भेद परोक्ष प्रमाणना जाणवा.

नय

श्रुतज्ञानप्रमाणनो जे अंश तेने नय कहीए. प्रमाणवडे जे पदार्थ जाण्यो हतो तेना एक धर्मने मुख्य करीने अनुभव करावे तेने नय कहीए. तेना बे भेद छे. (द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिक) जे द्रव्यने मुख्य करी अनुभव करावे ते द्रव्यार्थिक नय. तेना त्रण भेद छे.

१. नैगम– जे सकंल्प मात्रथी पदार्थनुं ग्रहण करवुं–जाणवुं तेने नैगम कहीए. जेमके कथरोट बनाववा माटे कोई लाकडुं लेवा जाय छे, तेने कोईए पूछयुं, ‘‘तुं कयां जाय छे?’’ तेणे उत्तर आप्यो के हुं कथरोट लेवा जाउ छुं. ज्यां ते जाय छे त्यां तेने कथरोट तो नहि मळे पण त्यांथी लाकडुं लावी ते कथरोट बनावशे.

२. संग्रह– सामान्यरूपथी पदार्थोना ग्रहणने संग्रहनय कहीए छीए. जेमके– छ जातिना समस्त द्रव्यो द्रव्यसंज्ञा–लक्षण सहित छे. ए छ द्रव्योना समूहने द्रव्य कहेवुं ते.

३. व्यवहारनय– सामान्यरूपथी जाणेल द्रव्यना विशेष (भेद) करवा तेने व्यवहार कहीए. जेमके द्रव्यना छ भेद करवा. आ रीते एटला द्रव्यार्थिकनय कह्या.

पर्यायार्थिकनयना चार भेद छे. ऋजुसूत्रनय वर्तमान पर्यायमात्रने जाणे छे. शब्दनय, समभिरूढ अने एवंभूतनय ते शब्दनय छे.

पदार्थमां ज मतिज्ञान–श्रुतज्ञान तो अवश्य थाय छे परंतु एना विशेष वडे जुदुं आराधन करवानुं कह्युं छे. शा माटे? ‘‘यतः लक्षणभेदेन अनयोः नानात्वं संभवति।’’ कारण के लक्षणभेदथी ए बन्नेमां भिन्नपणुं संभवे छे. सम्यकत्वनुं लक्षण यथार्थ श्रद्धान छे, आनुं (– ज्ञाननुं) लक्षण यथार्थ जाणवुं छे, तेथी एने जुदा कह्या. ३१–३२

आगळ सम्यकत्व पछी ज्ञान कहेवानुं कारण बतावे छेः–

सम्यग्ज्ञानं कार्यं सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः।
ज्ञानाराधनमिष्टं सम्यक्त्वानन्तरं तस्मात्।। ३३।।


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अन्वयार्थः– [जिनाः] जिनेन्द्रदेव [सम्यग्ज्ञानं] सम्यग्ज्ञानने [कार्यं] कार्य अने [सम्यक्त्वं] सम्यकत्वने [कारणं] कारण [वदन्ति] कहे छे. [तस्मात्] तेथी [सम्यक्त्वानन्तरं] सम्यकत्व पछी तुरत ज [ज्ञानाराधनं] ज्ञाननी आराधना [इष्टम्] योग्य छे.

टीकाः– ‘‘जिनाः सम्यग्ज्ञानं कार्यं सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति’’– जिनदेव सम्यग्ज्ञानने कार्य कहे छे, सम्यकत्वने कारण कहे छे.

भावार्थः– मतिज्ञान पदार्थने तो जाणतुं हतुं परंतु सम्यकत्व विना तेनुं नाम कुमति अने कुश्रुतज्ञान हतुं ते ज ज्ञान जे समये सम्यकत्व थयुं ते ज समये मतिज्ञान–श्रुतज्ञान नाम पाम्युं, तेथी ज्ञान तो हतुं पण सम्यक्पणुं सम्यक्त्वथी ज थयुं. माटे सम्यकत्व तो कारणरूप छे, सम्यग्ज्ञान कार्यरूप छे. ‘तस्मात् सम्यक्त्वानन्तरं ज्ञानाराधनं इष्टम्’– माटे सम्यकत्व पछी ज ज्ञाननी आराधना योग्य छे. कारण के कारणथी कार्य थाय छे. ३३.

