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अन्वयार्थः– [खलु] निश्चयथी [रागादिनां] रागादि भावोनुं [अप्रादुर्भावः] प्रगट न थवुं [इति] ए [अहिंसा] अहिंसा [भवति] छे अने [तेषामेव] ते रागादि भावोनुं [उत्पत्तिः] उत्पन्न थवुं ते [हिंसा] हिंसा [भवति] छे. [इति] एवो [जिनागमस्य] जैन सिद्धान्तनो [संक्षेपः] सार छे.
टीकाः– ‘खलु रागादिनां अप्रादुर्भावः इति अहिंसा भवति’– निश्चयथी रागादि भावोनी उत्पत्ति न थवी एटला मात्रथी अहिंसा थाय छे.
भावार्थः– पोताना शुद्धोपयोगरूप प्राणोनो घात रागादि भावोथी थाय छे. माटे रागादि भावोना अभाव ते ज अहिंसा. आदि शब्दथी द्वेष, मोह, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य शोक, जुगुप्सा, प्रमादादि समस्त विभावभाव जाणवा. एनां लक्षण कहीए छीए. पोताने कांईक ईष्ट जाणी प्रीतिरूप परिणाम तेने राग कहीए, पोताने अनिष्ट जाणी अप्रीतिरूप परिणाम तेने द्वेष कहीए. परद्रव्यमां ममत्वरूप परिणाम तेने मोह कहीए, मैथुनरूप परिणामने काम कहीए, आणे अयोग्य कर्युं एम जाणी परने दुःखदायक परिणाम तेने क्रोध कहीए, बीजा करतां पोताने मोटो मानवो तेने मान कहीए, मन वचन कायामां एकतानो अभाव तेने माया कहीए, परद्रव्य साथे संबंध करवानी ईच्छारूप परिणामने लोभ कहीए, भली अथवा बूरी चेष्टा जोईने विकसितरूप परिणाम ते हास्य कहीए, पोताने दुःखदायक जाणी डररूप परिणाम तेने भय कहीए, पोताने ईष्टनो अभाव थतां आर्तरूप परिणाम तेने शोक कहीए, ग्लानिरूप परिणामने जुगुप्सा कहीए, कल्याणकारी कार्यमां अनादरने प्रमाद कहीए.– ईत्यादि समस्त विभावभाव हिंसाना पर्याय छे. ते न थाय ए ज अहिंसा.
‘तेषामेव उत्पत्तिः हिंसा’– ते रागादिभावोनुं ऊपजवुं ते ज हिंसा. ‘इति जिनागमस्य संक्षेपः’– एवुं जैन सिद्धान्तनुं रहस्य छे.
भावार्थः– जैन सिद्धान्तनो विस्तार तो घणो घणो छे, पण सर्वनुं रहस्य संक्षेपमां आटलुं ज छे के धर्मनुं लक्षण अहिंसा. रागादि भावोनो अभाव थवो ते अहिंसा. तेथी जेम बने तेम, जेटलो बने तेटलो रागादि भावोनो नाश करवो. ते ज अन्य ग्रन्थोमां कह्युं छे– रागादीणामणुप्पा अहिंसा गत्तति देसि दंसमए ते सिंचे दुप्पत्ती हिंसेति जिणेहि णिदिठ्ठं।।
प्रश्नः– हिंसानुं लक्षण पर जीवना प्राणोने पीडवा एम केम न कह्युं?
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उत्तरः– आ लक्षणमां अतिव्याप्ति अने अव्याप्ति बन्ने दोष लागे छे. ४४.
त्यां प्रथम ज अतिव्याप्ति दोष बतावे छेः–
अन्वयार्थः– [अपि] अने [युक्ताचरणस्य] योग्य आचरणवाळा [सतः] संत पुरुषना [रागाद्यावेशमन्तरेण] रागादि भावो विना [प्राणव्यपरोपणात्] केवळ प्राण पीडनथी [हिंसा] हिंसा [जातु एव] कदी पण [न हि] नथी [भवति] थती.
टीकाः– ‘अपि युक्ताचरणस्य सतः रागाद्यावेशमन्तरेण प्राणव्यपरोपणात् जातु हिंसा न हि भवति’– निश्चयथी योग्य प्रयत्नपूर्वक छे आचरण जेमनुं एवा जे संत पुरुष तेने रागादि भावोना प्रवेश विना. केवळ परजीवना प्राण पीडवाथी ज कदी हिंसा थती नथी.
भावार्थः– महापुरुष ध्यानमां लीन छे अथवा गमनादिमां सावधानताथी यत्नपूर्वक प्रवर्ते छे अने कदाच एना शरीरना संबंधथी कोई जीवना प्राण पीडाया तोपण एने हिंसानो दोष नथी. केमके एना परिणाममां कषाय हतो नहि. तेथी परजीवना प्राणने पीडा थाय तोपण हिंसा नाम पामे नहि. माटे अतिव्याप्ति दोष लागे छे.
आगळ अव्याप्ति दोष बतावे छेः–
व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायाम्।
म्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा।। ४६।।
अन्वयार्थः– [रागादीनां] रागादिभावोना [वशप्रवृत्तायाम्] वशे प्रवर्तेली [व्युत्थानावस्थायां] अयत्नाचाररूप प्रमाद अवस्थामां [जीवः] जीव [म्रियतां] मरो [वा] अथवा [मा ‘म्रियतां’] न मरो, [हिंसा] हिंसा तो [ध्रुवं] निश्चयथी [अग्रे] आगळ ज [धावति] दोडे छे.
टीकाः– ‘रागादीनां वश प्रवृत्तायं व्युत्थानावस्थायां जीवः म्रियतां वा मा म्रियतां हिंसा अग्रे ध्रुवं धावति’– रागादि प्रमादभावना वशे थती ऊठवा–बेसवा आदिरूप क्रियामां जीव मरे के न मरे, हिंसा तो निश्चयथी आगळ दोडे छे.
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भावार्थः– जे प्रमादी जीव कषायने वश थईने गमनादि क्रियामां यत्नरूप प्रवर्ततो नथी अथवा बेसतां–ऊठतां क्रोधादि भावोमां परिणमे छे तो त्यां जीव कदाच मरे के न मरे पण एने तो कषायभाव वडे अवश्य हिंसानो दोष लागे छे. एटले परजीवना प्राणनी पीडा न थवा छतां पण प्रमादना सद्भावथी हिंसा नाम पामे छे. ते माटे ज ते लक्षणमां अव्याप्ति दोष लागे छे. ४६.
प्रश्नः– हिंसानो अर्थ तो घात करवो ते छे, परजीवना प्राणनो घात कर्या विना हिंसा नाम केवी रीते पामे? तेनो उत्तर आगळ कहे छेः–
पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु।। ४७।।
अन्वयार्थः– [यस्मात्] कारण के [आत्मा] जीव [सकषायः सन्] कषायभावो सहित होवाथी [प्रथमं] पहेलां [आत्मना] पोता वडे ज [आत्मानं] पोताने [हन्ति] हणे छे [तु] अने [पश्चात्] पछीथी भले [प्राण्यन्तराणां] बीजा जीवोथी [हिंसा] हिंसा [जायेत] थाय [वा] के [न] न थाय.
