Purusharth Siddhi Upay-Gujarati (Devanagari transliteration). Aparigrah Vrat; Shlok: 111-142 ; 7 (Saat) Sheel Vrat.

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परिग्रह पापनुं स्वरूप

या मूर्च्छा नामेयं विज्ञातव्यः परिग्रहो ह्येषः।
मोहोदयादुदीर्णो
मूर्च्छा तु ममत्वपरिणामः।। १११।।

अन्वयार्थः– [इयं][या] जे [मूर्च्छा नाम] मूर्च्छा छे [एषः] एने ज [हि] निश्चयथी [परिग्रहः] परिग्रह [विज्ञातव्यः] जाणवो जोईए. [तु] अने [मोहोदयात्] मोहना उदयथी [उदीर्णः] उत्पन्न थयेल [ममत्वपरिणामः] ममत्वरूप परिणाम ज [मूर्च्छा] मूर्च्छा छे.

टीकाः– ‘या इयं मूर्च्छा नाम हि एषः परिग्रहः विज्ञातव्यः तु (पुनः) मोहोदयात् उदीर्णः ममत्वपरिणाम मूर्च्छा (अस्ति)’ – हे भव्य जीवो! जे आ मूर्च्छा छे ते ज खरेखर परिग्रह छे. मूर्च्छा एटले शुं? ते कहे छे. चारित्रमोहनीय कर्मना उदयथी उदयने प्राप्त थयेल जे ममत्वपरिणाम (अर्थात् आ मारुं छे एवा परिणाम) तेने ज मूर्च्छा कहे छे. १११.

ममत्वपरिणाम ज वास्तविक परिग्रह छे ए वातने द्रढ करे छेः–

मूर्छालक्षणकरणात् सुघटा व्याप्तिः परिग्रहत्वस्य।
सग्रन्थो मूर्च्छावान विनापि
किल शेषमङ्गेभ्यः।। ११२।।

अन्वयार्थः– [परिग्रहत्वस्य] परिग्रहपणानुं [मूर्छालक्षणकरणात्] मूर्छा लक्षण करवाथी [व्याप्तिः] व्याप्ति [सुघटा] सारी रीते घटित थाय छे, केम के [शेषसङ्गेभ्यः] बीजा परिग्रह [विना अपि] विना पण [मूर्छावान्] मूर्छा करनार पुरुष [किल] निश्चयथी [सग्रन्थः] बाह्य परिग्रह सहित छे.

टीकाः– ‘परिग्रहत्वस्य मूर्छालक्षणकरणात् व्याप्तिः सुघटा (यतः) किल शेषसंगेभ्यः विना अपि मूर्छावान् सग्रन्थः भवति’– परिग्रहना भावनुं लक्षण मूर्च्छा कर्युं तेमां व्याप्ति बराबर बने छे. केम के धन–धान्यादि बाह्य परिग्रह विना पण ममत्वपरिणामवाळो जीव परिग्रह सहित होय छे.

भावार्थः– साहचर्यना नियमने व्याप्ति कहे छे, अर्थात् ज्यां लक्षण होय त्यां लक्ष्य पण होय तेनुं नाम व्याप्ति छे. तेथी ज्यां ज्यां मूर्च्छा छे त्यां त्यां अवश्य परिग्रह छे अने ज्यां मूर्च्छा नथी त्यां परिग्रह पण नथी. मूर्च्छानी परिग्रहनी साथे


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व्याप्ति छे. कोई जीव नग्न छे, बाह्य परिग्रहथी रहित छे, पण जो अंतरंगमां मूर्च्छा अर्थात् ममत्वपरिणाम छे तो ते परिग्रहवान ज छे. अने एक ममत्वना त्यागी दिगंबर मुनिने पींछी, कमंडळरूप बाह्य परिग्रह होवा छतां पण अंतरंगमां ममत्व नथी तेथी ते वास्तविक परिग्रहथी रहित ज छे. ११२.

शंकाकारनी शंका

यद्येवं भवति तदा परिग्रहो न खलु कोऽपि बहिरङ्ग।
भवति नितरां यतोऽसौ
धत्ते मूर्छानिमित्तत्वम्।। ११३।।

अन्वयार्थः– [यदि]जो [एवं] आम [भवति] छे अर्थात् मूर्च्छा ज परिग्रह होय [तदा तो [खलु] निश्चयथी [बहिरङ्गः परिग्रहः] बाह्य परिग्रह [कः अपि] कांई पण [न भवति] नहि सिद्ध थाय, तो एम नथी [यतः] केम के [असौ] ए बाह्य परिग्रह [मूर्छानिमित्तत्वम्] मूर्च्छाना निमित्तपणाने [नितरां] अतिशयपणे [धत्ते] धारण करे छे.

टीकाः– प्रश्न– ‘खलु यदि एवं भवति तदा बहिरंगः कोऽपि परिग्रहः न (स्यात्)

उत्तरः– यः असौ (बहिरंगः) नितरां मूर्छानिमित्तत्वम् धत्ते’– अहीं कोई प्रश्न करे छे के जो निश्चयथी मूर्च्छानुं ज नाम परिग्रह छे तो पछी धन–धान्यादि बाह्यवस्तु परिग्रह न ठरी. एने परिग्रह शा माटे कहो छो? श्रीगुरु उत्तर आपे छेः–आ बाह्य धन–धान्यादि तो अत्यंतपणे परिग्रह छे केम के बाह्यवस्तु ज मूर्च्छानुं कारण छे.

भावार्थः– परिग्रहनुं लक्षण तो मूर्च्छा ज छे. पण बाह्य धन–धान्यादि वस्तु मूर्च्छा उपजाववाने (निमित्त) कारण छे माटे तेने पण परिग्रह कहीए छीए. ११३.

शंकाकारनी शंका

एवमतिव्याप्तिः स्यात्परिग्रहस्येति चेद्भवेन्नैवम्।
यस्मादकषायाणां कर्मग्रहणे
न मूर्च्छास्ति।। ११४।।

अन्वयार्थः– [एवं] आ रीते [परिग्रहस्य] बाह्य परिग्रहनी [अतिव्याप्तिः] अतिव्याप्ति [स्यात्] थाय छे [इति चेत्] एम जो कदाच कहो तो [एवं] एम [न भवेत्] थतुं नथी [यस्मात्] कारण के [अकषायाणां] कषायरहित अर्थात् वीतरागी पुरुषोने [कर्मग्रहणे] कार्मणवर्गणाना ग्रहणमां [मूर्च्छा] मूर्च्छा [नास्ति] नथी.