प्रश्नः– कारण–कार्य तो आगळ–पाछळ होय तो कहेवाय. आ तो बन्ने साथे छे तो कारण–कार्यपणुं केवी रीते संभवे छे? तेनो उत्तर आगळ कहे छे.

कारणकार्यविधानं समकालं जायमानयोरपि हि।
दीपप्रकाशयोरिव सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम्।। ३४।।

अन्वयार्थः– [हि] खरेखर [सम्यक्त्वज्ञानयोः] सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान बन्ने [समकालं] एक समये [जायमानयोः अपि] उत्पन्न थवा छतां पण [दीपप्रकाशयोः] दीवो अने प्रकाशनी [इव] जेम [कारणकार्यविधानं] कारण अने कार्यनी विधि [सुधटम्] सारी रीते घटित थाय छे.

टीकाः– ‘‘हि सम्यक्त्वज्ञानयोः समकालं जायमानयोः अपि कारणकार्यविधानं सुधटम्’’– निश्चयथी सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान एक ज समये उत्पन्न थाय छे. तोपण तेमां कारण–कार्यनो प्रकार यथार्थ वर्ते छे. कया द्रष्टांते? ‘दीपप्रकाशयोः इव’– जेम दीवो अने प्रकाश एक ज समये प्रगट थाय छे तोपण दीवो प्रकाशनुं कारण छे, प्रकाश कार्य छे, केमके दीवाथी प्रकाश थाय छे. तेवी रीते सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञाननुं कारण छे सम्यग्ज्ञान कार्य छे; केमके सम्यकत्वथी सम्यग्ज्ञान नाम पामे छे. ३४.


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आ सम्यग्ज्ञाननुं लक्षण कहे छेः–

कर्त्तव्योऽध्यवसायः सदनेकान्तात्मकेषु तत्त्वेषु।
संशयविपर्य्ययानध्यवसायविविक्तमात्मरुपं तत्।। ३५।।

अन्वयार्थः– [सदनेकान्तात्मकेषु] प्रशस्त अनेकान्तात्मक अर्थात् अनेक स्वभाववाळा [तत्त्वेषु] तत्त्वो अथवा पदार्थोमां [अध्यवसायः] निर्णय [कर्त्तव्यः] करवा योग्य छे अने [तत्] ते सम्यग्ज्ञान [संशयविपर्य्ययानध्यवसायविविक्तं] संशय, विपर्यय अने विमोह रहित [आत्मरुपं] आत्मानुं निज स्वरूप छे.

टीकाः– ‘‘सदनेकान्तात्मकेषु तत्त्वेषु अध्यवसायः कर्तव्यः’– अनेकान्त छे स्वभाव जेनो एवा पदार्थोमां जाणपणुं करवुं योग्य छे.

भावार्थः– पदार्थना स्वरूपने यथार्थ जाणवानुं नाम सम्यग्ज्ञान छे. ते पदार्थ अनेकान्त स्वभावने धारण करे छे. अनेक घणा, अंत धर्म. एम पोताना अनंतधर्मने–स्वभावने धारण करे छे तेनुं जाणपणुं अवश्य करवुं जोईए. जो सम्यक् प्रकारे वस्तुने ओळखे तो करोडो कारण मळवा छतां पण अश्रद्धानी न थाय. ‘तत् आत्मरुपं वर्तते’– ते सम्यग्ज्ञान आत्मानुं स्वरूप छे. कारण के जे आ साचुं ज्ञान उत्पन्न थयुं छे ते केवळज्ञानमां मळी शाश्वत रहेशे. केवुं छे ज्ञान? ‘संशयविपर्ययाध्यवसाय विविक्तम्’– संशय, विपर्यय अने विमोह–ए त्रण भावथी रहित छे.

संशयः– विरुद्ध बे तरफनुं ज्ञान होय तेने संशय कहे छे. जेम रात्रे कोईने जोईने संदेह थयो के आ पदार्थ माणस पण प्रतिभासे छे अने व्यंतर जेवो पण प्रतिभासे छे.

विपर्ययः– अन्यथा (विपरीत) रूप एक तरफनुं ज्ञान होय तेने विपर्यय कहे छे. जेमके मनुष्यमां व्यंतरनी प्रतीति करवी.