अर्थः– ‘यस्मात् सकषायः सन् आत्मा प्रथमं आत्मना आत्मानं हन्ति तु पश्चात् प्राण्यन्तराणां हिंसा जायेत वा न जायेत’– कारण के कषायभावो सहित थयेलो आत्मा पहेलां पोताथी ज पोताने हणे छे, पछी अन्य प्राणी–जीवोनो घात थाव के न थाव.
भावार्थः– हिंसा नाम तो घातनुं ज छे, पण घात बे प्रकारना छे. एक आत्मघात, बीजो परघात. ज्यारे आ आत्मा कषायभावे परिणम्यो अने पोतानुं बूरुं कर्युं त्यारे आत्मघात तो पहेलां ज थयो. त्यारे पछी बीजा जीवनुं आयुष्य पूरुं थयुं होय अथवा पापनो उदय होय तो तेनो पण घात थाय. तुं तेनो घात करी शकतो नथी कारण के तेनो घात तो तेना कर्मने आधीन छे. आने तो आना भावनो दोष छे. आ रीते प्रमादसहित योगमां आत्मघातनी अपेक्षाए तो हिंसा नाम पाम्यो छे. ४७.
हवे परघातनी अपेक्षाए पण हिंसानो सद्भाव बतावे छेः–
तस्मात्प्रमत्तयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यम्।। ४८।।
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अन्वयार्थः– [हिंसाया] हिंसाथी [अविरमणं] विरक्त न थवुं [हिंसा] तेनाथी हिंसा अने [हिंसापरिणमनं] हिंसारूप परिणमवुं तेनाथी [अपि] पण [हिंसा] हिंसा [भवति] थाय छे. [तस्मात्] तेथी [प्रमत्तयोगे] प्रमादना योगमां [नित्यं] निरंतर [प्राणव्यपरोपणं] प्राणघातनो सद्भाव छे.
टीकाः– ‘हिंसाया अविरमणं हिंसा परिणमनं अपि भवति हिंसा’– हिंसाना त्यागभावनो अभाव ते हिंसा छे अने हिंसारूप परिणमवाथी पण हिंसा थाय छे.
भावार्थः– परजीवना घातरूप जे हिंसा छे ते बे प्रकारनी छे. एक अविरमणरूप अने एक परिणमनरूप.
१. अविरमणरूप हिंसाः– जे वखते जीव परजीवना घातमां तो प्रवर्ततो नथी, बीजा ज कोई काममां प्रवर्ते छे पण हिंसानो त्याग कर्यो नथी. तेनुं उदाहरणः– जेम कोईने हरितकायनो त्याग नथी अने ते कोई वखते हरितकायनुं भक्षण पण करतो नथी, तेम जेने हिंसानो त्याग तो नथी अने ते कोई वखते हिंसामां प्रवर्ततो पण नथी परंतु अंतरंगमां हिंसा करवाना अस्तित्वभावनो नाश कर्यो नथी तेने अविरमणरूप हिंसा कहीए छीए.
२. परिणमनरूप हिंसाः– वळी जे वखते जीव परजीवना घातमां मनथी, वचनथी के कायथी प्रवर्ते तेने परिणमनरूप हिंसा कहीए. आ बे भेद हिंसाना कह्या. ते बन्ने भेदमां प्रमाद सहित योगनुं अस्तित्व छे. ‘तस्मात्प्रमत्तयोगे नित्यं प्राणव्यपरोपणमं्’– तेथी प्रमाद सहितना योगमां हंमेशा परजीवनी अपेक्षाए पण प्राणघातनो सद्भाव आव्यो. एनो अभाव तो त्यारे ज थाय ज्यारे आ जीव परहिंसानो त्याग करी प्रमादरूप न परिणमे त्यांसुधी हिंसानो तो अभाव कोईपण प्रकारे थई शके नहि. ४८.
प्रश्नः– जो प्रमादरूप पोताना परिणामोथी हिंसा ऊपजे छे तो बाह्य परिग्रहादिनो त्याग शा माटे कराववामां आवे छे? तेनो उत्तर आगळ कहे छेः–
हिंसायतननिवृत्तिः परिणामविशुद्धये तदपि
अन्वयार्थः– [खलु] निश्चयथी [पुंसः] आत्माने [परवस्तुनिबन्धना] परवस्तुनुं जेमां कारण छे एवी [सूक्ष्महिंसा अपि] सूक्ष्म हिंसा पण [न भवति]
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थती नथी. [तदपि] तोपण [परिणामविशुद्धये] परिणामोनी निर्मळता माटे [हिंसायतननिवृत्तिः] हिंसाना स्थानरूप परिग्रहादिनो त्याग [कार्या] करवो उचित छे.
टीकाः– ‘खलु पुंसः परवस्तुनिबन्धना सूक्ष्माअपि हिंसा न भवति’– निश्चयथी आत्माने परवस्तुना कारणे नीपजती एवी जरापण हिंसा नथी.
भावार्थः– परिणामोनी अशुद्धता विना परवस्तुना निमित्ते अंशमात्र पण हिंसानो दोष लागतो नथी. निश्चयथी तो एम ज छे तोपण परिणामनी शुद्धि माटे ‘हिंसायतननिवृत्तिः कार्या’– हिंसाना स्थान जे परिग्रहादि तेनो त्याग अवश्य करवो.
भावार्थः– जे परिणाम थाय छे ते कोई वस्तुनुं आलंबन पामीने थाय छे. जो सुभटनी माताने सुभट पुत्र विद्यमान होय तो तो एवा परिणाम थाय के ‘हुं सुभटने मारुं,’ पण जे वंध्या छे, जेने पुत्र ज नथी तो एवा परिणाम केवी रीते थाय के हुं वंध्याना पुत्रने हणुं? माटे जो बाह्य परिग्रहादिनुं निमित्त होय तो तेनुं अवलंबन पामीने कषायरूप परिणाम थाय. जो परिग्रहादिकनो त्याग कर्यो होय तो निमित्त विना, अवलंबन विना केवी रीते परिणाम ऊपजे? माटे पोताना परिणामोनी शुद्धता माटे बाह्य कारणरूप जे परिग्रहादिक तेनो पण त्याग करवो. ४९.
आगळ एक पक्षवाळानो निषेध करे छेः–
नाशयति करणचरणं स बहिःकरणालसो बालः।। ५०।।
अन्वयार्थः– [यः] जे जीव [निश्चयं] यथार्थ निश्चय स्वरूपने [अबुध्यमानः] जाण्या विना [तमेव] तेने ज [निश्चयतः] निश्चय श्रद्धाथी [संश्रयते] अंगीकार करे छे. [स] ते [बालः] मूर्ख [बहिःकरणालसः] बाह्य क्रियामां आळसु छे अने [करणचरणं] बाह्यक्रियारूप आचरणनो [नाशयति] नाश करे छे.