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टीकाः– ‘एवं परिग्रहस्य अतिव्याप्तिः स्यात् इति चेत् न एवं भवेत् यस्मात् अकषायाणां कर्मग्रहणे मूर्च्छा नास्ति’– अर्थः– अहीं कोई प्रश्न करे के जो परिग्रहने मूर्च्छा उत्पन्न करवानुं निश्चयकारण कहेशो तो (मूर्च्छा परिग्रहः) ए लक्षणमां अतिव्याप्ति दोष आवशे, केमके अर्हंत अवस्थामां पण कार्मणवर्गणा तथा नोकर्मवर्गणा–ए बन्नेना ग्रहणरूप परिग्रह छे त्यां पण मूर्च्छा थई जशे. तो तेम नथी, कारण के कषायरहित जीवोने कर्म–नोकर्मनुं ग्रहण होवा छतां पण मूर्च्छा अर्थात् ममत्वपरिणाम नथी.

भावार्थः– अतिव्याप्ति तो त्यारे थाय जो निष्परिग्रही वीतरागी महापुरुषोने मूर्च्छा होय. ते तो तेमने होती नथी, माटे वीतरागी अर्हंत भगवानने कर्म–नोकर्मनुं ग्रहण होवा छतां पण मूर्च्छा विना परिग्रह नाम पामतुं नथी. तेथी अतिव्याप्ति दोष नथी. बाह्यवस्तु मूर्च्छा उपजाववानुं कारणमात्र छे तेथी तेने उपचारथी परिग्रह कही दीधेल छे. वास्तवमां परिग्रहनुं लक्षण मूर्च्छा ज छे. ११४.

परिग्रहना भेद

अतिसंक्षेपाद् द्विविधः स भवेदाभ्यन्तरश्च बाह्यश्च।
प्रथमश्चतुर्दशविधो भवति द्विविधो
द्वितीयस्तु।। ११५।।

अन्वयार्थः– [सः] ते परिग्रह [अतिसंक्षेपात्] अत्यंत संक्षिप्तपणे [आभ्यन्तरः] अंतरंग [च] अने [बाह्मः] बहिरंग [द्विविधः] बे प्रकारे [भवेत्] छे [च] अने [प्रथमः] पहेलो अंतरंग परिग्रह [चतुर्दशविधः] चौद प्रकारनो [तु] तथा [द्वितीयः] बीजो बहिरंग परिग्रह [द्विविधः] बे प्रकारनो [भवति] छे.

टीकाः– ‘स (परिग्रहः) अति संक्षेपात् द्विविधः आभ्यन्तरः बाह्यश्च प्रथमः (आभ्यन्तरः) चतुर्दशविधः भवति द्वितीयस्तु द्विविधः भवति’– अर्थः– ते परिग्रह संक्षेपमां बे प्रकारनो छे. पहेलो आभ्यंतर, बीजो बाह्य. अंतरंग आत्माना परिणामने आभ्यंतर परिग्रह कहे छे अने बहारना बधा पदार्थोने बाह्य परिग्रह कहे छे. पहेलो परिग्रह चौद प्रकारनो छे, बीजो बाह्य परिग्रह बे प्रकारनो छे. ११प.

आभ्यंतर परिग्रहना चौद भेद

मिथ्यात्ववेदरागास्तथैव हास्यादयश्च षड् दोषा।
चत्वारश्च कषायाश्चतुर्दशाभ्यन्तरा
ग्रन्थाः।। ११६।।


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अन्वयार्थः– [मिथ्यात्ववेदरागाः] मिथ्यात्व, स्त्री, पुरुष अने नपुंसक वेदना राग [तथैव च] ए ज रीते [हास्यादयः] हास्यादि अर्थात् हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ए [षड् दोषाः] छ दोष [च] अने [चत्वारः] चार अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ अथवा अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरणी, प्रत्याख्यानावरणी अने संज्वलन ए चार [कषाया] कषायभाव–आ रीते [आभ्यन्तराः ग्रन्थाः] अंतरंग परिग्रह [चतुर्दश] चौद छे.

टीकाः– ‘आभ्यन्तराः ग्रन्थाः मिथ्यात्ववेदरागाः तथैव हास्यादयः षड् दोषाः च चत्वारः कषायाः –चतुर्दश (भवति)’– अर्थः– आभ्यंतर परिग्रह १४ प्रकारनो छे. १ मिथ्यात्व, २ पुरुषवेद, ३ स्त्रीवेद, ४ नपुंसकवेद तथा प हास्य, ६ रति, ७ अरति, ८ शोक, ९भय, १० जुगुप्सा अने ११ क्रोध, १२ मान, १३ माया, १४ लोभ–ए १४ आभ्यंतर परिग्रह छे. ११६.

बाह्य परिग्रहना बे भेद

अथ निश्चित्तसचितौ बाह्यस्य परिग्रहस्य भेदौ द्वौ।
नैषः कदापि सङ्गः सर्वोऽप्यतिवर्तते
हिंसाम्।। ११७।।

अन्वयार्थः– [अथ] त्यार पछी [बाह्यस्य] बहिरंग [परिग्रहस्य] परिग्रहनां [निश्चित्तसचित्तौ] अचित्त अने सचित्त ए [द्वौ] बे [भेदौ] भेद छे. [एषः] [सर्वः अपि] बधाय [सङ्ग] परिग्रह [कदापि] कोईपण काळे [हिंसाम्] हिंसानुं [न अतिवर्तते] उल्लंघन करता नथी अर्थात् कोईपण परिग्रह कदीपण हिंसारहित नथी.

टीकाः– ‘अथ बाह्यस्य परिग्रहस्य निश्चित सचित्तौ द्वौ भेदौ (भवतः) एषः सर्वोऽपि (परिग्रहः) सङ्ग हिंसाम् कदापि न अतिवर्तते’– अर्थः– बाह्य परिग्रहनां चेतन अने अचेतन ए बे भेद छे. आ जे बधोय परिग्रह छे ते हिंसानुं उल्लंघन करतो नथी, अर्थात् हिंसा विना परिग्रह होतो नथी. ११७.