अनध्यवसायः– ‘कांईक छे’ एटलुं ज जाणपणुं होय, विशेष विचार न करे तेने अनध्यवसाय (अथवा विमोह) कहे छे. जेमके गमन करतां तृणना स्पर्शनुं ज्ञान थाय ते. आ त्रण भावथी रहित यथार्थ ज्ञाननुं नाम सम्यग्ज्ञान कहीए. अहीं घटपटादि पदार्थोना विशेष जाणवा माटे उद्यमी रहेवानुं बताव्युं नथी पण संसार–मोक्षना कारणभूत जे पदार्थो छे तेने यथार्थ जाणवा माटे उद्यमी रहेवानो उपदेश आप्यो छे.


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प्रश्नः– सम्यग्द्रष्टि अने मिथ्याद्रष्टिने जाणपणुं तो एकसरखुं होय छे छतां सम्यक्पणुं अने मिथ्यापणुं नाम शा माटे पाम्युं?

उत्तरः– सम्यग्द्रष्टिने मूळभूत जीवादि पदार्थोनी खबर छे तेथी जेटला उत्तर पदार्थो (विशेष पदार्थो) जाणवामां आवे ते बधाने यथार्थपणे साधे छे तेथी सम्यग्द्रष्टिना ज्ञानने सम्यक्रूप कह्युं छे. मिथ्याद्रष्टिने मूळ पदार्थोनी खबर नथी तेथी जेटला उत्तर पदार्थो जाणवामां आवे ते सर्वने पण अयथार्थरूप साधे छे तेथी मिथ्याद्रष्टिना ज्ञानने मिथ्यारूप कहीए छीए.३प.

आगळ आ सम्यग्ज्ञाननां आठ अंग कहे छेः–

ग्रन्थार्थोभयपूर्णं काले विनयेन सोपधानं च।
बहुमानेन समन्वितमनिह्नवं ज्ञानमाराध्यम्।। ३६।।

अन्वयार्थः– [ग्रन्थार्थोभयपूर्णं] ग्रन्थरूप [शब्दरूप], अर्थरूप अने उभय अर्थात् शब्द अर्थरूप शुद्धताथी परिपूर्ण, [काले] काळमां अर्थात् अध्ययनकाळमां आराधवा योग्य, [विनयेन] मन, वचन, कायानी शुद्धतास्वरूप विनय [च] अने [सोपधानं] धारणा युक्त [बहुमानेन] अत्यंत सन्मानथी अर्थात् देव–गुरु–शास्त्रनां वंदन, नमस्कारादि [समन्वितं] सहित तथा [अनिह्नवं] विद्यागुरुने छुपाव्या विना [ज्ञानं] ज्ञान [आराध्यम्] आराधवा योग्य छे.

टीकाः– ‘ज्ञानं आराध्यम्’ श्रद्धावान पुरुषोए सम्यग्ज्ञान आराधवा योग्य छे. केवुं छे ज्ञान? ‘ग्रन्थार्थोभयपूर्णम्’– शब्दरूप छे, अर्थरूप छे, अने उभयथी पूर्ण छे.

भावार्थः– १. व्यंजनाचार– ज्यां मात्र शब्दना पाठनुं ज जाणपणुं होय तेने व्यंजनाचार अंग कहीए.

२. अर्थाचार– ज्यां केवळ अर्थ मात्रना प्रयोजन सहित जाणपणुं होय तेने अर्थाचार कहीए अने

३. उभयाचार–ज्यां शब्द अने अर्थ बन्नेमां सम्पूर्ण जाणपणुं होय तेने शब्दार्थ उभयपूर्ण अंग कहीए. आ त्रण अंग कह्या. वळी ज्ञान कयारे आराधवुं?