टीकाः– ‘यः निश्चयं अबुध्यमानः निश्चयतः तमेव संश्रयते सः बालः करणचरणं नाशयति’– जे जीव यथार्थ निश्चयना स्वरूपने तो जाणता नथी, जाण्या विना मात्र निश्चयना श्रद्धानथी अंतरंगने ज हिंसा जाणी अंगीकार करे छे ते अज्ञानी दयाना आचरणनो नाश करे छे.
भावार्थः– जे कोई केवळ निश्चयनो श्रद्धानी थईने एम कहे छे के अमे परिग्रह राख्यो अथवा भ्रष्टाचाररूप प्रवर्तीए तो शुं थयुं? अमारा परिणाम सारा
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जोईए. एम कहीने स्वच्छंदे प्रवर्ते छे ते जीवे दयाना आचरणनो नाश कर्यो. बाह्यमां तो निर्दय थयो ज अने अंतरंग निमित्त पामी परिणाम अशुद्ध थाय ज थाय; तेथी ते अंतरंगनी अपेक्षाए पण निर्दय थयो. केवो छे ते जीव? बाह्य द्रव्यरूप अन्य जीवनी दयामां आळसु छे, प्रमादी छे अथवा आ सूत्रनो बीजी रीते अर्थ करीए छीए. ‘यः निश्चयं अबुध्यमानः तमेव निश्चयतः संश्रयते सः बालः करुणा आचरणं नाशयति’– जे जीव निश्चयनयना स्वरूपने नहि जाणीने व्यवहाररूप जे बाह्य परिग्रहादिनो त्याग छे तेने ज निश्चयथी मोक्षमार्ग जाणी अंगीकार करे छे ते जीव शुद्धोपयोगरूप जे आत्मानी दया तेनो नाश करे छे.
भावार्थः– जे जीव निश्चयनयनुं स्वरूप तो जाणे नहि, केवळ व्यवहारमात्र बाह्य परिग्रहादिनो त्याग करे, उपवासादिकने अंगीकार करे, ए प्रमाणे बाह्य वस्तुमां हेय– उपादेयबुद्धिरूपे प्रवर्ते छे, ते जीव पोताना स्वरूप अनुभवरूप शुद्धोपयोगमय अहिंसा धर्मनो नाश करे छे. केवो छे ते जीव? ‘बहिः करणालसः’– उद्यम वडे तेणे अशुभोपयोगनो तो त्याग कर्यो पण बाह्य परजीवनी दयारूप धर्म तेना ज साधनमां आळसु थईने बेसी रह्यो, शुद्धोपयोग भूमिकामां चढवानो उद्यम करतो नथी. आ रीते एकांतपक्षवाळानो निषेध कर्यो. आगळ द्रव्यहिंसा अने भावहिंसानी अपेक्षाए भिन्न भिन्न प्रकारना भंग बतावे छे. प०.
तेना आठ सूत्र कहे छेः–
कृत्वाप्यपरो हिंसा हिंसाफलभाजनं न स्यात्।। ५१।।
अन्वयार्थः– [हि] खरेखर [एकः] एक जीव [हिंसां] हिंसा [अविधाय अपि] न करवा छतां पण [हिंसाफलभाजनं] हिंसाना फळने भोगववाने पात्र [भवति] बने छे अने [अपरः] बीजो [हिंसा कृत्वा अपि] हिंसा करीने पण [हिंसाफलभाजनं] हिंसानुं फळ भोगववाने पात्र [न स्यात्] थतो नथी.
टीकाः– ‘हि एकः हिंसां अविधाय अपि हिंसाफलभाजनं भवति’ निश्चयथी कोई एक जीव हिंसा न करवा छतां पण हिंसानुं फळ भोगववाने पात्र बने छे.
भावार्थः– कोई जीवे बाह्य हिंसा तो करी नथी पण प्रमादभावरूपे परिणम्यो छे तेथी ते जीव उदयकाळमां हिंसानुं फळ भोगवे छे. ‘अपरः हिंसां कृत्वा अपि
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हिंसाफलभाजनं न स्यात्’– बीजो कोई जीव हिंसा करवा छतां पण हिंसानुं फळ भोगववाने पात्र थतो नथी.
भावार्थः– कोई जीवे शरीर संबंधथी बाह्य हिंसा तो उपजावी छे पण प्रमादभावरूपे परिणम्यो नथी, तेथी ते जीव हिंसाना फळनो भोक्ता थतो नथी. प१.
अन्वयार्थः– [एकस्य] एक जीवने तो [अल्पा] थोडी [हिंसा] हिंसा [काले] उदयकाळे [अनल्पम्] घणुं [फलम्] फळ [ददाति] आपे छे. अने [अन्यस्य] बीजा जीवने [महाहिंसा] मोटी हिंसा पण [परिपाके] उदयना समये [स्वल्पफला] बिलकुल थोडुं फळ आपनारी [भवति] थाय छे.
टीकाः– ‘एकस्य अल्पा हिंसा काले अनल्पं फलं ददति’– कोई एक जीवने थोडी पण हिंसा उदयकाळे घणुं फळ आपे छे.
भावार्थः– कोई जीवे बाह्य हिंसा तो थोडी ज करी, पण प्रमादी थईने कषायरूप घणो परिणम्यो तेथी उदयकाळे हिंसानुं फळ घणुं पामे छे. ‘अन्यस्य महाहिंसा परिपाके स्वल्पफला भवति’–बीजा कोई जीवने मोटी हिंसा उदयकाळे थोडुं ज फळ आपे छे.
भावार्थः– कोई जीवे कोई कारण पामीने बाह्य हिंसा तो घणी करी, पण ते क्रियामां उदासीन रह्यो, कषाय थोडो कर्यो तेथी उदयकाळे हिंसानुं फळ पण थोडुं ज पामे छे. प२.
अन्वयार्थः– [सहकारिणोः अपि हिंसा] एक साथे मळीने करेली हिंसा पण [अत्र] आ [फलकाले] उदयकाळे [वैचिक्र्यम्] विचित्रताने [व्रजति] पामे छे अने [एकस्य] कोईने [सा एव] ते ज हिंसा [तीव्रं] तीव्र [फलं] फळ [दिशति] देखाडे छे अने [अन्यस्य] कोईने [सा एव] ते ज [हिंसा] हिंसा [मन्दम्] ओछुं फळ आपे छे.
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टीकाः– ‘सहकारिणोः अपि हिंसा अत्र फलकाले वैचिक्र्यं व्रजति’– बे पुरुषोए साथे मळीने करेली हिंसा फळना समये विचित्ररूप–अनेक प्रकारताने प्राप्त थाय छे. ए ज कहीए छीए. ‘एकस्य सैव तीव्रं फलं दिशति’ – एक पुरुषने तो ते ज हिंसा तीव्र फळ आपे छे. ‘अन्यस्य सा एव मन्दं फलं दिशति’– बीजा जीवने ते जे हिंसा मंद फळ आपे छे.
