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जीभ, नाक अने आंख सहित भमरा, पतंगिया वगेरे चतुरिन्द्रिय जीव छे. स्पर्श, जीभ, नाक, आंख अने कान सहितना जीव पंचेन्द्रिय छे. तेना बे भेद छे. जेने मन होय ते संज्ञी, जेने मन न होय ते असंज्ञी. तेमां संज्ञी पंचेन्द्रिय सिवाय बधा तिर्यंचगतिना भेद छे. संज्ञी पंचेन्द्रियना चार प्रकार छे. देव, मनुष्य, नारकी अने तिर्यंच. एमां देव भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी अने कल्पवासीना भेदथी चार प्रकारे छे. मनुष्य आर्य अने म्लेच्छना भेदथी बे प्रकारे छे. नारकीना जीव सात भूमिनी अपेक्षाए सात प्रकारना छे. तिर्यंचोमां मच्छादिक जलचर, वृषभादिक स्थलचर अने हंसादिक नभचर–ए त्रण प्रकार छे. आ भेद त्रस–स्थावरना जाणी एनी रक्षा करवी. ७६.
श्रावकने स्थावरहिसामां पण स्वच्छंदपणानो निषेधः–
अन्वयार्थः– [सम्पन्नयोग्यविषयाणाम्] ईन्द्रिय–विषयोनुं न्यायपूर्वक सेवन करनार [गृहिणाम्] गृहस्थोए [स्तोकैकेन्द्रियघातात्] अल्प एकेन्द्रियना घात सिवाय [शेषस्थावरमारणविरमणमपि] बाकीना स्थावर (एकेन्द्रिय) जीवोने मारवानो त्याग पण [करणीयम्] करवा योग्य [भवति] थाय छे.
टीकाः– ‘सम्पन्नयोग्यविषयाणां गृहिणां स्तोकैकेन्द्रियघातात् शेषस्थावरमारणविरमणम् अपि करणीयम् भवति’– न्यायपूर्वक ईन्द्रियना विषयोने सेवनारा श्रावकोने थोडोक एकेन्द्रियनो घात यत्न करवा छतां थाय छे, ते तो थाय. बाकीना जीवोने विना कारणे मारवानो त्याग पण तेमणे करवो योग्य छे.
भावार्थः– योग्य विषयोनुं सेवन करतां सावधानता होवा छतां स्थावरनी हिंसा थाय ते तो थाय छे, परंतु अन्य स्थावर जीवनी हिंसा करवानो तो त्याग करवो. ७७.
आ अहिंसा धर्मने साधतां सावधान करे छेः–
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अन्वयार्थः– [अमृतत्वहेतुभूतं] अमृत अर्थात् मोक्षना कारणभूत [परमं] उत्कृष्ट [अहिंसारसायनं] अहिंसारूपी रसायण [लब्ध्वा] प्राप्त करीने [बालिशानां] अज्ञानी जीवोनुं [असमञ्जसम्] असंगत वर्तन [अवलोक्य] जोईने [आकुलैः] व्याकुळ [न भवितव्यम्] न थवुं जोईए.
टीकाः– ‘अमृतत्वहेतुभूतं परमअहिंसारसायनं लब्ध्वा बालिशानां असमञ्जसम् अवलोक्य आकुलैः न भवितव्यम्’– मोक्षना कारणभूत उत्कृष्ट अहिंसारूपी रसायण पामीने अज्ञानी जीवोनो मिथ्यात्वभाव जोई व्याकुळ न थवुं.
भावार्थः– पोते तो अहिंसा धर्मनुं साधन करे छे अने कोई मिथ्याद्रष्टि अनेक युक्तिवडे हिंसाने धर्म ठरावी तेमां प्रवर्ते तो तेनी कीर्ति जोईने पोते धर्ममां आकुळता न उपजाववी अथवा कदाच पोताने पूर्वनां घणां पापना उदयने लीधे अशाता ऊपजी होय अने तेने पूर्वनां घणां पुण्यना उदयने लीधे कांईक शाता ऊपजी होय तोपण पोते उदयनी अवस्थानो विचार करीने धर्ममां आकुळता न करवी. ७८.
अन्वयार्थः– [भगवद्धर्मः] सर्वज्ञ वीतराग भगवाननो कहेलो धर्म [सूक्ष्मः] बहु बारीक छे माटे [धर्मार्थं] ‘धर्मना निमित्ते [हिंसने] हिंसा करवामां [दोषः] दोष [नास्ति] नथी.’ [इति धर्ममुग्धहृदयैः] एवा धर्ममां मूढ अर्थात् भ्रमरूप हृदयवाळा [भूत्वा] थईने [जातु] कदीपण [शरीरिणः] शरीरधारी जीवोने [न हिंस्याः] मारवा नहि जोईए.
टीकाः– ‘भगवद्धम्ः सूक्ष्मः’– ज्ञानसहितनो धर्म सूक्ष्म छे, तेथी ‘धर्मार्थं हिंसने दोषः न अस्ति’– धर्मना निमित्ते हिंसा करवामां दोष नथी. ‘इति धर्ममुग्धहृदयैः भूत्वा शरीरिणः जातु न हिंस्याः’ ए रीते जेनुं चित्त धर्ममां भ्रमरूप थयुं छे एवा थईने प्राणीओने कदीपण न मारवा.
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भावार्थः– कोई अज्ञानी कहे छे के बीजी जग्याए हिंसा करवी ते पाप छे पण यज्ञादिमां धर्मना निमित्ते तो हिंसा करवी, तेमां कांई दोष नथी. आवी श्रद्धाथी हिंसामां प्रवर्तवुं योग्य नथी. ज्यां हिंसा होय त्यां धर्म कदीपण न होय.
प्रश्नः– जैनमतमां मंदिर बनाववां, पूजा–प्रतिष्ठा करवी वगेरे कह्युं छे त्यां धर्म छे के नथी?
उत्तरः– मंदिर, पूजा, प्रतिष्ठादि कार्यमां जो जीवहिंसा थवानो भय न राखे, यत्नाचारथी न प्रवर्ते, मात्र मोटाई मेळववा जेमतेम कर्या करे तो त्यां धर्म नथी, पाप ज छे. अने यत्नपूर्वक कार्य करतां थोडी हिंसा थाय तो ते हिंसानुं पाप तो थयुं पण धर्मानुरागथी पुण्य घणुं थाय छे अथवा एकठुं करेलुं धन खरचवाथी लोभकषायरूप अंतरंग हिंसानो त्याग थाय छे. हिंसानुं मूळ कारण तो कषाय छे, तेथी तीव्र कषायरूप थई तेमनी हिंसा न करवाथी पाप पण थोडुं थयुं. माटे आ रीते पूजा–प्रतिष्ठादि करे तो धर्म ज थाय छे.