४. कालाचार– काळे जे काळे जे ज्ञाननो विचार जोईए ते ज करवो (सूर्योदय, सूर्यास्त, बपोर अने मध्यरात्रि तेना पहेला अने पछीना मुहूर्त ते संध्याकाळ छे, ते काळ छोडीने बाकीना चार उत्तम काळोमां पठन–पाठनादिरूप स्वाध्याय


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करवो तेने कालाचार कहे छे. चारे संध्याकाळनी छेल्ली बे घडीओमां, दिगूदाह, उल्कापात, वज्रपात, ईन्द्रधनुष्य, सूर्य–चंद्रग्रहण, तोफान, भूकम्प, आदि उत्पातोना काळे सिद्धान्तग्रन्थोनुं पठन–पाठन वर्जित छे. हां, स्तोत्र–आराधना, धर्मकथादिकना ग्रंथ वांची शकाय छे.)

प. विनयाचार– वळी केवी रीते ज्ञान आराधवुं? विनयेननम्रतायुक्त थवुं, उद्धत न थवुं.

६. उपधानाचार– वळी केवुं ज्ञान आराधवुं? सोपधानंधारणा सहित ज्ञानने भूलवुं नहिं; उपधानसहित खूब ज्ञाननुं आराधन करवुं ते छठ्ठुं अंग छे.

७. बहुमानाचार– तथा केवुं छे ज्ञान? बहुमानेन समन्वितम्ज्ञाननो, पुस्तक– शास्त्रनो अथवा शीखवनारनो खूब आदर करवो–ते सहित ज्ञाननुं आराधन ते सातमुं अंग छे.

८. अनिह्नवाचार– वळी केवुं ज्ञान? ‘अनिह्नवंजे शास्त्र तथा गुरुथी पोताने ज्ञान थयुं छे तेने छुपाववा नहीं. आ आठ अंग (सम्यग्ज्ञानना विनयनां) छे. आ रीते सम्यग्ज्ञान अंगीकार करवुं. ३६.

एम श्रीमद् अमृतचंद्रसूरि विरचित पुरुषार्थसिद्धि–उपाय जेनुं बीजुं नाम जिनप्रवचनरहस्य कोष छे तेमां सम्यग्ज्ञान वर्णन नामनो बीजो अधिकार.


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सम्यग्ज्ञान अंगीकार कर्या पछी धर्मात्मा पुरुषोए शुं करवुं ते कहीए छीएः–

विगलितदर्शनमोहैः समञ्जसज्ञानविदिततत्त्वार्थैः।
नित्यमपि निःप्रकम्पैः सम्यक्चारित्रमालम्ब्यम्।। ३७।।

अन्वयार्थः– [विगलितदर्शनमोहैः] जेमणे दर्शनमोहनो नाश कर्यो छे, [समञ्जसज्ञानविदिततत्त्वार्थैः] सम्यग्ज्ञान वडे जेमणे तत्त्वार्थ जाण्या छे, [नित्यमपि निःप्रकम्पैः] जे सदाकाळ अकंप अर्थात् द्रढचित्तवाळा छे एवा पुरुषो द्वारा [सम्यक्चारित्रं] सम्यक्चारित्र [आलम्ब्यम्] अवलंबन करवा योग्य छे.

टीकाः– ‘सम्यक्चारित्रं आलम्ब्यम्’– सम्यक्चारित्र अंगीकार करवुं. केवा जीवोए सम्यक्चारित्र अंगीकार करवुं? ‘विगलितदर्शनमोहैः’– जेमना दर्शनमोहनो नाश थयो छे अने दर्शनमोहना नाशथी जे तत्त्वश्रद्धानी थया छे. वळी केवा छे? ‘समञ्जसज्ञानविदिततत्त्वार्थैः’– जेमणे सम्यग्ज्ञानथी तत्त्वार्थ जाण्या छे. वळी केवा छे? ‘नित्यमपि निःप्रकम्पैः’– धारण करेला आचरणमां निरन्तर निष्कंप छे. ग्रहण करेला आचरणने कोईपण रीते छोडता नथी. एवा जीवोए सम्यक्चारित्र अंगीकार करवुं.

भावार्थः– पहेलां सम्यद्रष्टि थईने सम्यग्ज्ञानी थाय अने पछी निश्चलवृत्ति धारण करीने सम्यक्चारित्र अंगीकार करवानुं कारण कहे छे. ३७.