हिंसा–अहिंसानुं लक्षण

उभयपरिग्रहवर्जंनमाचार्याः सूचयन्त्यहिंसेति।
द्विविधपरिग्रहवहनं
हिंसेति जिनप्रवचनज्ञाः।। ११८।।


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अन्वयार्थः– [जिनप्रवचनज्ञाः] जैन सिद्धांतना ज्ञाता [आचार्याः] आचार्यो [उभयपरिग्रहवर्जंनम्] बन्ने प्रकारनां परिग्रहनां त्यागने [अहिंसा] अहिंसा [इति] एम अने [द्विविधपरिग्रहवहनं] बन्ने प्रकारना परिग्रहनां धारणने [हिंसा इति] हिंसा एम [सूचयन्ति] सूचवे–कहे छे.

टीकाः– ‘जिन प्रवचनज्ञाः आचार्योः उभयपरिग्रहवर्जनं अहिंसा (भवति) इति सूचयन्ति तथा द्विविधपरिग्रहवहनं हिंसा (भवति) इति सूचयन्ति’– अर्थः– जैन सिद्धांतने जाणनार आचार्यो, ‘बन्ने प्रकारना अंतरंग अने बाह्य परिग्रहनो त्याग करवो ते अहिंसा छे अने बन्ने प्रकारना परिग्रहने धारण करवो ते हिंसा छे’ एम कहे छे. परिग्रहत्याग विना अहिंसानी सिद्धि नथी. ११८.

बन्ने परिग्रहोमां हिंसा छे एम बतावे छेः–

हिंसापर्यायत्वात् सिद्धा हिंसान्तरङ्गसङ्गेषु।
बहिरङ्गेषु तु नियतं प्रयातु र्मर्छैव हिंसात्वम्।। ११९।।

अन्वयार्थः– [हिंसापर्यायत्वात्] हिंसाना पर्यायरूप होवाथी [अन्तरङ्गसङ्गेषु] अंतरंग परिग्रहोमां [हिंसा] हिंसा [सिद्धा] स्वयंसिद्ध छे [तु] अने [बहिरङ्गेषु] बहिरंग परिग्रहोमां [मूर्छा] ममत्वपरिणाम [एव] [हिंसात्वम्] हिंसाभावने [नियतम्] निश्चयथी [प्रयातु] प्राप्त थाय छे.

टीकाः– ‘अन्तरंगसंगेषु हिंसापर्यायत्वात् हिंसा सिद्धा तु (पुनः) बहिरङ्गेषु नियतं मूर्छैव हिंसात्वं प्रयातु’– अंतरंग १४ प्रकारना परिग्रहोमां बधा ज भेद हिंसाना पर्याय होवाथी हिंसा सिद्ध ज छे. बहिरंग परिग्रहमां निश्चयथी ममत्वपरिणाम छे ते हिंसाने प्राप्त थाय छे.

भावार्थः– अंतरंग परिग्रह जे मिथ्यात्वादि १४ प्रकारनो छे ते बधुं जीवनुं विभाव (–विकारी) परिणाम छे. ते कारणे ते तो हिंसा ज छे, परंतु बाह्यवस्तुमां पण निश्चयथी ममत्वपरिणाम छे ते ज हिंसानुं कारण छे. बाह्यवस्तुमां जे ममत्वपरिणाम छे तेनुं ज नाम परिग्रह छे. केवळीने समवसरणादि विभूति होय छे पण ममत्वपरिणाम विना परिग्रह नथी. अथवा जे कोई परिग्रहने अंगीकार करीने कहे के मारे तो ममत्वपरिणाम नथी तो ते जूठुं छे, कारण के ममत्व विना अंगीकार थाय नहि. ११९.

जो बहिरंग पदार्थमां ममत्वपरिणामनुं होवुं ज परिग्रह छे तो बधामां सरखो ज परिग्रहजन्य पापबंध थवो जोईए.


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एवं न विशेषः स्यादुन्दुरुरिपुहरिणशावकादीनाम्।
नैवं भवति विशेषस्तेषां मूर्छाविशेषेण।। १२०।।

अन्वयार्थः– [एवं] जो एम ज होय अर्थात् बहिरंग परिग्रहमां ममत्वपरिणामनुं नाम ज मूर्छा होय तो [उन्दुरुरिपुहरिणशावकादीनां] बिलाडी अने हरणनां बच्चां वगेरेमा[विशेषः] कांई विशेषता [न स्यात्] नहि रहे. पण [एवं] एम [न भवति] नथी, कारण के [मूर्छाविशेषेण] ममत्वपरिणामोनी विशेषताथी [तेषां] ते बिलाडी अने हरणना बच्चां वगेरे जीवोमां [विशेषः] विशेषता छे, अर्थात् समानता नथी.

टीकाः– प्रश्न–‘यदि एवं हि तर्हि उन्दुरुरिपु–हरिणशावकादीनाम् विशेषः न।

उत्तरः– एवं न भवति–तेषां मूर्छाविशेषण विशेषः भवति।’– अहीं कोई शंका करे छे के जो बाह्य पदार्थमां ज ममत्वपरिणाम हिंसानुं कारण छे अने ते ममत्वपरिणाम सामान्य रीते बधा जीवोने होय छे तो बधा ज जीवोने सरखुं पाप थवुं जोईए. जेम के मांसाहारी बिलाडी अने घास खानार हरणना बच्चामां भोजन करवा संबंधी ममत्वपरिणाम सामान्यपणे सरखा ज छे. त्यारे आचार्य भगवान तेने उत्तर आपे छे के एम नथी. बिलाडी अने हरणनां बच्चांनी बाबतमां पण विशेषता छे, समानता नथी. केमके बिलाडीने तो मांस खावाना परिणाम छे अने हरणनां बच्चांने घास खावाना परिणाम छे. बस, आ ममत्वविशेष होवाथी विशेषता छे. १२०.

ममत्व–मूर्छामां विशेषता

हरिततृणाङ्कुरचारिणिमन्दा मृगशावके भवति मूर्छा।
उन्दुरनिकरोन्माथिनि मार्जारे सैव
जायते तीव्रा।। १२१।।

अन्वयार्थः– [हरिततृणाङ्कुरचारिणि] लीला घासना अंकुर खानार [मृगशावके] हरणना बच्चामां [मूर्छा] मूर्छा [मन्दा] मंद [भवति] होय छे अने [स एव] ते ज मूर्छा [उन्दुरनिकरोन्माथिनि] उंदरोना समूहनुं उन्मथन करनार [मार्जारे] बिलाडीमां [तीव्रा] तीव्र [जायते] होय छे.