जेम कोई मनुष्य धन खर्चवा माटे धन कमाय तो तेने कमायो ज कहीए. जो ते धन धर्मकार्यमां न खर्चात तो ते धनवडे विषयसेवनथी महापाप उपजत तेथी ते पण नफो ज थयो. जेम मुनि एक ज नगरमां रागादि ऊपजवाना भयथी विहार करे छे, विहार करतां थोडीघणी हिंसा पण थाय छे, पण नफा–नुकसान विचारतां एक ज नगरमां रहेवुं योग्य नथी. तेम अहीं पण नफा–नुकसाननो विचार करवो जोईए. एक सामान्य कथनवडे विशेष कथननो निषेध न करवो. आवुं ज कार्य तो आरंभी, अव्रती अने तुच्छ व्रती करे छे. तेथी सामान्यपणे एवो ज उपदेश छे. धर्मना निमित्ते हिंसा न करवी. ७९.
अन्वयार्थः– [हि] ‘निश्चयथी [धर्मः] धर्म [देवताभ्यः] देवोथी [प्रभवति] उत्पन्न थाय छे माटे [इह] आ लोकमां [ताभ्यः] तेमना माटे [सर्वं] बधुं ज [प्रदेयम्] आपी देवुं योग्य छे’ [इति दुर्विवेककलितां] आ रीते अविवेकथी ग्रसायेल [धिषणां] बुद्धि [प्राप्य] पामीने [देहिनः] शरीरधारी जीवोने [न हिंस्याः] मारवा न जोईए.
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टीकाः– ‘हि धर्मः देवताभ्यः प्रभवति’– निश्चयथी धर्म ऊपजे छे ते देवोथी ऊपजे छे, ‘इह ताभ्यः सर्वं प्रदेयम्’– आ लोकमां ते देवोना निमित्ते बधुं आपवुं जोईए. जीवोने पण मारीने तेमने चडावो. ‘इति दुर्विवेककलितां धिषणां प्राप्य देहिनः न हिंस्याः’– एवी अविवेकवाळी बुद्धिथी प्राणीने मारवा नहि.
भावार्थः– देव, देवी, क्षेत्रपाळ, काली, महाकाली, चंडी, चामुंडा ईत्यादिने अर्थे हिंसा न करवी. परजीवने मारवाथी पोतानुं भलुं केवी रीते थाय? बिलकुल न थाय. ८०.
इति संप्रधार्य कार्यं नातिथये सत्त्वसंज्ञपनम्।। ८१।।
अन्वयार्थः– [पूज्यनिमित्तं] ‘पूजवा योग्य पुरुषोने माटे [छागादीनां] बकरा वगेरे जीवोनो [घाते] घात करवामां [कः अपि] कोई पण [दोषः] दोष [नास्ति] नथी’ [इति] एम [संप्रधार्य] विचारीने [अतिथये] अतिथि अथवा शिष्ट पुरुषोने माटे [सत्त्वसंज्ञपनम्] जीवोनो घात [न कार्यम्] करवो न जोईए.
टीकाः– ‘पूज्यनिमित्तं छागादीनां घाते कोऽपि दोषः न अस्ति’– पोताना गुरु माटे बकरादि जीवोना घातमां कांई दोष नथी, ‘इति सम्प्रधार्य अतिथये सत्त्वसंज्ञपनम् न कार्यम्’– एम विचारीने अतिथि (फकीरादि गुरु) माटे जीवोनो घात न करवो.
भावार्थः– पापी, विषयलंपटी अने जीभना लालचु एवा पोताने अने बीजा जीवोने नरकमां लई जवाने तैयार थनार एवा कुगुरुना निमित्ते पण हिंसा करवी योग्य नथी. हिंसाथी तेनो अने पोतानो मोक्ष केवी रीते थशे? मतलब के थतो नथी. ८१.
इत्याकलय्य कार्यं न महासत्त्वस्य हिंसनं जातु।। ८२।।
अन्वयार्थः– [बहुसत्त्वघातजनितात्] ‘घणा प्राणीओना घातथी उत्पन्न थयेल [अशनात्] भोजन करतां [एकसत्त्वघातोत्थम्] एक जीवना घातथी उत्पन्न थयेलुं भोजन [वरम्] सारुं छे’ [इति] एम [आकलय्य] विचारीने [जातु] कदीपण [महासत्त्वस्य] मोटा त्रस जीवनो [हिंसनं] घात [न कार्यम्] करवो न जोईए.
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टीकाः– ‘बहुसत्त्वघातजनितात् अशनात् एक सत्त्वघातोत्थम् वरम्’– घणा जीवोना नाशथी उत्पन्न थयेला भोजन करतां एक जीवने मारवाथी ऊपजेलुं भोजन उत्कृष्ट छे ‘इति आकलय्य जातु महासत्त्वस्य हिंसनं न कार्यम्’– एम विचारीने कदीपण मोटा जीवनी हिंसा न करवी.
भावार्थः– कोई कहे छे के अन्नना आहारमां घणा जीवो मरे छे माटे एक मोटो जीव मारीने भोजन करीए तो घणुं सारुं– एम मानी पंचेन्द्रिय जीवोनो घात करे छे. त्यां हिंसा तो प्राणघातथी छे. एकन्द्रिय करतां पंचेन्द्रियना द्रव्यप्राण अने भावप्राण घणा–वधारे होय छे. माटे ज एवो उपदेश छे के घणा एकेन्द्रिय जीवने मारवा करतां द्वीन्द्रिय जीवने मारवानुं अनेकगणुं पाप छे तो पंचेन्द्रियने मारवाथी केम घणुं पाप न थाय? वळी बे ईन्द्रियथी पंचेन्द्रिय जीवने मारवामां तो मांसनो आहार थाय छे. तेना दोष आगळ कह्या ज छे. माटे आ प्रमाणे श्रद्धान करवुं. ८२.
अन्वयार्थः– [अस्य] ‘आ [एकस्य एव] एक ज [जीवहरणेन] जीवनो घात करवाथी [बहूनाम्] घणा जीवोनी [रक्षा भवति] रक्षा थाय छे’ [इति मत्वा] एम मानीने [हिंस्त्रसत्त्वानाम्] हिंसक जीवोनी पण [हिंसनं] हिंंसा [न कर्त्तव्यम्] न करवी जोईए.
टीकाः– ‘अस्य एकस्य एव जीवहरणेन बहूनाम् रक्षा भवति’– आनो एक ज जीव मारवाथी घणा जीवोनी रक्षा थाय छे ‘इति मत्वा हिंस्त्र सत्त्वानां हिंसनं न कार्यम्’– एम जाणीने हिंसक जीवनो पण घात न करवो.
भावार्थः– साप, वींछी, नाहर, सिंह ईत्यादि बीजा जीवोने मारनारहिंसक जीवोने मारवाथी घणा जीव बचे छे माटे एने मारवामां पाप नथी–एवुं श्रद्धान न करवुं, केमके एने तो एना कार्यनुं पाप लागे छे. लोकमां अनेक जीवो पाप–पुण्य उपजावे छे, तेमां आने शुं? ते हिंसक जीवो हिंसा करे छे तो तेमने पाप लागशे. पोते तेमनी हिंसा करीने शा माटे पाप उपजावे? ८३.