भावार्थः– बे पुरुषोए बाह्य हिंसा साथे करी, पण ते कार्यमां जेणे तीव्र कषायथी हिंसा करी तेने आसक्तपणुं बहु होवाथी उदयकाळे तीव्रफळ थाय छे; जेने मंदकषायथी आसक्तपणुं बहु न थयुं तेने उदयकाळे मंदफळ थाय छे. प३.
आरभ्य कर्तुमकृतापि फलति हिंसानुभावेन ।। ५४।।
अन्वयार्थः– [हिंसा] कोई हिंसा [प्राक् एव] पहेलां ज [फलति] फळ आपे छे, कोई [क्रियमाणा] करतां करतां [फलति] फळ आपे छे, कोई [कृता अपि] करी लीधा पछी [फलति] फळ आपे छे [च] अने कोई [कर्तुम् आरभ्य] हिंसा करवानो आरंभ करीने [अकृता अपि] न करवां छतां पण [फलति] फळ आपे छे. आ ज कारणे [हिंसा] हिंसा [अनुभावेन] कषायभाव अनुसार ज [फलति] फळ आपे छे.
टीकाः– ‘च हिंसा प्राक् एव फलति’– कोई हिंसा पहेलां फळे छे.
भावार्थः– कोई जीवे हिंसानो विचार कर्यो हतो पण ते बनी शकी तो नहि पण ते विचारथी जे कर्म बांध्युं हतुं तेनुं फळ उदयमां आव्युं. पछी हिंसानो जे विचार कर्यो हतो ते कार्य बाह्यमां बन्युं. आ रीते हिंसा पहेलां ज फळ आवे छे.
‘क्रियमाणा फलति’–वळी कोई हिंसा करतां ज फळे छे. भावार्थः– कोईए हिंसानो विचार कर्यो तेनाथी जे कर्मबंध कर्यो ते जे समये उदयमां आव्यो ते ज वखते विचार प्रमाणे बाह्य हिंसा बनी. आ रीते हिंसा करतां ज तेनुं फळ आवे छे.
‘कृता अपि च फलति’–वळी कोई हिंसा कर्या पछी फळ आपे छे भावार्थः– कोईए हिंसानो विचार कर्यो, विचार प्रमाणे बाह्य हिंसा पण करी. त्यार पछी ते हिंसानुं फळ उदयमां आव्युं. आ रीते कर्या पछी हिंसा फळे छे.
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‘हिंसा कर्तुम् आरभ्य अपि फलति’– कोईए हिंसा करवानी शरूआत करी पण हिंसा पछी न करी ते पण फळे छे. भावार्थः– कोईए हिंसानो विचार करी हिंसा करवामां लाग्यो. पछी कारण पामीने हिंसा न करी. एवी हिंसा पण फळ आपे छे. आ रीते फळ थवानुं कारण कहे छे.
‘अनुभावेन’– कषायभाव अनुसार फळ थाय छे. आ ज पद आगला सूत्रोमां पण ‘देहली दीपक न्याय’ नी जेम बधे जाणी लेवुं. प४.
माटे ज वच्चे कह्युं छेः–
बहवो
अन्वयार्थः– [एकः] एक पुरुष [हिंसां] हिंसा [करोति] करे छे. परंतु [फलभागिनः] फळ भोगवनारा [बहवः] घणा [भवन्ति] थाय छे. ए ज रीते [हिंसां] हिंसा [बहवः] घणा माणसो [विदधति] करे छे पण [हिंंसाफलभुक्] हिंसानुं फळ भोगवनार [एकः] एक पुरुष [भवति] थाय छे.
टीकाः– ‘हिंसां एकः करोति फलभागिनः बहवः भवन्ति’– कयारेक हिंसा तो एक माणस करे छे अने फळ अनेक माणसो भोगवे छे. तेनुं उदाहरणः– चोरने (प्राणघातकरूप शिक्षामां) एक चंडाळ ज मारे छे पण देखनारा बधा रौद्र परिणाम करी पापना भोक्ता थाय छे. ‘हिंसां बहवः विदधति एकः हिंसाफलभुक् भवति’– कयांक हिंसा तो घणा पुरुषो करे पण राजा स्वामित्वबुद्धि करीने प्रेरक थाय छे तेथी ते बधी हिंसाना फळनो भोक्ता थाय छे. पप.
अन्यस्य सैव हिंसा दिशत्यहिंसाफलं विपुलम्।। ५६।।
अन्वयार्थः– [कस्यापि] कोई पुरुषने तो [हिंसा] हिंंसा [फलकाले] उदयकाळमां [एकमेक] एक ज [हिंसाफलं] हिंसानुं फळ [दिशति] आपे छे अने
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[अनस्य] बीजा कोई पुरुषने [सैव] ते ज [हिंसा] हिंसा [विपुलं] घणी [अहिंसाफलं] अहिंसानुं फळ [दिशति] आपे छे.
[तु अपरस्य] अने बीजा कोईने [अहिंसा] अहिंसा [परिणामे] उदयकाळमां [हिंसाफलं] हिंसानुं फळ [ददाति] आपे छे, [तु पुनः] तथा [इतरस्य] बीजा कोईने [हिंसा] हिंसा [अहिंसाफलं] अहिंसानुं फळ [दिशति] आपे छे, [अन्यत् न] बीजुं नहि.
टीकाः– ‘तु अपरस्य अहिंसा परिणामे हिंसाफलं ददाति’– बीजा कोई जीवने अहिंसा छे ते उदयना परिणाममां हिंसानुं फळ आपे छे.
भावार्थः– कोईने अंतरंगमां तो कोई जीवनुं अहित करवाना परिणाम छे, पण बाह्यमां तेनो विश्वास उत्पन्न कराववा माटे भलुं करे छे अथवा बूरुं करे तोपण तेना पुण्यना उदयथी आना निमित्ते तेनुं भलुं थई जाय छे. त्यां बहारमां तो तेनी दया करी पण अंतरंगमां परिणामवडे तो हिंसा छे माटे हिंसानुं फळ आपे छे, बीजुं फळ आपती नथी.
भावार्थः– कोईना अंतरंगमां दयाना भावथी ते यत्न करीने प्रवर्ते छे छतां तेने तत्काल पीडा थाय छे. अथवा यत्न करवा छतां एना ज निमित्ते तेना प्राणघात थया. त्यां बहारमां तो तेनी हिंसा ज थई, पण अंतरंग परिणामवडे अहिंसानुं फळ पामे छे. प६–प७.
गुरवो भवन्ति शरणं प्रबुद्धनयचक्रसञ्चाराः।। ५८।।
अन्वयार्थः– [इति] ए रीते [सुदुस्तरे] अत्यंत मुश्केलीथी पार करी शकाय तेवा अने [विविधभङ्गगहने] नाना प्रकारना भंगोवडे गहन वनमां [मार्गमूढद्रष्टीनाम्] मार्ग भूलेला पुरुषोने [प्रबुद्धनयचक्रसञ्चाराः] अनेक प्रकारना नय समूहने जाणनार [गुरवः] श्रीगुरुओ ज [शरणं] शरण [भवन्ति] थाय छे.