टीकाः– ‘हरिततृणाङ्कुरचारिणि मृगशावके मन्दा मूर्छा भवति तथा सैव मूर्छा उन्दुरनिकरोन्माथिनि मार्जारे तीव्रा जायते’– अर्थः–लीला घासना अंकुर खानार


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हरणनुं बच्चुं छे तेने घास खावामां पण ममत्व बहु ओछुं छे, अने उंदरोना समूहने खानार बिलाडीने उंदर खावामां बहु तीव्र ममत्व छे. बस आ ज विशेषता छे.

भावार्थः– प्रथम तो हरणना बच्चाने लीला घासमां अधिक लालसा नथी, पछी खावामां घणी सरागता पण नथी तथा खाती वखते जो जरापण भय प्राप्त थाय तो ते ज वखते छोडीने भागी जाय छे. तेथी जणाय छे के तेने अत्यंत आसक्ति नथी. उंदरोना समूहने मारनार बिलाडीने उंदर खावानी लालसा घणी छे, पछी उंदरोने मार्या पछी तेने खावामां सरागता पण घणी छे तथा जे वखते ते उंदरोने खाती होय त्यारे तेना उपर लाकडी पण पडे तोये महामुश्केलीए तेने छोडे छे, तेथी जणाय छे के हरणना बच्चा अने बिलाडीनी मूर्च्छामां घणो फेर छे. एवी ज रीते घणा आरंभ–परिग्रहवाळा अने अल्प आरंभ–परिग्रहवाळामां पण तफावत जाणवो. १२१.

आगळ आ प्रयोजन सिद्ध करे छेः–

निर्बाधं संसिध्येत् कार्यविशेषो हि कारणविशेषात्।
औधस्यखण्डयोरिह माधुर्य्यप्रीतिभेद
इव।। १२२।।

अन्वयार्थः– [औधस्यखण्डयोः] दूध अने साकरमां [माधुर्य्यप्रीतिभेदः इव] मधुरताना प्रीतिभेदनी जेम [इह] आ लोकमां [हि] निश्चयथी [कारणविशेषात्] कारणनी विशेषताथी [कार्यविशेषः] कार्यनी विशेषता [निर्बाधं] बाधारहितपणे [संसिध्यते्] सारी रीते सिद्ध थाय छे.

टीकाः– हि कारणविशेषात् कार्यविशेषः निर्बाध संसिध्येत् यथा औधस्यखण्डयोः इह माधुर्य्यप्रीतिभेदः इव भवति– अर्थः– निश्चयथी कारणनी विशेषता होवाथी कार्यनी विशेषता छे. जेम गायना दूधमां अने खांडमां ओछीवत्ती मिठाश होय छे ते ज ओछीवत्ती प्रीति उत्पन्न करे छे. गायना स्तन उपर जे दूध रहेवानी थेली छे तेने औध कहे छे, तेमांथी उत्पन्न थयेलने औधस एटले दूध कहे छे.

भावार्थः– एवो नियम छे के जेवुं कारण होय तेवुं ज कार्य उत्पन्न थाय छे. जेम दूधमां मिठाश ओछी छे अने साकरमां मिठाश वधारे छे तेथी दूधमां प्रीति ओछी थाय छे अने साकरमां प्रीति वधारे थाय छे. १२२.


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उदाहरण कहे छेः–

माधुर्यप्रीतिः किल दुग्धे मन्दैव मन्दमाधुर्ये।
सैवोत्कटमाधुर्ये
खण्डे व्यपदिश्यते तीव्रा।। १२३।।

अन्वयार्थः– [किल] निश्चयथी [मन्दमाधुर्ये] ओछी मिठाशवाळा [दुग्धे] दूधमां [माधुर्यप्रीतिः] मिठाशनी रुचि [मन्दा] थोडी [एव] [व्यपदिश्यते] कहेवामां आवे छे अने [सा एव] ते ज मिठाशनी रुचि [उत्कटमाधुर्ये] अत्यंत मिठाशवाळी [खण्डे] साकरमां [तीव्रा] अधिक कहेवामां आवे छे.

टीकाः– ‘किल मन्दमाधुर्ये दुग्धे माधुर्यप्रीतिः मंदा व्यपदिश्यते तथा सेव माधुर्यप्रीतिः उत्कटमाधुर्ये खण्डे तीव्रा व्यपदिश्यते’– अर्थः– निश्चयथी थोडी मिठाशवाळा दूधमां मिष्टरसनी रुचिवाळा पुरुषने रुचि बहु थोडी होय छे अने घणी मिठाशवाळी साकरमां ते ज पुरुषने रुचि घणी वधारे होय छे.

भावार्थः– जेम कोई मनुष्य मिष्टरसनो अभिलाषी छे तो तेनी रुचि दूधमां ओछी होय छे अने खांडमां वधारे होय छे; तेम जे मनुष्यने जेटलो पदार्थोमां ममत्वभाव हशे ते ते पुरुष तेटलो ज हिंसानो भागीदार थशे, वधारेनो नहि. भले तेनी पासे ते पदार्थो हाजर होय के न होय. अहीं कोई घणा आरंभ–परिग्रह करवावाळो जीव कहे के अमने ममत्वभाव नथी, पण परिग्रह घणो छे तो एम बनी शके नहि. केम के जो ममत्वभाव नहोतो तो बाह्य परिग्रह एकत्र ज शा माटे कर्यो? अने जो बाह्य परिग्रह होवा छतां पण ते जो ममत्वनो त्यागी होय तो ते आ बाह्य पदार्थोने एक क्षणमां छोडी शके छे. माटे सिद्ध थयुं के ममत्वभाव विना बाह्य पदार्थोनो संग्रह थई शकतो नथी. जेम जेम आपणो ममत्वभाव वधतो जाय छे तेम तेम आपणे बाह्य पदार्थोनो संग्रह पण करता जईए छीए. भावहिंसा विना द्रव्यहिंसा बनी शके छे पण ममत्वभाव विना बाह्य पदार्थोनो संग्रह थई शकतो नथी. १२३.