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अन्वयार्थः– [बहुसत्त्वघातिनः] ‘घणा जीवना घातक [अमी] आ जीवो [जीवन्तः] जीवता रहेशे तो [गुरु पापम्] घणुं पाप [उपार्जयन्ति] उपार्जन करशे’ [इति] ए प्रकारनी [अनुकम्पां कृत्वा] दया लावीने [हिंस्त्राः शरीरिणः] हिंसक जीवोने [न हिंसनीयाः] मारवा न जोईए.
टीकाः– बहुसत्त्वघातिनः अमी जीवन्तः गुरु पापं उपार्जयन्ति’– घणां जीवोने मारनारा आ पापी जीवता रहे तो घणां पाप उपजावशे एम ‘इति अनुकम्पां कृत्वा हिंस्त्राः शरीरिणः न हिंसनीयाः’– दया करीने हिंसक जीवोने न मारवा.
भावार्थः– बाज, समळी वगेरे जे जे हिंसक छे ते जीवता रहे तो घणां पाप करशे अने घणां जीवोने मारशे माटे एने मारवा–एवुं श्रद्धान न करवुं. तेमनी हिंसानुं पाप तेमने छे, पोताने शुं? बने तो ते पापक्रिया छोडावी देवी. ८४.
इति वासनाकृपाणीमादाय न दुःखिनोऽपि हन्तव्याः।। ८५।।
अन्वयार्थः– [तु] अने [बहुदुःखासंज्ञपिताः] ‘अनेक दुःखोथी पीडित जीव [अचिरेण] थोडा ज समयमां [दुःखविच्छित्तिम्] दुःखनो अंत [प्रयान्ति] पामशे’ [इति वासनाकृपाणींः] ए प्रकारनी वासना अथवा विचाररूपी तलवार [आदाय] लईने [दुःखिनः अपि] दुःखी जीवोने पण [न हन्तव्याः] मारवा न जोईए.
टीकाः– ‘तु बहुदुःखासंज्ञपिताः अचिरेण दुःखविच्छित्तिम् प्रयान्ति’– ए जीव घणां दुःखथी पीडाय छे, जो एने मारीए तो तेमनुं बधुं दुःख नाश पामे. ‘इति वासनाकृपाणीं आदाय दुःखिनः अपि न हन्तव्याः’– एवी खोटी वासनारूपी तलवार ग्रहण करीने दुःखी जीवोने पण न मारवा.
भावार्थः– आ जीव रोगथी अथवा गरीबाई आदिथी बहु ज दुःखी छे, जो एने मारीए तो ते दुःखथी छूटी जाय– एवी श्रद्धा न करवी. मनुष्य अने तिर्यंचनुं आयुष्य पुण्यना उदयथी घणुं होय छे, माटे तेनुं वेदन करवुं. अथवा जेवो तेने उदय छे तेवो भोगवे छे, पोते हिंसा करीने पाप शा माटे ऊपजाववुं? ८प.
इति तर्कमण्डलाग्रः सुखिनां घाताय नादेयः।। ८६।।
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अन्वयार्थः– [सुखावाप्ति] ‘सुखनी प्राप्ति [कृच्छे्रण] कष्टथी थाय छे, माटे [हताः] मारवामां आवेला [सुखिनः] सुखी जीव [सुखिनः एव] सुखी ज [भवन्ति] थशे’ [इति] एम [तर्कमण्डलाग्रः] कुतर्कनुं खड्ग [सुखिनां घाताय] सुखीओना घात माटे [नादेयः] अंगीकार करवुं न जोईए.
टीकाः– ‘कृच्छे्रण सुखावाप्तिः’– कष्टथी सुखथी प्राप्ति थाय छे. ‘सुखिनः हताः सुखिनः एव भवन्ति’– तेथी सुखी जीवोने मारीए तो तेओ परलोकमां पण सुखी ज थाय छे. ‘सुखनां घाताय इति तर्कमण्डलाग्रः न आदेयः’– सुखी जीवोना घात माटे आ प्रकारनो विचार कोईए न करवो.
भावार्थः– सुख कष्टथी थाय छे. माटे आ सुखी जीवने काशीनुं करवत वगेरे प्रकारथी मारीए तो परलोकमां पण ते सुखी थाय–एवुं श्रद्धान न करवुं. आ रीते मरवाथी के मारवाथी सुखी केवी रीते थाय? सुखी तो सत्य धर्मना साधनथी थाय छे. ८६.
अन्वयार्थः– [सुधर्मं अभिलषिता] सत्यधर्मना अभिलाषी [शिष्येण] शिष्य द्वारा [भूयसः अभ्यासात्] अधिक अभ्यासथी [उपलब्धि सुगतिसाधनसमाधिसारस्य] ज्ञान अने सुगति करवामां कारणभूत समाधिनो सार प्राप्त करनार [स्वगुरोः] पोताना गुरुनुं [शिरः] मस्तक [न कर्त्तनीयम्] कापवुं न जोईए.
टीकाः– ‘सुधर्मं अभिलषिता शिष्येण स्वगुरोः शिरं न कर्त्तनीयम्’– धर्मने चाहनार शिष्ये पोताना गुरुनुं मस्तक न कापवुं जोईए. केवा छे गुरु? ‘भूयसः अभ्यासात् उपलब्धि सुगति साधन समाधिसारस्य’– घणा अभ्यासथी जेमणे सुगतिना कारणभूत समाधिनो सार मेळव्यो छे तेवा छे.
भावार्थः– आपणा गुरु अभ्यासमां लागी गया छे (ध्यान–समाधिमां मग्न छे), अभ्यास घणो कर्यो, हवे जो एमना प्राणोनो अंत करीए तो ते उच्च पदने पामे– एम विचार करीने शिष्ये पोताना गुरुनुं मस्तक कापवुं योग्य नथी. जो तेमणे साधन कर्युं छे तो तेओ ज पोतानुं फळ आगळ पामशे. तुं हिंसा करीने पाप शा माटे उपजावे छे.? ८७.
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अन्वयार्थः– [धनलवपिपासितानां] थोडाक धनना लोभी अने [विनेयविश्वासनाय दर्शयताम्] शिष्योने विश्वास उत्पन्न करवा माटे देखाडनार [खारपटिकानाम्] खारपटिकोना [झटितिघटचटकमोक्षं] शीघ्र घडो फूटवाथी चकलीना मोक्षनी जेम मोक्षनुं [नैव श्रद्धेयम्] श्रद्धान न करवुं जोईए.
टीकाः– ‘खारपटिकानां झटितिघटचटकमोक्षं नैव श्रद्धेयम्’– एक खारपटिक मत छे; तेओ तत्काळ घडाना पक्षीना मोक्ष समान मोक्ष कहे छे तेनुं श्रद्धान न करवुं.