न हि सम्यग्व्यपदेशं चरित्रमज्ञानपूर्वकं लभते।
ज्ञानानन्तरमुक्तं चारित्राराधनं तस्मात्।। ३८।।

अन्वयार्थः– [अज्ञानपूर्वकं चरित्रं] अज्ञान सहितनुं चारित्र [सम्यग्व्यपदेशं] सम्यक् नाम [न हि लभते] पामतुं नथी. [तस्मात्] माटे [ज्ञानानन्तरं] सम्यग्ज्ञान पछी [चारित्राराधनं] चारित्रनुं आराधन [उक्तम्] कह्युं छे.

टीकाः– ‘अज्ञानपूर्वकं चारित्रं सम्यग्व्यपदेशं न हि लभते’ जेनी पूर्वे अज्ञान भाव छे तेनुं चारित्र सम्यक् नाम पामतुं नथी. पहेलां जो सम्यग्ज्ञान न होय अने पापक्रियानो त्याग करी चारित्रभार धारण करे तो ते चारित्र सम्यक् नाम पामतुं नथी.


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जेम जाण्या विना औषधिनुं सेवन करे तो मरण ज थाय, तेम ज्ञान विना चारित्रनुं सेवन संसार वधारे छे. जीव विनाना मृत शरीरमां ईन्द्रियना आकार शा कामना? तेम ज्ञान विना शरीरनो वेश के क्रियाकांडना साधनथी शुद्धोपयोगनी प्राप्ति थती नथी. ‘तस्मात् ज्ञानानन्तरं चारित्राराधनं उक्तम्’– माटे सम्यग्ज्ञान मेळव्या पछी चारित्रनुं आराधन कह्युं छे. ३८.

चारित्रनुं लक्षण

चारित्रं भवति यतः समस्तसावद्ययोगपरिहरणात्।
सकलकषायविमुक्तं
विशदमुदासीनमात्मरुपं तत्।। ३९।।

अन्वयार्थः– [यतः] कारण के [तत्] ते [चारित्रं] चारित्र [समस्तसावद्ययोगपरिहरणात्] समस्त पापयुक्त मन, वचन, कायाना योगना त्यागथी, [सकलकषायविमुक्तं] संपूर्ण कषाय रहित, [विशदं] निर्मळ, [उदासीनं] परपदार्थोथी विरक्ततारूप अने [आत्मरुपं] आत्मस्वरूप [भवति] होय छे.

टीकाः– ‘यतः समस्त सावद्ययोगपरिहरणात् चारित्रं भवति’– समस्त पापसहित मन, वचन, कायाना योगनो त्याग करवाथी चारित्र थाय छे. मुनि पहेलां सामायिक चारित्र अंगीकार करे छे त्यारे एवी प्रतिज्ञा करे छे. ‘अहं सर्वसावद्ययोगविरतोऽस्मि’– हुं सर्वपापसहितना योगनो त्यागी छुं. केवुं छे. चारित्र? ‘सकलकषायविमुक्तम्’– समस्त कषायोथी रहित छे. समस्त कषायनो अभाव थतां यथाख्यात चारित्र थाय छे. वळी केवुं छे? ‘विशदम्’– निर्मळ छे. आत्मसरोवर कषायरूपी कादवथी मेलुं हतुं कषाय जतां सहेजे निर्मळता थई. वळी केवुं छे? ‘उदासीनम्’– परद्रव्यथी विरक्त स्वरूप छे. ‘तत् आत्मरुपं वर्तते– ते चारित्र आत्मानुं स्वरूप छे. कषायरहित जे आत्मानुं स्वरूप प्रगट थयुं ते ज सदाकाळ रहेशे, ते अपेक्षाए आत्मानुं स्वरूप छे, नवीन आवरण कदीपण नथी. सामायिक चारित्रमां सकळचारित्र थयुं पण संज्वलन कषायना सद्भावथी मलिनता न गई. तेथी ज्यारे सकळ कषायरहित थया त्यारे यथाख्यात नाम पाम्युं, जेवुं चारित्रनुं स्वरूप हतुं तेवुं प्रगट थयुं.

प्रश्नः– शुभोपयोगरूप भाव छे ते चारित्र छे के नहि?

उत्तरः– शुभोपयोगरूप विशुद्ध परिणामोथी होय छे. विशुद्धता नाम मंद कषायनुं छे. तेथी कषायनी हीनताथी कथंचित् चारित्र नाम पामे छे.