परिग्रह त्यागवानो उपाय

तत्त्वार्थाश्रद्धाने निर्युक्तं प्रथममेव मिथ्यात्वम्।
सम्यर्ग्दशनचौराः प्रथमकषायाश्च
चत्वारः।। १२४।।


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अन्वयार्थः– [प्रथमम्] पहेलां [एव] [तत्त्वार्थाश्रद्धाने] तत्त्वार्थना अश्रद्धानमां जेने [निर्युक्तं] संयुक्त कर्या छे एवा [मिथ्यात्वं] मिथ्यात्व [च] अने [सम्यग्दर्शनचौराः] सम्यग्दर्शनना चोर [चत्वारः] चार [प्रथमकषायाः] पहेलां कषाय अर्थात् अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया अने लोभ छे.

टीकाः– ‘प्रथमं तत्त्वार्थाश्रद्धाने मिथ्यात्वं निर्युक्तं–एवं मिथ्यात्वं च चत्वारः प्रथम कषायाः सम्यग्दर्शनचौराः सन्ति’– अर्थः– पहेलां तत्त्वार्थना मिथ्याश्रद्धानमां संयुक्त कर्या छे अर्थात् पहेलो मिथ्यात्व नामनो अंतरंग परिग्रह छे अने पहेली चोकडी अर्थात् अनंतानुबंधी क्रोध–मान–माया–लोभ ए चार छे. आ रीते सम्यग्दर्शनना ए पांच चोर छे. ज्यांसुधी एनो नाश थतो नथी त्यांसुधी सम्यग्दर्शन थतुं नथी.

भावार्थः– अहीं एम बतावे छे के आ अंतरंग चौद प्रकारना परिग्रहोनो केवी रीते त्याग करवो जोईए. पहेलां ज्यारे श्रावक सम्यग्दर्शन प्राप्त करे छे त्यारे मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी चोकडीनो नाश करे छे. अनादि मिथ्याद्रष्टिनी अपेक्षाए पांचनो नाश थाय छे अने सादि (मिथ्याद्रष्टि)नी अपेक्षाए सातनो नाश थाय छे.

बाकीना बीजा बतावे छेः–

प्रविहाय च द्वितीयान् देशचरित्रस्य सन्मुखायातः।
नियतं ते हि कषायाः देशचरित्रं
निरुन्धन्ति।। १२५।।

अन्वयार्थः– [च] अने [द्वितीयान्] बीजा कषाय अर्थात् अप्रत्याख्यानावरणी क्रोध–मान–माया–लोभने [प्रविहाय] छोडीने [देशचरित्रस्य] देशचारित्रनी [सन्मुखायातः] सन्मुख आवे छे, [हि] कारण के [ते] ते [कषायाः] कषाय [नियतं] नक्कीपणे [देशचरित्रं] एकदेश चारित्रने [निरुन्धन्ति] रोके छे.

टीकाः– ‘च श्रावकाः द्वितीयान् अप्रत्याख्यान क्रोधादीन् चतुष्कान् प्रविहाय देशचरित्रस्य सन्मुखायातः भवन्ति हि ते कषायाः नियतं देशचरित्रं निरुन्धन्ति।’ _________________________________________________________________ १. जेम हिंसाना प्रकरणमां कहेवामां आव्युं छे के कोई पुरुषथी जो बाह्य हिंसा थई जाय अने तेना

परिणाम ते हिंसा करवाना न होय–शुद्ध होय, तो ते हिंसानो भागीदार थतो नथी.

२. मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व अने सम्यग्प्रकृतिमिथ्यात्व.


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अर्थः– सम्यग्द्रष्टि श्रावक ते अप्रत्याख्यानावरण क्रोध–मान–माया–लोभ–आ चारे कषायोनो नाश करीने एकदेश चारित्र सन्मुख थाय छे अर्थात् ग्रहण करे छे. कारण के निश्चयथी ते ज अप्रत्याख्यानावरण आदि चारे देशचारित्र–श्रावकनां व्रतोनो घात करे छे आ रीते आ त्रीजो भेद अंतरंग परिग्रहनो थयो. १२प.

निजशक्त्या शेषाणां सर्वेषामन्तरङ्गसङ्गानाम्।
कर्त्तव्यः परिहारो
मार्दवशौचादिभावनया।। १२६।।

अन्वयार्थः– माटे[निजशक्त्या] पोतानी शक्तिथी [मार्दवशौचादिभावनया] मार्दव, शौच, संयमादि दशलक्षण धर्मद्वारा [शेषाणां] बाकीना [सर्वेषाम्] बधाय [अन्तरङ्गसङ्गानाम्] अंतरंग परिग्रहोनो [परिहारः] त्याग [कर्त्तव्यः] करवो जोईए.

टीकाः– ‘शेषाणां सर्वेषाम् अंतरंगसंगानाम् निजशक्त्या मार्दव शौचादि भावनया परिहारः कर्त्तव्यः’– अर्थः– अने बाकीना जे १० प्रकारना अंतरंग परिग्रह छे तेमने पोतानी शक्ति अनुसार पोताना कोमळ परिणाम तथा संतोषरूपी भावनाथी छोडवा अर्थात् यथाक्रम बधानो त्याग करवो.

भावार्थः– अंतरंग परिग्रह १४ प्रकारना छे तेमनां नाम आ ज ग्रन्थमां श्लोक ११६मां बताव्यां छे. १ मिथ्यात्व, ४ चोकडीरूप चार कषाय, तथा ९ हास्यादि नोकषाय– आ रीते १४ भेद छे. तेमनो क्रमपूर्वक त्याग करवो. तेमांथी मिथ्यात्व अने अनंतानुबंधी ४ कषाय छे ते सम्यग्दर्शन अने स्वरूपाचरणरूप चारित्रनो घात करे छे. अप्रत्याख्यानावरणी नामे चार कषाय छे ते देशचारित्रनो घात करे छे अर्थात् श्रावकपद थवा देता नथी. प्रत्याख्यानावरणी नामे चार कषाय ते सकलसंयमनो घात करे छे अर्थात् मुनिपद थवा देता नथी. तथा संज्वलनादि ४ अने हास्यादि ६ तथा ३ वेद–ए बधा यथाख्यातचारित्रना घातमां निमित्त छे. (निजशक्तिना बळथी) आ रीते आ बधां व्रतोने क्रमपूर्वक धारण करीने, अंतरंग परिग्रहने क्रमपूर्वक छोडवो जोईए. १२६. _________________________________________________________________ १. प्रत्याख्यानावरण–अ ईषत् थोडा, प्रत्याख्यान त्यागने, आवरण आच्छादित करवावाळा. २. नोकषाय १ हास्य, र रति, ३ अरति ४ शोक, प भय, ६ जुगुप्सा (ग्लानि), ७ स्त्रीवेद, ८