भावार्थः– कोई खारपटिक नामनो मत छे, जेमां मोक्षनुं स्वरूप एवुं कह्युं छे के जेम घडामां पक्षी केद थयेलुं छे, जो घडो फोडी नाखवामां आवे तो पक्षी बंधनमांथी मुक्त थई जाय. तेम आत्मा शरीरमां बंध थयेल छे, जो शरीरनो नाश करीए तो आत्मा बंधनरहित–मुक्त थाय. आवुं श्रद्धान न करवुं. केम के आवुं श्रद्धान हिंसानुं कारण छे. अंतरंग कार्माण शरीरना बंधनसहित आत्मा एम मुक्त केवी रीते थाय? केवा छे खारपटिक? ‘धनलवपिपासितानाम्’– थोडाक धनना लोभी छे. वळी केवा छे? ‘विनेयविश्वासनाय दर्शयताम्’– शिष्योने विश्वास उत्पन्न करवा माटे केटलीक रीतो बतावे छे. माटे एमना कथननुं श्रद्धान न करवुं. ८८.
अन्वयार्थः– [च] अने [अशनाय] भोजन माटे [पुरस्तात्] पासे [आयान्तम्] आवेला [अपरं] अन्य [क्षामकुक्षिम्] भूख्या पुरुषने [द्रष्ट्वा] जोईने [निजमांसदानरभसात्] पोताना शरीरनुं मांस देवानी उत्सुकताथी [आत्मापि] पोतानो पण [न आलभनीयः] घात करवो न जोईए.
टीकाः– ‘च अशनाय आयन्तं क्षामकुक्षिं पुरस्तात् द्रष्ट्वा निजमांसदानरभसात् आत्मा अपि न आलभनीयः’– भोजन लेवा माटे आवेला दुर्बळ शरीरवाळा मनुष्यने पोतानी सामे जोईने पोतानुं मांस देवाना उत्साहथी पोताना शरीरनो पण घात न करवो.
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भावार्थः– कोई मांसभक्षी जीव भोजन माटे पोतानी पासे आव्यो. तेने जोई तेना माटे पोताना शरीरनो पण घात न करवो, कारण के मांसभक्षी पात्र नथी. मांसनुं दान ते उत्तम दान नथी. ८९.
विदितजिनमतरहस्यः
अन्वयार्थः– [नयभङ्गविशारदान] नयना भंगो जाणवामां प्रवीण [गुरून्] गुरुओनी [उपास्य] उपासना करीने [विदितजिनमतरहस्यः] जैनमतनुं रहस्य जाणनार [को नाम] एवो कोण [विशुद्धमतिः] निर्मळ बुद्धिधारी छे जे [अहिंसां श्रयन्] अहिंसानो आश्रय लईने [मोहं] मूढताने [विशति] प्राप्त थशे?
टीकाः– ‘नाम नयभङ्गविशारदान् गुरून् उपास्य कः मोहं विशति’– हे जीव, नयना भेदो जाणवामां प्रवीण एवा गुरुनुं सेवन करीने कयो जीव मोहने प्राप्त थाय? न थाय.
भावार्थः– जीवने सारा–नरसानुं हित–अहितनुं श्रद्धान गुरुना उपदेशथी थाय छे. पूर्वोक्त अश्रद्धानी कुगुरुना भरमाववाथी अन्यथा प्रवर्ते छे. पण जे जीवे सर्व नयना जाणनार परम गुरुनी सेवा करी छे ते केवी रीते भ्रममां पडे? न ज पडे. केवो छे ते जीव? ‘विदितजिनमतरहस्यः’– जेणे जैनमतनुं रहस्य जाण्युं छे तेवो छे. वळी केवो छे? ‘अहिंसां श्रयन्’– दया ज धर्मनुं स्वरूप छे एम जाणी तेने अंगीकार करे छे. अने ‘विशुद्धमतिः’– जेनी बुद्धि निर्मळ छे एवो जीव मोहने प्राप्त थतो नथी. आ रीते दयाधर्मने द्रढ कर्यो. ए प्रमाणे अहिंसा व्रतनुं वर्णन कर्युं. ९०.
तदनृतमपि विज्ञेयं तद्भेदाः सन्ति चत्वारः।। ९१।।
अन्वयार्थः– [यत्] जे [किमपि] कांई [प्रमादयोगात्] प्रमाद कषायना योगथी [इदं] आ [असदभिधानं] स्वपरने हानिकारक अथवा अन्यथारूप वचन [विधीयते] कहेवामां आवे छे [तत्] तेने [अनृतं अपि] निश्चयथी जूठुं [विज्ञेयम्] जाणवुं जोईए. [तद्भेदाः] तेना भेद [चत्वारः] चार [सन्ति] छे.
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टीकाः– ‘यत् किमपि प्रमादयोगात् इदं असत् अभिधानं विधीयते तत् अनृतं अपि विज्ञेयम्’– जे कांई प्रमाद सहितना योगना हेतुथी आ असत्य एटले बूरुं अथवा अन्यथारूप वचन छे तेने निश्चयथी अनृत जाणवुं. ‘तद्भेदाः चत्वारः सन्ति’– ते असत्यवचनना चार भेद छे. ९१.
अन्वयार्थः– [यस्मिन्] जे वचनमां [स्वक्षेत्रकालभावैः] पोतानां द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भावथी [सत् अपि] विद्यमान होवा छतां पण [वस्तु] वस्तुनो [निषिध्यते] निषेध करवामां आवे छे [तत्] ते [प्रथमम्] प्रथम [असत्यं] असत्य [स्यात्] छे. [यथा] जेम के [अत्र] ‘अहीं [देवदत्तः] देवदत्त [नास्ति] नथी.’
टीकाः– ‘यस्मिन् स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैः सत् अपि वस्तु निषिध्यते तत् प्रथमं असत्यं स्यात्’– जे वचनमां पोताना द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भावथी सत्तारूपे विद्यमान एवा पदार्थनो पण निषेध करवामां आवे के पदार्थ नथी; ते प्रथम भेदरूप असत्य छे. द्रष्टांत कहे छे– ‘यथा अत्र देवदत्तः नास्ति’– जेमके अहीं देवदत्त नथी.
भावार्थः– कोई क्षेत्रमां देवदत्त नामनो पुरुष बेठो हतो, त्यां कोईए पूछयुं के अहीं देवदत्त छे? त्यां उत्तर आप्यो के अहीं तो देवदत्त नथी. आ रीते पोताना द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भावथी जे वस्तु अस्तिरूप होय तेने नास्तिरूप कहीए ते असत्यनो प्रथम भेद छे. अस्ति वस्तुने नास्ति कहेवुं ते. जे कोई ते पदार्थ छे तेने तो द्रव्य कहीए. जे क्षेत्रमां एकत्वरूप थईने रहे छे तेने क्षेत्र कहीए. जे काळे जे रीते परिणमे तेने काळ कहीए. ते पदार्थनो जे कांई निजभाव छे तेने भाव कहीए. आ पोतानां चतुष्टयनी अपेक्षाए सर्व पदार्थ अस्तित्वरूप छे. अहीं देवदत्तनां पोतानां चतुष्टय तो हतां ज, परंतु नास्तिरूप जे कह्युं ते ज असत्य वचन थयुं. ९२.