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प्रश्नः– देव–गुरु–शास्त्र, शील, तप, संयमादिमां अत्यंत रागरूप प्रवर्ते तेने मंद कषाय केवी रीते कहेवाय?

उत्तरः– विषय–कषायादिना रागनी अपेक्षाए ते मंद कषाय ज छे. कारण के एना रागमां क्रोध, मान, माया तो छे ज नहि. एने प्रीतिभावनी अपेक्षाए लोभ छे. तेमां पण कांई सांसारिक प्रयोजन नथी, तेथी लोभ–कषायनी पण मंदता छे. त्यां पण ज्ञानी जीव रागभावना प्रेर्या, अशुभ राग छोडी शुभ रागमां प्रवर्ते छे, शुभ रागने उपादेयरूप तो श्रद्धता नथी पण तेने पोताना शुद्धोपयोगरूप चारित्रमां मलिनतानुं कारण ज जाणे छे. अशुभोपयोगमां तो कषायनी तीव्रता थई छे तेथी ते कोई पण प्रकारे चारित्र नाम पामतु नथी. ३९.

चारित्रना भेद

हिंसातोऽनृतवचनात्स्तेयादब्रह्मतः परिग्रहतः।
कार्त्स्न्यैकदेशविरतेश्चारित्रं
जायते द्विविधम्।। ४०।।

अन्वयार्थः– [हिंसात] हिंसाथी, [अनृतवचनात्] असत्य भाषणथी, [स्तेयात्] चोरीथी, [अब्रह्मतः] कुशीलथी अने [परिग्रहतः] परिग्रहथी [कार्त्स्न्यैकदेशविरते] सर्वदेश अने एकदेश त्यागथी ते [चारित्रं] चारित्र [द्विविधम्] बे प्रकारनुं [जायते] होय छे.

टीकाः– ‘चारित्रं द्विविधं जायते’– चारित्र बे प्रकारे ऊपजे छे. केवी रीते? ‘हिंसातः, अनृतवचनात्, स्तेयात्, अब्रह्मतः, परिग्रहतः, कार्त्स्न्यैकदेशविरतेः– हिंसा, जूठुं, चोरी, अब्रह्म अने परिग्रहना सर्वदेश अने एकदेश त्यागथी. चारित्रना बे भेद छे.

भावार्थः– हिंसादिकनुं वर्णन आगळ करीशुं. तेना सर्वथा त्यागने सकळचारित्र कहीए अने एकदेश त्यागने देशचारित्र कहीए. ४०.

आगळ आ बन्ने प्रकारना चारित्रना स्वामी बतावे छेः–

निरतः कार्त्स्न्यनिवृत्तौ भवति यतिः समयसारभूतोऽयम्।
या त्वेकदेशविरतिर्निरतस्तस्यामुपासको
भवति।। ४१।।


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अन्वयार्थः– [कार्त्स्न्यनिवृत्तौ] सर्वथा–सर्वदेश त्यागमां [निरतः] लीन [अयं यतिः] आ मुनि [समयसारभूतः] शुद्धोपयोगरूप स्वरूपमां आचरण करनार [भवति] होय छे. [या तु एकदेशविरतिः] अने जे एकदेशविरति छे [तस्यां निरतः] तेमां लागेलो [उपासकः] उपासक अर्थात् श्रावक [भवति] होय छे.

टीकाः– ‘‘कार्त्स्न्यनिवृत्तौ निरतः अयं यतिः भवति’’– (अंतरंगमां तो त्रण कषायरहित शुद्धिनुं बळ छे जेने तथा) पांच पापना सर्वथा–सर्वदेश त्यागमां जे जीव लागेलो छे ते मुनि छे. ‘‘अयं समयसारभूतः’’–आ मुनि शुद्धोपयोगरूप शुद्धात्मास्वरूप ज छे. मुनि छे ते शुद्धोपयोगस्वरूप ज छे. जे शुभोपयोगरूप भाव छे ते पण आ मुनिनी पदवीमां कालिमा समान छे. ‘‘तु एकदेशविरतिः तस्यां निरतः उपासकः भवति’’– जे पांच पापना कदाचित् एकदेश त्यागमां लागेलो जीव छे ते श्रावक छे.

भावार्थः–

सकळचारित्रना स्वामी तो मुनि छे अने देशचारित्रना स्वामी श्रावक

छे.४१.