पुरुषवेद, ९ नपुंसकवेद


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बाह्य परिग्रह त्यागवानो क्रम

बहिरङ्गादपि सङ्गात् यस्मात्प्रभवत्यसंयमोऽनुचितः।
परिवर्जयेदशेषं
तमचित्तं वा सचित्तं वा।। १२७।।

अन्वयार्थः– [वा] तथा [तम्] ते बाह्य परिग्रहने [अचित्तं] भले ते अचेतन होय [वा] के [सचित्तं] सचेतन होय, [अशेषं] सम्पूर्णपणे [परिवर्जयेत्] छोडी देवा जोईए. [यस्मात्] कारण के [बहिरङ्गात्] बहिरंग [सङ्गात्] परिग्रहथी [अपि] पण [अनुचितः] अयोग्य अथवा निंद्य [असंयमः] असंयम [प्रभवति] थाय छे.

टीकाः– ‘यस्मात् बहिरंगात् अपि संगात् अनुचितः असंयमः भवति तस्मात् चं अचित्तं सचित्तं वा अशेषं परिग्रहं परिवर्जयेत्’–अर्थः– जेथी बाह्य धन–धान्यादि परिग्रहथी पण महान असंयम थाय छे अर्थात् ज्यांसुधी परिग्रह रहे छे त्यांसुधी संयमनुं सारी रीते पालन थई शकतुं नथी. तेथी ते बाह्य परिग्रह भले सजीव होय के अजीव होय– बन्ने प्रकारनो परिग्रह छोडवो जोईए.

भावार्थः– बाह्य परिग्रहमां संसारना जेटला कोई पदार्थो छे ते बधा प्रायः आवी जाय छे. तेथी बाह्य परिग्रहनां सजीव अने अजीव एवा बे भेद कर्या छे. रूपिया, पैसा खेती वगेरे अजीव परिग्रह छे अने हाथी, घोडा, बळद, नोकर, चाकर ए सजीव परिग्रह छे. एनो पण त्याग एकदेश अने सर्वदेश थाय छे. १२७.

जे सर्वदेश त्याग न करी शके ते एकदेश त्याग करे

योऽपि न शक्यस्त्यक्तुं धनधान्यमनुष्यवास्तुवित्तादिः।
सोऽपि
तनूकरणीयो निवृत्तिरूपं यतस्तत्त्वम्।। १२८।।

अन्वयार्थः– [अपि] अने [यः] जे [धनधान्यमनुष्यवास्तुवित्तादिः] धन, धान्य, मनुष्य, गृह, संपदा वगेरे [त्यक्तुम्] छोडवाने [न शक्य] समर्थ न होय [सः] ते परिग्रह [अपि] पण [तनू] ओछो [करणीयः] करवो जोईए. [यतः] कारण के [निवृत्तिरूपं] त्यागरूप ज [तत्त्वम्] वस्तुनुं स्वरूप छे. _________________________________________________________________ १. तत्त्व निवृत्तिरूप छे तेनो अर्थः– दरेक वस्तु स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र स्वकाळ अने स्वभावथी सदाय

परिपूर्ण ज छे अने परद्रव्यादिकथी शून्य अर्थात् निवृत्तिरूप ज छे वर्तमान अशुद्धदशामां परद्रव्यना
आलंबनवडे रागी जीवने बाह्य–सामग्री प्रत्ये ममत्वरूप राग भूमिकानुसार होय छे. तेनो


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टीकाः– ‘योऽपि मनुष्यः धन्यधान्यमनुष्यवास्तुवित्तादिः त्यक्तुम् न शक्तः सोऽपि मनुष्यः धन्यधान्यादिकः तनूकरणीयः यतः तत्त्वं निवृत्तिरूपं अस्ति।’– अर्थः– जे प्राणी धन, धान्य, वास्तु मनुष्यादि बहिरंग (दस प्रकारना) परिग्रहने सर्वथा छोडवाने अशक्त होय तेणे तेमांथी थोडो परिग्रह राखवानुं परिमाण करवुं जोईए. कारण के तत्त्व त्यागरूप छे.

भावार्थः– बहिरंग परिग्रह मूळ सजीव अने अजीवना भेदथी बे प्रकारना छे. बन्नेना दश भेद छे. खेतर, मकान, चांदी, सोनुं, धन, चार पगवाळा पशु, वस्त्र–पात्र, अनाज, दासी, दास वगेरे ए बाह्य परिग्रहना दश भेद छे. एनो जो संपूर्ण त्याग न करी शके तो तेमांथी पोतानी जरूर जेटलानुं परिमाण करीने राखे अने बाकीनानो त्याग करे, कारण के त्यागरूप ज तत्त्वनुं स्वरूप छे. ज्यांसुधी आ आत्मा त्यागधर्मनुं आचरण नहि करे त्यांसुधी तेने मोक्ष मळशे नहि. निवृत्ति नाम पण मोक्षनुं ज छे. आ रीते हिंसादि पांचे पापोनुं विस्तृत वर्णन कर्युं. १२८.

रात्रौ भुञ्जानानां यस्मादनिवारिता भवति हिंसा।
हिंसाविरतैस्तस्मात् त्यक्तव्या
रात्रिभुक्तिरपि।। १२९।।

अन्वयार्थः– [यस्मात्] कारण के [रात्रौ] रात्रे [भुञ्जानानां] भोजन करनाराने [हिंसा] हिंसा [अनिवारिता] अनिवार्य [भवति] थाय छे. [तस्मात्] तेथी [हिंसाविरतैः] हिंंसाना त्यागीओए [रात्रिभुक्तिः अपि] रात्रिभोजननो पण [त्यक्तव्या] त्याग करवो जोईए. _________________________________________________________________

स्वाश्रयना बळ वडे त्याग कराववा माटे बाह्य पदार्थना त्यागनो उपदेश छे. वास्तवमां तो
आत्माने परवस्तुनो त्याग ज छे पण जे कंई राग, ममत्वभाव छे तेना त्यागरूप निर्मळ परिणाम
जेटला अंशे थाय छे तेटला ज अंशे रागादिनी उत्पत्ति थती ज नथी. ज्यां आवुं होय त्यां ते
जीवने पर वस्तुना त्यागनो कर्ता कहेवो ते ते जातना अभावरूप निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटे
असद्भूत व्यवहारनयनुं कथन छे. (निश्चयसम्यग्दर्शन विना अज्ञानीना हठरूप त्यागने व्यवहारे
पण धर्म संज्ञा नथी.)