टीकाः– ‘इति सुदुस्तरे विविधभङ्गगहने मार्गमूढद्रष्टीनां गुरवः शरणं भवन्ति’– आ रीते सुगमपणे जेनो पार पमातो नथी एवा अनेक प्रकारना भंगीरूपी गहन वनमां सत्यश्रद्धानस्वरूपमार्गमां जेनी द्रष्टि भ्रमित थई छे तेमने श्रीगुरु ज शरण छे. तेमना द्वारा ज सत्यमार्गनुं स्वरूप जाणी शकाय छे. केवा छे गुरु? ‘प्रबुद्धनय–
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चक्रसञ्चाराः’– जेमणे अनेक प्रकारना नय समूहनुं प्रवर्तन जाण्युं छे, सर्व नयो समजाववाने समर्थ छे. प८.
अन्वयार्थः– [जिनवरस्य] जिनेन्द्रभगवाननुं [अत्यन्तनिशितधारं] अत्यंत तीक्ष्ण धारवाळुं अने [दुरासदं] दुःसाध्य [नयचक्रं] नयचक्र [धार्यमाणं] धारण करवामां आवतां [दुर्विदग्धानां] मिथ्याज्ञानी पुरुषोना [मूर्धानं] मस्तकने [झटिति] शीध्र ज [खण्डयति] खंड खंड करी दे छे.
भावार्थः– जैनमतना नयभेद समजवा अत्यंत मुश्केल छे. जे कोई मूढ पुरुष समज्या विना नयचक्रमां प्रवेश करे छे ते लाभने बदले नुकसान मेळवे छे. आ रीते हिंसाना भंग कह्या. प९.
हवे हिंसाना त्यागनो उपदेश करे छेः–
नित्यमवगूहमानैर्निजशक्त्या त्यज्यतां हिंसा।। ६०।।
अन्वयार्थः– [नित्यं] निरंतर [अवगूहमानैः] संवरमां उद्यमी पुरुषोए [तत्त्वेन] यथार्थ रीते [हिंस्यहिंसकहिंसाहिंसाफलानि] हिंस्य, हिंसक, हिंंसा अने हिंसानुं फळ [अवबुध्य] जाणीने [निजशक्त्या] पोतानी शक्ति प्रमाणे [हिंसा] हिंसा [त्यज्यतां] छोडवी जोईए.
टीकाः– ‘नित्यं अवगूहमानैः निजशक्त्या हिंसा त्यज्यताम्’– संवरमां उद्यमी एवा जीवोए हंमेशा पोतानी शक्तिवडे हिंसानो त्याग करवो. जेटली हिंसा छूटे तेटली छोडवी. केवी रीते? ‘तत्त्वेन हिंस्य हिंसक हिंसा हिंसाफलानि अवबुध्य’– यथार्थ रीते हिंस्य, हिंसक, हिंसा अने हिंसानुं फळ– आ चार भावोने जाणीने हिंसा छोडवी. एने जाण्या विना त्याग थतो नथी. जो कर्यो होय तोपण कार्यकारी नथी. तेमां
१. हिंस्य–जेनी हिंसा थाय तेने हिंस्य कहे छे. पोताना भावप्राण अथवा द्रव्यप्राण अने परजीवना भावप्राण के द्रव्यप्राण ए हिंस्यना भेद छे. अथवा
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एकेंद्रियादि जीवसमासना भेद जाणवा अथवा ज्यां ज्यां जीव ऊपजवानां स्थान छे ते जाणवा जोईए. तेनुं यथास्थाने वर्णन होय ज छे.
२. हिंसक– हिंसा करनार जीवने हिंसक कहीए. त्यां प्रमादभावरूपे परिणमेला अथवा अयत्नाचारमां प्रवर्तता जीवने हिंसक जाणवा.
३. हिंसा–हिंस्यने पीडा उपजाववी अथवा तेमनो घात करवो ते हिंसा छे. तेनुं वर्णन आगळ कर्युं छे.
४. हिंसाफळ–हिंसाथी जे कांई फळ थाय तेने हिंसाफळ कहे छे. आ लोकमां तो हिंसक जीव निंदा पामे छे, राजा वडे दंड पामे छे, जेनी ए हिंसा करवा ईच्छे छे तेने जो लाग आवे तो आनो घात करे छे. वळी परलोकमां नरकादि गति पामे छे, त्यां शरीरना नाना प्रकारना छेदन–भेदनादि अने नाना प्रकारनी मानसिक वेदना पामे छे. नरकनुं वर्णन कोण कयां सुधी लखे! सर्व दुःखनो ज समुदाय छे. तिर्यंचादिनुं दुःख प्रत्यक्ष ज भासे छे. ए बधुं हिंसानुं फळ छे. आ रीते हिंस्यने जाणी पोते तेने घाते नही, हिंसकने जाणी पोते तेवो न थाय, हिंसाने जाणी तेनो त्याग करे अने हिंसानुं फळ जाणी तेनाथी भयभीत रहे. माटे आ चार भेद जाणवा. ६०.
आगळ जे जीव हिंसानो त्याग करवा ईच्छे छे तेणे पहेलां शुं करवुं ते कहे छेः–
हिंसाव्युपरतिकामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव।। ६१।।
अन्वयार्थः– [हिंसाव्युपरतिकामैः] हिंसानो त्याग करवानी ईच्छा राखनार पुरुषोए [प्रथममेव] प्रथम ज [यत्नेन] यत्नपूर्वक [मद्यं] दारू–शराब, [मासं] मांस, [क्षौद्रं] मध अने [पञ्चोदुम्बरफलानि] १पांच उदुम्बर फळो [मोक्तव्यानि] छोडी देवा जोईए.
टीकाः– ‘हिंसाव्युपरतिकामैः प्रथमं एव यत्नेन, मद्यं, मांसं क्षौद्रं, पञ्चउदुम्बरफलानि मोक्तव्यानि’–जे जीव हिंसानो त्याग करवा ईच्छे छे तेमणे पहेलां ज यत्नपूर्वक दारू, मांस, मध अने पांच उदुंबर फळ–आ आठ वस्तुओ त्यागवा योग्य छे. ६१. _________________________________________________________________ १. पांच उदुम्बर फळनां नाम–उमरो, कठुंबर, वड, पीपर अने पीपळानां फळ अथवा गुलरना फळ.
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त्यां प्रथम ज मद्यना दोष कहे छेः–
विस्मृतधर्मा जीवो र्हिंसामविशङ्कमाचरति।। ६२।।
अन्वयार्थः– [मद्यं] दारू [मनो मोहयति] मनने मोहित करे छे, अने [मोहितचित्तः] मोहित चित्त पुरुष [तु] तो [धर्मम्] धर्मने [विस्मरति] भूली जाय छे तथा [विस्मृतधर्मा] धर्मने भूली गयेलो [जीवः] जीव [अविशङ्कम्] नीडर थईने बेधडक [हिंसाम्] हिंसा [आचरति] आचरे छे.