उद्भाव्यते द्वितीयं तदनृतमस्मिन् यथास्ति घटः।। ९३।।
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अन्वयार्थः– [हि] निश्चयथी [यत्र] जे वचनमां [तैः परक्षेत्रकालभावैः] ते परद्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावथी [असत् अपि] अविद्यमान होवा छतां पण [वस्तुरूपं] वस्तुनुं स्वरूप [उद्भाव्यते] प्रकट करवामां आवे छे [तत्] ते [द्वितीयं] बीजुं [अनृतम्] असत्य [स्यात्] छे, [यथा] जेमके [अस्मिन्] अहीं [घट अस्ति] घडो छे.
टीकाः– ‘हि यत्र तैः परद्रव्यक्षेत्रकालभावैः वस्तुरूपं असत् अपि उद्भाव्यते तत् द्वितीयं अनृतं’– निश्चयथी जे वचनमां परद्रव्य, क्षेत्र, काळ, भावथी पदार्थ सत्तारूप नथी तोपण त्यां प्रगट करवुं ते बीजुं असत्य छे. तेनुं उदाहरणः–‘यथा अस्मिन् घटः अस्तिः’– जेम के अहीं घडो छे.
भावार्थः– कोई क्षेत्रमां घडो तो हतो नहि तेथी ते वखते तेनां द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भाव ज नहोतां; बीजो पदार्थ हतो तेथी ते वखते तेनां द्रव्य, क्षेत्र, काळ, भाव हतां. कोईए पूछयुं के अहीं घडो छे के नहि? त्यां घडो छे एम कहेवुं ते बीजो असत्यनो भेद थयो, केमके नास्तिरूप वस्तुने अस्ति कही.
अनृतमिदं च तृतीयं विज्ञेयं गौरिति यथाऽश्वः।। ९४।।
अन्वयार्थः– [च] अने [अस्मिन्] जे वचनमां [स्वरूपात्] पोताना चतुष्टयथी [सत् अपि] विद्यमान होवा छतां पण [वस्तु] पदार्थ [पररूपेण] अन्य स्वरूपे [अभिधीयते] कहेवामां आवे छे ते [इदं] आ [तृतीयं अनृतं] त्रीजुं असत्य [विज्ञेयं] जाणवुं [यथा] जेम [गौः] बळद [अश्वः] घोडो छे [इति] एम कहेवुं ते.
टीकाः– ‘च यस्मिन् सत् अपि वस्तु पररूपेण अभिधीयते इदं तृतीयं अनृतं विज्ञेयं’– जे वचनमां पोतानां चतुष्टयमां विद्यमान होवा छतां पण ते पदार्थने अन्य पदार्थरूपे कहेवो ते त्रीजुं असत्य जाणवुं. तेनुं उदाहरणः– यथा गौः अश्वः–जेम के बळदने घोडो कहेवो ते.
भावार्थः– कोई क्षेत्रमां बळद पोताना चतुष्टयमां हतो, त्यां कोईए पूछयुं के अहीं शुं छे? त्यारे एम कहेवामां आवे के अहीं घोडो छे, ते त्रीजो असत्यनो भेद छे. वस्तुने अन्यरूपे कहेवी ते. ९४.
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सामान्येन त्रेधा मतिमदमनृतं तुरीयं तु।। ९५।।
अन्वयार्थः– [तु] अने [इदं] आ [तुरीयं] चोथुं [अनृतं] असत्य [सामान्येन] सामान्यरूपे [गर्हितम्] गर्हित, [अवद्यसंयुतम्] पाप सहित [अपि] अने [अप्रियम्] अप्रिय– ए रीते [त्रेधा] त्रण प्रकारनुं [मतम्] मानवामां आव्युं छे. [यत्] के जे [वचनरूपं] वचनरूप [भवति] छे.
टीकाः– ‘तु इदं तुरीयं अनृतं सामान्येन त्रेधा मतम्–यत् अपि वचनरूपं गर्हितं अवद्यसंयुतं अप्रियं भवति’– आ चोथो जूठनो भेद त्रण प्रकारे छे. १. वचनथी निंदाना शब्दो कहेवा. २.हिंसा सहित वचन बोलवां, ३. अप्रिय वचन अर्थात् बीजाने खराब लागे तेवां वचन बोलवां. आ त्रण भेद छे. ९प.
अन्यदपि यदुत्सूत्रं तत्सर्वं गर्हितं गदितम्।। ९६।।
अन्वयार्थः– [पैशून्यहासगर्भं] दुष्टता अथवा कुथलीरूप हास्यवाळुं [कर्कशं] कठोर, [असमञ्जसं] मिथ्याश्रद्धानवाळुं [च] अने [प्रलपितं] प्रलापरूप (बकवाद) तथा [अन्यदपि] बीजुं पण [यत्] जे [उत्सूत्रं] शास्त्र–विरुद्ध वचन छे [तत्सर्वं] ते बधांने [गर्हितं] निंद्य वचन [गदितम्] कह्युं छे.
टीकाः– ‘यत् वचनं पैशून्यहासगर्भं कर्कशं असमञ्जसं प्रलपितं च अन्यत् अपि उत्सूत्रं तत् गर्हितम् गदितम्’– जे वचन दुष्टता सहितनुं होय, बीजा जीवनुं बूरुं करनार होय, पोताने रौद्रध्यान थाय तेवुं होय, तथा हास्यमिश्रित होय, अन्य जीवना मर्मने भेदनारुं होय, पोताने प्रमाद करावनारुं होय, कर्कश–कठोर होय, असमंजस–मिथ्याश्रद्धा करावनार होय अने अप्रमाणरूप होय ते तथा बीजां पण जे शास्त्र–विरुद्ध वचनो छे ते बधां गर्हित वचनमां ज गर्भित छे. ९६.
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तत्सावद्यं यस्मात्प्राणिवधाद्याः प्रवर्तन्ते।। ९७।।
अन्वयार्थः– [यत्] जे [छेदनभेदनमारणकर्षणवाणिज्यचौर्यवचनादि] छेदन, भेदन, मारण, शोषण अथवा व्यापार के चोरी आदिना वचन छे [तत्] ते बधां [सावद्यं] पापयुक्त वचन छे, [यस्मात्] कारण के ए [प्राणिवधाद्याः] प्राणीहिंसा वगेरे पापरूपे [प्रवर्तन्ते] प्रवृत्ति करे छे.
टीकाः– ‘यत् छेदन भेदन मारण कर्षण वाणिज्य चौर्य वचनादि तत् सर्वं सावद्यं अस्ति यस्मात् प्राणिवधाद्याः प्रवर्तन्ते’– अर्थः– जे नाक वगेरे छेदवानुं वचन, कापवानुं, मारवानुं, खेंचवानुं, व्यापार करवानुं चोरी करवानुं वगेरे वचन कहेवां ते बधुं अवद्यसहित जूठनुं स्वरूप छे. एनाथी प्राणीओनो घात थाय छे. ९७.