१. दासी दासादिने द्विपद बे पगवाळां कहेवामां आवे छे. २. त्यागधर्म जेम प्रकाशनी उत्पत्ति विना अंधारुं टळे ज नहि तेम निज शुद्धात्माना आश्रय वडे

निर्मळ श्रद्धा–ज्ञान अने स्वरूपमां एकाग्रतारूप शुद्ध परिणतिनी प्राप्ति कर्या विना रागनो त्याग
अर्थात् वीतरागी धर्मरूप मोक्षनो उपाय अने मोक्ष मळे नही.


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टीकाः– ‘यस्मात् रात्रौ भुञ्जानानां अनिवारिता हिंसा भवति तस्मात् हिंसाविरतैंः रात्रिभुक्तिः अपि त्यक्तव्या’–अर्थः–रात्रे खानारने हिंसा अवश्य ज थाय छे माटे हिंसाना त्यागीओए रात्रिभोजननो त्याग अवश्य ज करवो जोईए.

भावार्थः– रात्रे भोजन करवाथी जीवोनी हिंसा अवश्य थाय छे. प्रायः एवां नानां नानां घणां जंतुओ छे के जे रात्रे ज गमन करे छे अने दीवाना प्रकाशना प्रेमथी दीवानी (दीपकनी) पासे आवे छे, माटे रात्रे चूलो सळगाववामां, पाणी आदि भरवामां, घंटीथी दळवामां, भोजन बनाववामां नियमथी असंख्य जंतुओनो घात थाय छे. माटे हिंसानो त्याग करनार दयाळु मनुष्योए रात्रे खावानो अवश्य त्याग करवो जोईए.

रात्रिभोजनमां भावहिंसा पण थाय छेः–

रागाद्युदयपरत्वादनिवृत्तिर्नातिवर्तते हिंसाम्।
रात्रिं दिवमाहरतः कथं हि हिंसा न संभवति।। १३०।।

अन्वयार्थः– [अनिवृतिः] अत्यागभाव [रागाद्युदयपरत्वात्] रागादिभावोना उदयनी उत्कटताथी [हिंसाम्] हिंसाने [न अतिवर्तते] उल्लंघीने वर्तता नथी, तो [रात्रिं दिवम्] राते अने दिवसे [आहरतः] आहार करनारने [हि] निश्चयथी [हिंसा] हिंसा [कथं] केम [न संभवति] न संभवे?

टीकाः– ‘रागादिउदयपरत्वात् अनिवृत्तिः अत्यागः हिंसां न अतिवर्तते यतः रात्रिं दिवं आहरतः–भुञ्जानस्य हि हिंसा कथं न संभवति?–अपितु संभवति एव।’– अर्थः–रागादिभाव उत्कृष्ट होवाने लीधे रागादिनुं अत्यागपणुं हिंसानुं उल्लंघन करी शकतुं नथी. अर्थात् ज्यांसुधी रागादिनो त्याग नथी त्यां सुधी अहिंसा नथी, हिंसा ज छे. तो पछी राते अने दिवसे खानारने हिंसा केम न होय? नियमथी होय ज. रागादिनुं होवुं ज वास्तविक हिंसानुं लक्षण छे. १३०.

शंकाकारनी शंका

यद्येवं तर्हि दिवा कर्तव्यो भोजनस्य परिहारः।
भोक्तव्यं तु निशायां नेत्थं नित्यं भवति हिंसा।। १३१।।

अन्वयार्थः– [यदि एवं] जो एम छे अर्थात् सदाकाळ भोजन करवामां हिंसा छे [तर्हि] तो [दिवा भोजनस्य] दिवसना भोजननो [परिहारः] त्याग


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[कर्तव्यः] करवो जोईए [तु] अने [निशायां] रात्रे [भोक्तव्यं] भोजन करवुं जोईए. केमके [इत्थं] ए रीते [हिंसा] हिंसा [नित्यं] सदाकाळ [न भवति] नहि थाय.

टीकाः– ‘यदि एवं तर्हि दिवा भोजनस्य परिहारः कर्तव्यः तु निशायां भोक्तव्यं इत्थं नित्यं हिंसा न भवति’– अर्थः– अहीं कोई तर्क करे छे के जो दिवसे अने राते–बन्ने वखते भोजन करवाथी हिंसा थाय छे तो दिवसे भोजन न करवुं जोईए अने रात्रे भोजन करवुं जोईए जेथी हंमेशां हिंसा नहि थाय. एवो ज नियम शा माटे करवो के दिवसे ज भोजन करवुं अने रात्रे न करवुं?

आचार्य तेनो उत्तर आपे छेः–

नैवं वासरभुक्तेर्भवति हि रागोऽधिको रजनिभुक्तौ।
अन्नकवलस्य भुक्तेर्भुक्ताविव
मांसकवलस्य।। १३२।।

अन्वयार्थः– [एवं न] एम नथी. कारण के [अन्नकवलस्य] अन्नना कोळियाना [भुक्तेः] भोजनथी [मांसकवलस्य] मांसना कोळियाना [भुक्तौ इव] भोजनमां जेम राग अधिक थाय छे तेवी ज रीते [वासरभुक्तेः] दिवसना भोजन करतां [रजनिभुक्तौ] रात्रिभोजनमां [हि] निश्चयथी [रागाधिकः] अधिक राग [भवति] थाय छे.

टीकाः– ‘हि रजनिभुक्तौ अधिकः रागः भवति वासरभुक्ते एवं न भवति यथा अन्नकवलस्य भुक्तौ मांसकवलस्य भुक्तौ इव’–अर्थः–निश्चयथी रात्रे भोजन करवामां अधिक रागभाव छे अने दिवसे भोजन करवामां ओछो रागभाव छे. जेम अन्नना भोजनमां रागभाव ओछो छे अने मांसना भोजनमां रागभाव अधिक छे.