टीकाः– ‘मद्यं मनः मोहयति’– मदिरा मनने मोहित करे छे. मदिरा पीधा पछी कांई खबर रहेती नथी. ‘तु मोहितचित्तः धर्मं विस्मरति’– अने मोहित चित्तवाळो मनुष्य धर्मने भूली जाय छे. खबर विना धर्मने कोण संभाळे? ‘विस्मृतधर्मा जीवः अविशङ्कम् हिंसाम् आचरति’– धर्मने भूलेलो जीव निःशंकपणे हिंसा आचरे छे. धर्मनी खबर न होवाथी हिंसा करवामां डर शेनो होय? माटे मदिरा हिंसानुं परंपरा कारण छे. ६२.
आगळ मदिराने हिंसानुं साक्षात् कारण कहे छेः–
मद्यं भजतां तेषां हिंसा संजायतेऽवश्यम्।। ६३।।
अन्वयार्थः– [च] अने [मद्यं] मदिरा [बहूनां] घणा [रसजानां जीवानां] रसथी उत्पन्न थयेला जीवोनुं [योनिः] उत्पत्तिस्थान [इष्यते] मानवामां आवे छे. तेथी जे [मद्यं] मदिरानुं [भजतां] सेवन करे छे तेने [तेषां] ते जीवोनी [हिंसा] हिंसा [अवश्यम्] अवश्य ज [संजायते] थाय छे.
टीकाः– ‘च मद्यं रसजानां जीवानां बहूनां योनिः इष्यते’– मदिरा रसथी उत्पन्न थयेला घणा एकेन्द्रियादि जीवोनुं उत्पत्तिस्थान छे तेथी ‘मद्यं भजतां तेषां हिंसा अवश्यं संजायते’– जे मदिरापान करे छे तेमने ते मदिराना जीवोनी हिंसा अवश्यमेव थाय छे मदिरामां जीव ऊपज्या हता ते बधाने आ पी गयो तो हिंसा केम न थाय? ६३.
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आगळ मदिरामां भावित हिंसा बतावे छेः–
हिंसायाः पर्यायाः सर्वेऽपि च सरकसन्निहिताः।। ६४।।
अन्वयार्थः– [च] अने [अभिमानभयजुगुप्साहास्यारतिशोककामकोपाद्या] अभिमान, भय, ग्लानि, हास्य, अरति, शोक, काम क्रोधादि [हिंसायाः] हिंसाना [पर्यायाः] भेद छे अने [सर्वेऽपि] आ बधा ज [सरकसन्निहिता] मदिराना निकटवर्ती छे.
टीकाः– ‘च अभिमानभयजुगुप्सा हास्य अरति शोक काम कोपाद्याः हिंसायाः पर्यायाः सर्वे अपि सरकसन्निहिताः’– वळी अभिमान, भय, जुगुप्सा, हास्य, अरति, शोक, काम, क्रोधादि जेटला हिंसाना भेद छे ते बधा ज मदिराना निकटवर्ती छे. एक मदिरापान करवाथी ते बधा तीव्रपणे एवा प्रगट थाय छे के माता साथे पण कामक्रीडा करवा तैयार थई जाय छे. अभिमानादिनां लक्षण पूर्वे वर्णव्या छे. आम मदिरानो प्रत्यक्ष दोष जाणी मदिरानो त्याग करवो. बीजी मादक–नशावाळी वस्तुओ छे तेमां पण हिंसाना भेद प्रगट थाय छे माटे तेमनो पण त्याग करवो. ६४.
आगळ मांसना दोष बतावे छेः–
मांसं
अन्वयार्थः– [यस्मात्] कारण के [प्राणिविघातात् विना] प्राणीओना घात विना [मांसस्य] मांसनी [उत्पत्तिः] उत्पत्ति [न इष्यते] मानी शकाती नथी [तस्मात्] ते कारणे [मांसं भजतः] मांसभक्षी पुरुषने [अनिवारिता] अनिवार्य [हिंसा] हिंसा [प्रसरति] फेलाय छे.
टीकाः– ‘यस्मात् प्राणिविघातात् विना मांसस्य उत्पत्तिः न इष्यते’– प्राणीओनाजीवना घात विना मांसनी उत्पत्ति देखाती नथी. मांस [बे ईन्द्रिय आदि] जीवना शरीरमां होय छे, बीजी जग्याए नहि. तेथी तेनो घात करतां ज मांस मळे छे.‘तस्मात् मांसं भजतः अनिवारिता प्रसरति’– माटे मांस खानारने हिंसा केवी रीते न थाय? ते हिंसा करे ज करे. ६प.
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आगळ कोई कहे छे के पोते जीवने न मारे तो दोष नथी तेने कहे छेः–
तत्रापि भवति
अन्वयार्थः– [यदपि] जो के [किल] ए साचुं छे के [स्वयमेव] पोतानी मेळे ज [मृतस्य] मरेला [महिषवृषभादेः] भेंस, बळदादिनुं [मांसं] मांस [भवति] होय छे पण [तत्रापि] त्यांये पण अर्थात् ते मांसना भक्षणमां पण [तदाश्रितनिगोतनिर्मथनात्] ते मांसने आश्रये रहेता ते जे जातिना निगोद जीवोना मंथनथी [हिंसा] हिंसा [भवति] थाय छे.
टीकाः– ‘यद्यपि किल स्वयमेव मृतस्य महिषवृषभादेः मांसं भवीत तत्र अपि हिंसा भवति’– जोके प्रगटपणे पोतानी मेळे मरण पामेला भेंस, बळद वगेरे जीवोनुं मांस होय छे तोपण ते मांसभक्षणमां पण हिंसा थाय छे. केवी रीते? तेना आश्रये, जे निगोदरूप अनंत जीवो छे तेनो घात करवाथी हिंसा थाय छे. ६६.
आगळ मांसमां निगोदनी उत्पत्ति कहे छेः–
सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोतानाम्।। ६७।।
अन्वयार्थः– [आमासु] काची [पक्वासु] पाकी [अपि] तथा [विपच्यमानासु] रंधाती [अपि] पण [मांसपेशीषु] मांसपेशीओमां [तज्जातीनां] ते ज जातिना [निगोतानाम्] सम्मूर्छन जीवोनो [सातत्येन] निरंतर [उत्पादः] उत्पाद थया करे छे.
टीकाः– ‘आमास्वपि, पक्वास्वपि, विपच्यमानासु मांसपेशीषु तज्जातीनां निगोतानां सातत्येन उत्पादः अस्ति’– काचा, अग्निथी रंधायेला, अथवा रंधाता होय तेवा सर्व मांसना टुकडाओमां ते ज जातिना निगोदना अनंत जीवोनुं समये समये निरंतर ऊपजवुं थाय छे. सर्व अवस्थाओमां मांसना टुकडामां निरंतर तेवा ज मांस जेवा नवा नवा अनंत जीव ऊपजे छे. ६७.