यदपरमपि तापकरं परस्य
अन्वयार्थः– [यत्] जे वचन [परस्य] बीजा जीवने [अरतिकरं] अप्रीति करनार, [भीतिकरं] भय उत्पन्न करनार, [खेदकरं] खेद करनार, [वैरशोककलहकरं] वेर शोक अने कजियो करावनार होय तथा जे [अपरमपि] बीजा पण [तापकरं] संतापोने करावनारुं होय [तत्] ते [सर्वं] बधुं ज [अप्रियम्] अप्रिय [ज्ञेयम्] जाणवुं.
टीकाः– ‘यत् वचनं परस्य अरतिकरं भीतिकरं खेदकरं वैरशोककलहकरं तथा अपरमपि तापकरं तत्सर्वं अप्रियं ज्ञेयम्’– अर्थः– जे वचन बीजाने अरति करनार अर्थात् बूरुं लागे तेवुं होय, भय उपजावनार होय, खेद उत्पन्न करनार होय, तथा वेरशोक अने कलह करवावाळुं होय तथा बीजुं जे दुःख ते उत्पन्न करनार होय ते सर्व वचन अप्रिय जूठनो भेद छे. ९८.
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अन्वयार्थः– [यत्] जे कारणे [अस्मिन्] आ [सर्वस्मिन्नपि] बधां ज वचनोमां [प्रमत्तयोगैकहेतुकथनं] प्रमाद सहित योग ज एक हेतु कहेवामां आव्यो छे, [तस्मात्] तेथी [अनृतवचने] असत्य वचनमां [अपि] पण [हिंसा] हिंसा [नियतं] निश्चितरूपे [समवतरति] आवे छे.
टीकाः– यत् अस्मिन् सर्वस्मिन् अपि अनृतवचने प्रमत्तयोगैकहेतुकथनं अस्ति तस्मात् अनृतवचने हिंसा नियतं समवतरति’– अर्थः– आ सर्व प्रकारनां जूठ वचनोमां प्रमादयोग ज कारण छे तेथी जूठुं वचन बोलवामां हिंसा अवश्य ज थाय छे, कारण के हिंसा प्रमादथी ज थाय. प्रमाद विना हिंसा थाय नहि. ज्यां प्रमाद न होय त्यां हिंसा होय नहि. अने ज्यां प्रमाद छे त्यां हिंसा अवश्य थाय छे. ‘‘प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा’’ इति वचनात्– (प्रमादना योगथी प्राणोनो घात करवो ते हिंसा छे ए वचन प्रमाणे.) ९९.
हेयानुष्ठानादेरनुवदनं भवति
अन्वयार्थः– [सकलवितथवचनानाम्] समस्त जूठ वचनोनो [प्रमत्तयोगे] प्रमादसहित योग [हेतौ] हेतु [निर्दिष्टे सति] निर्दिष्ट करवामां आव्यो होवाथी [हेयानुष्ठानादेः] हेय–उपादेयादि अनुष्ठानोनुं [अनुवदनं] कहेवुं [असत्यम्] जूठ [न भवति] नथी.
टीकाः– ‘सकल वितथ वचनानां प्रमत्तयोगे हेतौ निर्दिष्टे सति हेयानुष्ठानादेः अनुवदनं असत्यं न भवति’– अर्थः– समस्त जूठ वचनोनुं कारण प्रमादसहित योगने बतावीने हेय अने उपादेयनुं वारंवार कथन करवुं–उपदेश करवो ते जूठ नथी.
भावार्थः– जूठ वचनना त्यागी महामुनि हेय अने उपादेयनो वारंवार उपदेश करे छे; त्यां पापनी निंदा करतां पापी जीवने तेमनो उपदेश बूरो लागे, अथवा कोईने धर्मोपदेश आपवाथी खराब लागे, ते दुःख पामे, पण ते आचार्योने जूठनो दोष लागतो नथी. केमके तेमने प्रमाद (कषाय) नथी. प्रमादपूर्वक वचनमां ज हिंसा छे. तेथी ज कह्युं छे के प्रमादसहित योगथी वचन बोलवां ते ज जूठ छे, अन्यथा नहि. १००.
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अन्वयार्थः– [य] जे जीव [भोगोपभोगसाधनमात्रं] भोग–उपभोगना साधन मात्र [सावद्यम्] सावद्यवचन [मोक्तुम्] छोडवाने [अक्षमाः] असमर्थ छे [ते अपि] तेओ पण [शेषम्] बाकीना [समस्तमपि] समस्त [अनृतं] असत्य भाषणनो [नित्यमेव] निरंतर [मुञ्चन्तु] त्याग करे.
टीकाः– ‘ये अपि भोगोपभोगसाधनमात्रं सावद्यं मोक्तुम् अक्षमाः (सन्ति) ते अपि शेषं समस्तम् अपि अनृतम् नित्यं एव मुञ्चन्तुं’– अर्थः– जे प्राणी पोताना न्यायपूर्वकना जे भोग– उपभोग तेना कारणभूत जे सावद्य (हिंसासहित) वचन त्यागवाने असमर्थ छे तेओए बीजां बधां जूठ वचनोनो हंमेशा त्याग करवो जोईए.
भावार्थः– जूठनो त्याग बे प्रकारे छे. एक सर्वथा त्याग, बीजो एकदेश त्याग. सर्वथा त्याग तो मुनिधर्ममां ज बने छे तथा एकदेश त्याग श्रावकधर्ममां होय छे. जो सर्वथा त्याग बनी शके तो उत्तम ज छे, कदाच कषायना उदयथी (अर्थात् कषायवश) सर्वथा त्याग न बने तो एकदेश त्याग तो अवश्य ज करवो जोईए. कारण के श्रावक अवस्थामां अन्य जूठना सर्व भेदोनो त्याग करे छे पण सावद्य जूठनो त्याग करी शके नहि, तो त्यां पण पोताना भोग–उपभोगना निमित्ते ज सावद्य जूठ बोले, प्रयोजन विना बोले नहि. १०१.
अन्वयार्थः– [यत्] जे [प्रमत्तयोगात्] प्रमादकषायना योगथी [अवितीर्णस्य] आप्या विना [परिग्रहस्य] सुवर्ण वस्त्रादि परिग्रहनुं [ग्रहणं] ग्रहण करे छे [तत्] तेने [स्तेयं] चोरी [प्रत्येयं] जाणवी जोईए. [च] अने [सा एव] ते ज [वधस्य] वधनुं [हेतुत्वात्] कारण होवाथी [हिंसा] हिंसा छे.
टीकाः– ‘यत् प्रमत्तयोगात् अवितीर्णस्य परिग्रहस्य ग्रहणं तत् स्तेयं प्रत्येयं, च सैव हिंसा (भवति) वधस्य हेतुत्वात्’– अर्थः– जे प्रमादना योगथी दीधा विना
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सुवर्ण वस्त्रादि परिग्रहनुं ग्रहण करवुं तेने ज चोरी कहे छे. ते ज चोरी हिंसा छे. केमके पोताना अने परना जीवना प्राणघातनुं कारण छे.