आगळ कहे छे के आ पांच पाप एक हिंसारूप ज छेः–

आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत्।
अनृतवचनादिकेवलमुदाहृतं
शिष्यबोधाय।। ४२।।

अन्वयार्थः– [आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्] आत्माना शुद्धोपयोगरूप परिणामोनो घात थवाना हेतुथी [एतत्सर्वं] आ बधुं [हिंसैव] हिंसा ज छे. [अनृतवचनादि] अनृत वचनादिना भेद [केवलं] केवळ [शिष्यबोधाय] शिष्योने समजाववा माटे [उदाहृतम्] उदाहरणरूप कह्या छे.

टीकाः– ‘सर्वं एतत् हिंसा एव’– समस्त आ पांच पाप कह्या छे ते हिंसा ज छे. शा माटे? ‘आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्’– आत्माना शुद्धोपयोगरूप परिणमनना घातना कारण छे तेथी सर्व हिंसा ज छे.

प्रश्नः– जो हिंसा ज होय तो बीजा भेद शा माटे कह्या?

उत्तरः– ‘अनृतवचनादि केवलं शिष्यबोधाय उदाहृतम्’– अनृत वचन वगेरे जे भेद ते मात्र शिष्यने समजाववाना निमित्ते उदाहरणरूप कह्या छे. शिष्य हिंसाना


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विशेषने न जाणे तो हिंसानां उदाहरण अनृत वचनादि कह्यां छे. हिंसानो एक भेद अनृत वचन छे, एक चोरी छे– एम उदाहरणरूपे जाणवुं. ४२.

आगळ हिंसानुं स्वरूप कहे छेः–

यत्खलुकषाययोगात्प्राणानां व्यभावरुपाणाम्।
व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा।। ४३।।

अन्वयार्थः– [कषाययोगात्] कषायरूपे परिणमेला मन, वचन, कायाना योगथी [यत्] जे [द्रव्यभावरुपाणाम्] द्रव्य अने भावरूप बे प्रकारना [प्राणानां] प्राणोनुं [व्यपरोपणस्य करणं] व्यपरोपण करवुं–घात करवो [सा] ते [खलु] निश्चयथी [सुनिश्चिता] सारी रीते नक्की करेली [हिंसा] हिंसा [भवति] छे.

टीकाः– ‘खलु कषाययोगात् यत् द्रव्यभावरुपाणां प्राणानां व्यपरोपणस्यकरणं सा सुनिश्चिता हिंसा भवति’– निश्चयथी कषायरूप परिणमेला मन, वचन, कायाना योगना हेतुथी द्रव्यभावरूप बे प्रकारना प्राणोने पीडवा, घातवा ते खरेखर हिंसा छे.

भावार्थः– पोताना मनमां, वचनमां के शरीरमां क्रोध–कषाय प्रगट थयो. तेनाथी प्रथम तो पोताना शुद्धोपयोगरूप भावप्राणनो घात थयो. आ हिंसा तो पोताना भावप्राणना व्यपरोपणथी थई, ते तो पहेलां ज थई. बीजा हिंसा तो थाय के न पण थाय. पाछळथी कदाचित् तीव्र कषायरूप थाय अने पोताना दीर्घश्वासादिथी अथवा हाथ–पगवडे पोताना अंगने पीडा उपजावी अथवा आपघात करी मरी गयो ते पोताना द्रव्यप्राणना घातरूप हिंसा थई. वळी जे कषायथी अन्य जीवने कुवचन कह्या, मर्मभेदी हास्य कर्युं अथवा जे रीते तेनुं अंतरंग पीडित थई कषायरूप परिणमे तेवुं कार्य कर्युं, त्यां परना भावप्राणना व्यपरोपणथी हिंसा थाय छे. ज्यां कषायना वशे प्रमादी थयो, बीजा जीवना शरीरने पीडा करी अथवा प्राणनाश कर्या त्यां परना द्रव्यप्राणना घातथी हिंसा थई. आ रीते हिंसानुं स्वरूप कह्युं. ४३.

आगळ हिंसा अने अहिंसानुं निश्चये लक्षणवर्णन करे छेः–

अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति।
तेषामेवोत्पत्तिर्हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः।। ४४।।