आगळ मांसथी हिंसा थाय छे एम प्रगट करे छेः–
स
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अन्वयार्थः– [यः] जे जीव [आमां] काची [वा] अथवा [पक्वां] अग्निमां पाकेली [पिशितपेशीम्] मांसनी पेशीनुं [खादति] भक्षण करे छे [वा] अथवा [स्पृशति] अडे छे. [सः] ते पुरुष [सततनिचितं] निरंतर एकठा थयेला [बहुजीवकोटीनाम्] अनेक जातिना जीवसमूहना [पिण्डं] पिंडने [निहन्ति] हणे छे.
टीकाः– ‘यः आमां वा पक्वां पिशितपेशीम् खादति वा स्पृशति सः सततनिचितं बहुजीवकोटीनां पिण्डं निहन्ति’– जे जीव काचा के अग्निमां पकावेला मांसना टुकडानुं भक्षण करे छे अथवा हाथ वगेरेथी अडे पण छे ते जीव निरंतर जेमां अनेक जातिना जीवो एकठा थया हता तेवा पिंडने हणे छे.
मांसमां तो निरंतर जीव ऊपजी एकठा थया हता. आणे ते मांसनुं भक्षण कर्युं अथवा स्पर्श कर्यो तेथी ते जीवोनी परम हिंसा ऊपजी, माटे मांसनो त्याग अवश्य करवो. बीजी पण जे वस्तुओमां घणा जीवोनी उत्पत्ति थाय छे ते बधी वस्तु त्यागवा योग्य छे. ६८.
अन्वयार्थः– [लोके] आ लोकमां [मधुशकलमपि] मधनुं एक टीपुं पण [प्रायः] घणुं करीने [मधुकरहिंसात्मकं] माखीओनी हिंसारूप [भवति] होय छे माटे [यः] जे [मूढधीकः] मूर्खबुद्धि मनुष्य [मधु भजति] मधनुं भक्षण करे छे. [सः] ते [अत्यन्तं हिंसकः] अत्यंत हिंसा करनार थाय छे. ६९.
तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रयप्राणिनां घातात्।। ७०।।
अन्वयार्थः– [यः] जे [छलेन] कपटथी [वा] अथवा [गोलात्] मधपूडामांथी [स्वयमेव विगलितम्] पोतानी मेळे टपकेला [मधु] मधने [गृह्णीयात] ग्रहण करे छे [तत्रापि] त्यां पण [तदाश्रयप्राणिनाम्] तेना आश्रयभूत जन्तुओना [घातात्] घातथी [हिंसा] हिंसा [भवति] थाय छे. ७०.
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अन्वयार्थः– [मधु] मध, [मद्यं] मदिरा, [नवनीतं] माखण [च] अने [पिशितं] मांस [महाविकृतः] महान विकारोने धारण करेला [ताः] आ चारे पदार्थो [व्रतिना] व्रती पुरुषे [न वल्भ्यन्ते] भक्षण करवा योग्य नथी. कारण के [तत्र] ते वस्तुओमां [तद्वर्णाः] ते ज जातिना [जन्तवः] जीव रहे छे.
टीकाः– ‘व्रतिना मधु मद्यं नवनीतं च पिशितं ताः महाविकृतयः न वल्भ्यन्ते’– व्रतधारी जीवोए मध, मदिरा, माखण१ अने मांस जे घणा विकारने धारण करे छे. ते अने बीजी पण विकारयुक्त वस्तुओनुं भक्षण न करवुं जोईए. मधनुं एक टीपुं पण माखीनी हिंसाथी मळे छे. जे मन्दबुद्धि मध खाय छे ते अत्यंत हिंसक छे. जे स्वयमेव टपकेल अथवा कपट करीने मधपूडामांथी मध ले ते पण हिंसक छे. कारण के मधने आश्रये रहेला जीवोनी हिंसा ते समये पण थाय छे. व्रती पुरुष आ वस्तुओनुं भक्षण करे नहि. शा माटे? ‘तत्र तद्वर्णाः जन्तवः’– ते वस्तुमां तेवा ज रंगवाळा घणा जीवो होय छे. जेवी ते वस्तु छे तेवा ज तेमां जीव होय छे. बीजी वस्तुओ कहेतां चामडाना स्पर्शवाळुं धी, तेल, जळ अथवा अथाणां, विष, माटी ईत्यादि अभक्ष्यनो त्याग करवो. मुख्यपणे मध, मांस, मधनो त्याग कराव्यो पछी बीजी पण अभक्ष्य वस्तुओ छोडवानो उपदेश कर्यो. ७२.
आगळ पांच उदुम्बर फळना दोष देखाडे छेः–
अन्वयार्थः– [उदुम्बरयुग्मं] उमर, अंजीर [प्लक्षन्यग्रोधपिप्पलफलानि] पीपळो, वड अने पीपळनां फळ [त्रसजीवानां] त्रस जीवोनी [योनिः] खाण छे [तस्मात्] तेथी [तद्भक्षणे] तेना भक्षणमां [तेषां] ते त्रस जीवोनी [हिंसा] हिंसा थाय छे. _________________________________________________________________
१. माखण माटे अभक्ष्यपणुं ए रीते कह्युं छे के दहींथी जुदुं पाडेलुं माखण अंतर्मृहूर्तमां तपावी गरम करी लेवुं जोईए नहितर ते अभक्ष्य थाय छे.
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टीकाः– ‘उदुम्बरयुग्मं प्लक्ष न्यग्रोध पिप्पलफलानि त्रसजीवानां योनिः’– उदुम्बर अने कठुंबर ए बे तथा पीपर–पीपळो, वडनां फळ अने पाकर अंजीर ए त्रण–ए बधांय त्रस जीवोनी योनि छे. तेमां ऊडतां जंतुओ जोवामां आवे छे. ‘तस्मात् तद्भक्षणे तेषां हिंसा भवति’– तेथी ते पांच वस्तुना भक्षणमां ते त्रण जीवोनी हिंसा थाय छे. ७२.
कोई कहे के ते उदंबरादि फळमां त्रस न होय तो भक्षण करवां.
तेने आगळ कहे छेः–
अन्वयार्थः– [तु पुनः] अने वळी [यानि] जे पांच उदुम्बर [शुष्कानि] सूका [कालोच्छिन्नत्रसाणि] समय जतां त्रसरहित बनेलां [भवेयुः] होय [तान्यपि] तेनुं पण [भजतः] भक्षण करनारने [विशिष्टरागादिरूपा] विशेष रागादिरूप [हिंसा] हिंसा [स्यात्] थाय छे.
टीकाः– ‘तु पुनः यानि शुष्काणि कालोच्छिन्नत्रसाणि भवेयुः तान्यपि भजतः हिंसा स्यात्’– वळी जे उदुम्बरादि पांच फळो काळ पामीने त्रसजीव रहित सुकाई गयां होय तोपण ते खानारने हिंसा थाय छे. केवी हिंसा थाय छे? ‘विशिष्ट रागादिरूपा’– जेमां विशेष रागभाव थयो छे तेवा स्वरूपवाळी. जो अधिक राग न होत तो आवी निंद्य वस्तु शा माटे अंगीकार करत? माटे ज्यां अधिक रागभाव थयो ते ज हिंसा. जेम कोईए लीलोतरी न खाधी पण ते वस्तुना रागभावथी तेने सूकवीने खाधी. जो राग न होय तो शा माटे एवो प्रयास करे?