भावार्थः– पोताने चोरी करवाना भाव थया ते भावहिंसा अने जे पोताने चोर जाणतां प्राणनो वियोग करवामां आवे ते द्रव्यहिंसा. जे जीवनी वस्तु चोरवामां आवी तेने अंतरंगमां पीडा थई ते तेनी भावहिंसा छे अने ते वस्तुना निमित्ते तेना जे द्रव्यप्राण पुष्ट हता ते पुष्ट प्राणोनो नाश थयो, ते द्रव्यप्राणोमां पीडा थई ए कारणे परनी द्रव्यहिंसा. आ रीते चोरी करवाथी चोरी करनारनी तथा जेनी चोरी थई छे तेनी द्रव्यहिंसा अने भावहिंसा बन्ने प्रकारे थाय छे. १०२.
अन्वयार्थः– [यः] जे [जनः] मनुष्य [यस्य] जे जीवना [अर्थान्] पदार्थो अथवा धन [हरति] हरे छे [सः] ते मनुष्य [तस्य] ते जीवना [प्राणान्] प्राण [हरति] हरे छे, केमके जगतमां [ये] जे [एते] आ [अर्था नाम] धनादि पदार्थो प्रसिद्धि छे [एते] ते बधा ज [पुंसां] मनुष्योने [बहिश्चराः प्राणाः] बाह्यप्राण [सन्ति] छे.
टीकाः– ‘ये एते अर्था नाम एते पुंसाम् बहिश्चराः प्राणाः सन्ति यस्मात् यः जनः यस्य अर्थान् हरति स तस्य प्राणान् हरति’– आ जे पदार्थो छे ते मनुष्यना बाह्यप्राण छे. तेथी जे जीव जेनुं धन हरे छे, चोरे छे ते तेना प्राणने ज हरे छे.
भावार्थः– धन, धान्य, संपत्ति, बळद, घोडा, दास, दासी, घर, जमीन, पुत्र, स्त्री, वस्त्रादि जेटला पदार्थो जे जीवने छे ते जीवने एटला ज बाह्यप्राण छे. ते पदार्थोमांथी कोई पदार्थनो नाश थतां पोताना प्राणघात जेटलुं ज दुःख थाय छे. तेथी पदार्थोने ज प्राण कहेवामां आव्या छे. जेमके अन्नं वै प्राणाः इति वचनात्– (अन्न ते ज प्राण छे ए वचन प्रमाणे.) १०३.
ग्रहणे प्रमत्तयोगो द्रव्यस्य स्वीकृतस्यान्यैः।। १०४।।
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अन्वयार्थः– [हिंसायाः] हिंसामां [च] अने [स्तेयस्य] चोरीमां [अव्याप्तिः] अव्याप्तिदोष [न] नथी, [सा सुघटमेव] ते हिंसा बराबर घटे छे, [यस्मात्] कारण के [अन्यैः] बीजाना [स्वीकृतस्य] स्वीकारेला [द्रव्यस्य] द्रव्यना [ग्रहणे] ग्रहणमां [प्रमत्तयोगः] प्रमादनो योग छे.
टीकाः– ‘हिंसायाः स्तेयस्य अव्याप्तिः न सा सुघटमेव यस्मात् अन्यैः स्वीकृतस्य द्रव्यस्य ग्रहणे प्रमत्तयोगः भवति’– अर्थः– हिंसामां अने चोरीमां अव्यापकपणुं नथी पण सारी रीते व्यापकपणुं छे. केमके बीजा ए मेळवेला पदार्थमां पोतापणानी कल्पना करवी तेमां प्रमादयोग ज मुख्य कारण छे.
भावार्थः– जो कोई जीवने कोई काळे (–जे समये) ज्यां चोरी छे त्यां हिंसा न होय तो अव्याप्ति नाम पामे, पण प्रमाद विना तो चोरी बने नहि. प्रमादनुं नाम ज हिंसा छे अने चोरीमां प्रमाद अवश्य छे. माटे एम सिद्ध थयुं के ज्यां ज्यां चोरी छे त्यां त्यां अवश्य ज हिंसा छे. १०४.
अपि कर्म्मानुग्रहणे नीरागाणामविद्यमानत्वात्।। १०५।।
अन्वयार्थः– [च] अने [नीरागाणाम्] वीतरागी पुरुषोने [प्रमत्तयोगैककारण– विरोधात्] प्रमादयोगरूप एक कारणना विरोधथी [कर्म्मानुग्रहणे] द्रव्यकर्म नोकर्मनी कर्मवर्गणाओ ग्रहण करवामां [अपि] निश्चयथी [स्तेयस्य] चोरी [अविद्यमानत्वात्] उपस्थित न होवाथी [तयोः] ते बन्नेमां अर्थात् हिंसा अने चोरीमां [अतिव्याप्तिः] अतिव्याप्ति पण [न] नथी.
टीकाः– ‘च तयोः (हिंसा स्तेययोः) अतिव्याप्तिः च न अस्ति यतः नीरागाणां प्रमत्तयोगैककारण विरोधात् कर्मानुग्रहणे अपि हिंसायाः अविद्यमानत्वात्’– अर्थः– हिंसा अने चोरीमां अतिव्याप्तिपणुं पण नथी, अर्थात् चोरी होय अने हिंसा न थाय एम नथी. तथा हिंसा होय अने चोरी न होय एम पण नथी केमके वीतरागी महापुरुषोने प्रमादसहित योगनुं कारण नथी, ते कारणे द्रव्यकर्म–नोकर्मनी वर्गणाओनुं ग्रहण होवा छतां पण चोरीनो सद्भाव नथी, प्रमाद न होवाथी, दीधा विना वस्तुनुं ग्रहण ते चोरी छे. वीतरागी अर्हंत भगवानने कर्म–नोकर्म वर्गणाओनुं ग्रहण
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होय छे अने ते वर्गणाओ कोईनी आपेली नथी माटे तेमने चोरीनो प्रसंग आवे. परंतु प्रमाद अने योग विना चोरी होती नथी. प्रमादयोग छे ते ज हिंसा छे तेथी अतिव्याप्तिपणुं नथी. जो हिंसा प्रमाद विना चोरी थई शकती होत तो अतिव्याप्ति दोष आवत, पण ते तो अहीं नथी. माटे ए वात सिद्ध थई के ज्यां हिंसा नथी त्यां चोरी पण नथी अने ज्यां चोरी नथी त्यां हिंसा पण नथी. १०प.
तैरपि समस्तमपरं नित्यमदत्तं
अन्वयार्थः– [ये] जेओ [निपानतोयादिहरणविनिवृत्तिम्] बीजानां कुवा, वाव आदि जळाशयोनुं जळ वगेरेनुं ग्रहण करवानो त्याग [कर्तुंम्] करवाने [असमर्था] असमर्थ छे [तैः] तेमणे [अपि] पण [अपरं] अन्य [समस्तं] सर्व [अदत्तं] दीधा विनानी वस्तुओ ग्रहण करवानो [नित्यम्] हंमेशा [परित्याज्यम्] त्याग करवो योग्य छे.
टीकाः– ‘ये (जीवाः) निपानतोयादिहरणविनिवृत्तिम् कर्तुं असमर्थाः तैः (जीवैः) अपि नित्यं समस्तं अपरंअदत्तं परित्याज्यम्’– जे जीवो कुवा, नदीनुं, जळथी मांडीने माटी वगेरे वस्तुओ–जे सामान्य जनताना उपयोगने माटे होय छे–तेना ग्रहणनो त्याग करवा अशक्त छे ते जीवोए पण हंमेशा बीजानी दीधा सिवायनी बधी वस्तुओना ग्रहणनो त्याग करवो जोईए.
भावार्थः– चोरीनो त्याग पण बे प्रकारे छे. एक सर्वथा त्याग, बीजो एकदेश त्याग. सर्वथा त्याग तो मुनिधर्ममां ज होय. ते जो बनी शके तो अवश्य करवो. कदाच न बने तो एकदेश त्याग तो अवश्य करवो जोईए. श्रावक कुवा–नदीनुं पाणी, खाणनी माटी कोईने पूछया विना ग्रहण करे तोपण चोरी नाम पामे नहि, अने जो मुनि तेने ग्रहण करे तो चोरी नाम पामे. १०६.
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अन्वयार्थः– [यत्] जे [वेदरागयोगात्] वेदना रागरूप योगथी [मैथुनं] स्त्री– पुरुषोनो सहवास [अभिधीयते] कहेवामां आवे छे [तत्] ते [अब्रह्म] अब्रह्म छे अने [तत्र] ते सहवासमां [वधस्य] प्राणिवधनो [सर्वत्र] सर्वस्थानमां [सद्भावात्] सद्भाव होवाथी [हिंसा] हिंसा [अवतरित] थाय छे.
टीकाः– ‘यत् वेदरागयोगात् मैथुनं अभिधीयते तत् अब्रह्म भवति तत्र हिंसा अवतरति (यतः) सर्वत्र वधस्य सद्भावात्’– जे पुरुषवेद, स्त्रीवेद अने नपुंसकवेदना परिणमनरूप रागभाव सहितना योगथी मैथुन अर्थात् स्त्री–पुरुषे मळीने कामसेवन करवुं ते कुशील छे. ते कुशीलमां हिंसा उत्पन्न थाय छे कारण के कुशील करनार अने करावनारने सर्वत्र हिंसानो सद्भाव छे.
भावार्थः– स्त्रीनी योनि, नाभि, कुच अने कांखमां मनुष्याकारना असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव उत्पन्न थाय छे, तेथी स्त्री साथे सहवास करवाथी द्रव्यहिंसा थाय छे अने स्त्री–पुरुष बन्नेने कामरूप परिणाम थाय छे तेथी भावहिंसा थाय छे. शरीरनी शिथिलतादिना निमित्ते पोताना द्रव्यप्राणनो घात थाय छे. पर जीव स्त्री के पुरुषना विकार परिणामनुं कारण छे अथवा तेने पीडा ऊपजे छे, तेना परिणाम विकारी थाय छे तेथी अन्य जीवना भावप्राणनो घात थाय छे. वळी मैथुनमां घणां जीवो मरे छे, ए रीते अन्य जीवना द्रव्यप्राणनो घात थाय छे. १०७.
बहवो जीवा योनौ हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत्।। १०८।।
अन्वयार्थः– [यद्वत्] जेम [तिलनाल्यां] तलनी नळीमां [तप्तायसि विनिहिते] तपेला लोखंडनो सळियो नाखवाथी [तिलाः] तल [हिंस्यन्ते] बळी जाय छे [तद्वत्] तेम [मैथुने] मैथुन वखते [योनौ] योनिमां पण [बहवो जीवाः] घणा जीवो [हिंस्यन्ते] मरे छे.
टीकाः– ‘यद्वत् तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते (सति) तिलाः हिंस्यन्ते तद्वत् योनौ मैथुने (कृते सति) बहवो जीवाः हिंस्यन्ते’– जेम तलथी भरेली नळीमां तपावेलो लोखंडनो सळियो नाखवाथी ते नळीना बधा तल बळी जाय छे तेम स्त्रीना अंगमां पुरुषनां अंगथी मैथुन करवामां आवतां योनिगत जे जीवो होय छे ते बधा तरत ज मरण पामे छे ए ज प्रगटरूपे द्रव्यहिंसा छे. १०८.
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तत्रापि भवति हिंसा रागाद्युत्पत्तितन्त्रत्वात्।। १०९।।
अन्वयार्थः– अने [अपि] ए उपरांत [मदनोद्रेकात्] कामनी उत्कटताथी [यत् किञ्चित्] जे कांई [अनङ्गरमणादि] अनंगक्रीडा [क्रियते] करवामां आवे छे [तत्रापि] तेमां पण [रागाद्युत्पत्तितन्त्रत्वात्] रागादिनी उत्पत्तिने कारणे [हिंसा] हिंसा [भवति] थाय छे.
टीकाः– ‘यत् अपि मदनोद्रेकात् अनङ्गरमणादि किञ्चित् क्रियते तत्रापि हिंसा भवति रागाद्युत्पत्तितन्त्रत्वात्’– जे जीव तीव्र चारित्रमोह कर्मना उदयथी (उदयमां जोडावाथी) तीव्र कामविकार थवाने लीधे अनंगक्रीडा करे छे त्यां पण हिंसा थाय छे. केमके हिंसानुं थवुं रागादिनी उत्पत्तिने आधीन छे. जो रागादि न थाय तो हिंसा कदी थई शकती नथी. माटे ए सिद्ध थयुं के अनंगक्रीडामां पण हिंसा थाय छे. १०९.
निःशेषशेषयोषिन्निषेवणं तैरपि न कार्यम्।। ११०।।
अन्वयार्थः– [ये] जे जीव [मोहात्] मोहने लीधे [निजकलत्रमात्रं] पोतानी विवाहिता स्त्रीने ज [परिहर्तुं] छोडवाने [हि] निश्चयथी [न शक्नुवन्ति] समर्थ नथी [तैः] तेमणे [निःशेषशेषयोषिन्निषेवणं अपि] बाकीनी स्त्रीओनुं सेवन तो अवश्य ज [न] न [कार्यम्] करवुं जोईए.
टीकाः– ‘ये (जीवाः) हि मोहात् निजकलत्रमात्रं परिहर्तुं हि न शक्नुवन्ति तैरपि निःशेषशेषयोषिन्निषेवणं न कार्यम्’– जे जीव अप्रत्याख्यानावरण चारित्रमोहनीयना उदयथी (–उदयवशे)पोतानी विवाहिता स्त्रीने छोडवाने शक्तिमान नथी तेओए (विवाहिता स्त्री सिवायनी) संसारनी समस्त स्त्रीओ साथे कामसेवन न करवुं पोतानी विवाहिता स्त्रीमां ज संतोष राखवो. ए एकदेश ब्रह्मचर्यव्रत छे, तथा स्त्रीमात्रनी साथे कामसेवन करवानो त्याग करवो ते महाव्रत छे. ११०.