प्रश्नः– सूकी वस्तुमां जो दोष होय तो अन्न शा माटे खाईए छीए?
उत्तरः– अन्न निंद्य नथी. वळी एना रागभाव विना सहज प्रवृत्तिथी ते सूकाय छे. वळी तेनुं भक्षण पण सामान्य पेट भरवाना निमित्ते थाय छे, कांई विशेष राग होवानुं कारण नथी. अहीं तो विशेषरूप रागभावनुं थवुं ते ज हिंसा –एम बताववामां आवे छे. ७३.
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आगळ आ कथन संकोचे छेः–
जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्धधियः।। ७४।।
अन्वयार्थः– [अनिष्टदुस्तरदुरितायतनानि] दुःखदायक, दुस्तर अने पापनुं स्थान [अमूनि] एवा [अष्टौ] आठ पदार्थोनो [परिवर्ज्य] परित्याग करीने [शुद्धधियः] निर्मळ बुद्धिवाळा पुरुष [जिनधर्मदेशनायाः] जैनधर्मना उपदेशने [पात्राणि] पात्र [भवन्ति] थाय छे.
टीकाः– ‘अनिष्टदुस्तरदुरितआयतनानि अमूनि अष्टौ परिवर्ज्य शुद्धधियः जिनधर्मदेशनायाः पात्राणि भवन्ति’– महादुःखदायक, सहेलाईथी जेनो पार पमातो नथी एवी, महापापना स्थानरूप जे आ आठ वस्तुओ छे तेने खावाथी महापाप ऊपजे छे. तेथी एने सर्वथा छोडीने, निर्मळ बुद्धिवाळा थईने, जैनधर्मना उपदेशने पात्र थवाय छे. पहेलां एनो त्याग करे त्यारपछी अन्य कोई उपदेश देवो. (अने कोई उपदेश आपे) जेम मूळ विना वृक्ष होतुं नथी तेम एना त्याग विना श्रावक होय नहि. माटे ज एनुं नाम मूळ छे. ७४.
हवे आ हिंसादिकनो त्याग करवानुं विधान कहे छेः–
अन्वयार्थः– [औत्सर्गिकी निवृत्तिः] उत्सर्गरूप निवृत्ति अर्थात् सामान्य त्याग [कृतकारितानुमननैः] कृत, कारित अने अनुमोदनरूप [वाक्कायमनोभिः] मन, वचन अने कायाथी [नवधा] नव प्रकारे [इष्यते] मानवामां आवी छे, [तु] अने [एषा] आ [अपवादिकी] अपवादरूप निवृत्ति [विचित्ररूपा] अनेकरूप छेे.
टीकाः– ‘औत्सर्गिकी निवृत्तिः कृतकारितानुमोदनैः वाक्कायमनोभिः नवधा इष्यते’– आ उत्सर्गरूप त्याग कृत, कारित अनुमोदन सहित मन, वचन कायाना भेदथी नवप्रकारे कहीए छीए. ‘तु अपवादिकी एषा विचित्ररूपा’– अने अपवादरूप जे त्याग छे ते जुदा जुदा प्रकारे छे.
भावार्थः– हिंसादिनो त्याग बे प्रकारे छे. एक उत्सर्ग त्याग अने बीजो अपवाद त्याग. उत्सर्ग एटले सामान्य. सामान्यपणे सर्वथा प्रकारे त्याग करीए तेने
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उत्सर्ग त्याग कहे छे. तेना नव भेद छे. मनथी पोते करवानुं चिंतवे नहि, बीजा पासे कराववानुं चिंतवे नहि, अने कोईए कर्युं होय तेने भलुं जाणे नहि, वचनथी पोते करवानुं कहे नहि, बीजाने कराववा माटे उपदेश आपे नहि, कोईए कर्युं होय तेने भलुं कहे नहि, कायाथी पोते करे नहि, बीजाने हाथ वगेरे द्वारा प्रेरणा आपी करावे नहि अने कोईए कर्युं होय तेने हस्तादि वडे प्रशंसे नहि. आ नव भेद कह्या. अपवाद त्याग अनेक प्रकारनो छे. आ नव भंग कह्या तेमांथी केटलाक भांगाथी अमुक प्रकारे त्याग करे, अमुक प्रकारे न करे, आ रीते मारे आ कार्य करवुं, आ रीते न करवुं –एम अपवाद त्याग भिन्न भिन्न प्रकारे छे. माटे शक्य होय ते रीते त्याग करवो. ७प.
हवे हिंसाना त्यागना बे प्रकार कहे छेः–
स्थावरहिंसामसहास्त्रसहिंसां तेऽपि मुञ्चन्तु।। ७६।।
अन्वयार्थः– [ये] जे जीव [अहिंसारूपं] अहिंसारूप [धर्मं] धर्मने [संशृण्वन्तः अपि] सारी रीते सांभळीने पण [स्थावर हिंसा] स्थावर जीवोनी हिंसा [परित्यक्तुम्] छोडवाने [असहाः] असमर्थ छे [ते अपि] तेओ पण [त्रसहिंसां] त्रस जीवोनी हिंसा [मुञ्चन्तु] छोडे.
टीकाः– ‘ये अहिंसारुपं धर्म संशृण्वन्तः अपि स्थावरहिंसां परित्यक्तुम् असहाः ते अपि त्रसहिंंसां मुञ्चन्तु’– जे जीव अहिंसा ज जेनुं स्वरूप छे एवा धर्मनुं श्रवण गुरुमुखे करे छे पण रागभावना वशे स्थावर हिंसा छोडवाने समर्थ नथी ते जीवे त्रसहिंसानो तो त्याग करवो.
भावार्थः– हिंसानो त्याग बे प्रकारे छे. एक तो सर्वथा त्याग छे ते मुनिधर्ममां होय छे. तेने अंगीकार करवो. वळी जो कषायना वशथी सर्वथा त्याग न बने तो त्रस जीवोनी हिंसानो त्याग करी श्रावकधर्म तो अंगीकार करवो. अहीं कोई त्रसजीवनुं स्वरूप पूछे तो तेने कहीए छीए के संसारी जीव बे प्रकारना छे. एक स्थावर अने एक त्रस. जे एक स्पर्शेन्द्रिय सहित एकेन्द्रिय जीव ते स्थावर छे. तेना पांच भेद छे. पृथ्वीकायिक, जळकायिक, अग्निकायिक, पवनकायिक अने वनस्पतिकायिक, जे बे ईन्द्रियादि जीव छे तेने त्रस कहीए छीए. तेना चार भेद छे. स्पर्शन अने रसना इन्द्रिय सहित ईयळ, कोडी, शंख, गींगोडा वगेरे द्वीन्द्रिय जीव छे. स्पर्श, जीभ अने नासिका संयुक्त कीडी, मकोडा, कानखजूरा वगेरे त्रीन्द्रिय जीव छे. स्पर्श,