भावार्थः– पेट भरवानी अपेक्षाए तो बन्ने भोजन सरखा ज छे. पण प्रत्येक प्राणीने अन्न, दूध, घी, वगेरे खावामां तो साधारण रागभाव छे अर्थात् ओछी लोलुपता छे केम के अन्ननो आहार तो सर्व मनुष्योने सह्य ज छे तेथी प्रायः घणा प्राणीओ तो अन्ननुं ज भोजन करे छे; पण मांसना भोजनमां कामादिनी अपेक्षाए अथवा शरीरना मोहनी अपेक्षाए विशेष रागभाव होय छे केमके मांसनुं भोजन बधा मनुष्योनो स्वाभाविक–प्राकृतिक आहार नथी. तेवी ज रीते दिवसना भोजनमां प्रायः बधा प्राणीओनो साधारण रागभाव छे केमके दिवसनुं भोजन सर्व प्राणीओने होय छे, अने रातना भोजनमां कामादिनी अपेक्षाए तथा शरीरमां अधिक स्नेहनी


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अपेक्षाए अधिक रागभाव छे तेथी रातनुं भोजन बहु ओछा माणसोने होय छे. ए स्वाभाविक वात छे के दिवसे भोजन करवाथी जेटलुं सारी रीते पाचन थाय छे अने जेटलुं सारुं स्वास्थ्य रहे छे तेटलुं रात्रे खावाथी कदी रही शकतुं नथी. माटे रात्रिभोजननो त्याग करवो जोईए अने दिवसे ज खावुं जोईए. तेथी शंकाकारनी जे शंका हती तेनुं निराकरण थयुं. १३२.

रात्रिभोजनमां द्रव्यहिंसा

अर्कालोकेन विना भुञ्जानः परिहरेत् कथं हिंसाम्।
अपि बोधितः प्रदीपे
भोज्यजुषां सूक्ष्मजीवानाम्।। १३३।।

अन्वयार्थः– तथा [अर्कालोकेन विना] सूर्यना प्रकाश विना रात्रे [भुञ्जानः] भोजन करनार मनुष्य [बोधितः प्रदीपे] सळगावेला दीवामां [अपि] पण [भोज्यजुषां] भोजनमां मळेला [सूक्ष्मजीवानाम्] सूक्ष्म जंतुओनी [हिंसा] हिंसा [कथं] केवी रीते [परिहरेत्] छोडी शके?

टीकाः– ‘बोधिते प्रदीपे अपि अर्कालोकेन विना भुञ्जानः भोज्यजुषां सूक्ष्मजन्तूनाम् हिंसां कथं परिहरेत्’–अर्थः–रात्रे दीवो सळगाववा छतां पण सूर्यना प्रकाश विना रात्रे भोजन करनार मनुष्य, भोजनमां प्रीति राखनार जे सूक्ष्म जंतुओ वगेरे छे तेनी हिंसाथी बची शकतो नथी.

भावार्थः– जे पुरुष रात्रे दीवा विना भोजन करे छे तेना आहारमां जो मोटा मोटा उंदर वगेरे पण आवी जाय तोय खबर पडती नथी, अने जे पुरुष रात्रे दीवो सळगावी भोजन करे छे तेना भोजनमां दीवाना संबंधथी तथा भोज्यपदार्थना संबंधथी आवनारा नानां नानां पतंगियां, फूदां वगेरे अवश्य भोजनमां पडे छे अने तेमनी अवश्य हिंसा थाय छे. ते कारणे एम साबित थयुं के रात्रे भोजन करनार मनुष्य द्रव्यहिंसा अने भावहिंसा–ए बन्ने प्रकारनी हिंसाने रोकी शकतो नथी. माटे अहिंसाव्रत पाळनारे रात्रिभोजन अवश्य त्यागवुं जोईए. जे मनुष्य रात्रे शिंगोडांनां भजियां वगेरे बनावीने खाय छे तेओ पण बन्ने प्रकारनी हिंसा करे छे. १३३.

किं वा बहुप्रलपितैरिति सिद्धं यो मनोवचनकायैः।
परिहरति रात्रिभुक्तिं
सततमहिंसां स पालयति।। १३४।।


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अन्वयार्थः– [वा] अथवा [बहुप्रलपितैः] घणा प्रलापथी [किं] शुं? [यः] जे पुरुष [मनोवचनकायैः] मन, वचन अने कायाथी [रात्रिभुक्तिं] रात्रिभोजननो [परिहरति] त्याग करे छे [सः] ते [सततम्] निरंतर [अहिंसां] अहिंसानुं [पालयति] पालन करे छे [इति सिद्धम्] एम सिद्ध थयुं.

टीकाः– ‘वा बहुप्रलपितैः किं इति सिद्धं यः मनोवचनकायैः रात्रिभुक्तिं परिहरति स सततं अहिंसां पालयति’–अर्थः–अथवा घणुं कहेवाथी शुं? ए वात सिद्ध थई के जे मनुष्य मन, वचन, कायाथी रात्रिभोजननो त्याग करे छे ते हंमेशां अहिंसानुं पालन करे छे.

भावार्थः– रात्रे भोजन करवामां अने रात्रे भोजन बनाववामां हंमेशां हिंसा छे. रात्रे भोजन करवानी अपेक्षाए रात्रे भोजन बनाववामां घणी वधारे हिंसा थाय छे. तेथी पहेलां अहिंसाव्रत पाळनाराओए रात्रे बनेला दरेक पदार्थनो त्याग करवो जोईए. खास करीने बजारना बनेला पदार्थोनो तो बिलकुल त्याग ज करी देवो जोईए पण जो पाक्षिक श्रावक कोई रीते सम्पूर्ण त्याग करी न शके तो पाणी, पान, मेवो वगेरे के जेमां राते बिलकुल आरंभ करवो पडतो नथी तेनुं ग्रहण करे तो करी शके छे, ते पण जो तेने पाणी विना चालतुं न होय तो. १३४.

इत्यत्र त्रितयात्मनि मार्गे मोक्षस्य ये स्वहितकामाः।
अनुपरतं प्रयतन्ते प्रयान्ति
ते मुक्तिमचिरेण।। १३५।।

अन्वयार्थः– [इति] ए रीते [अत्र] आ लोकमां [ये] जे [स्वहितकामाः] पोताना हितना इच्छुक [मोक्षस्य] मोक्षना [त्रितयात्मनि] रत्नत्रयात्मक [मार्गे] मार्गमां [अनुपरतं] सर्वदा अटकया विना [प्रयतन्ते] प्रयत्न करे छे [ते] ते पुरुष [मुक्तिम्] मोक्षमां [अचिरेण] शीघ्र ज [प्रयान्ति] गमन करे छे.

टीकाः– ‘ये (पुरुषाः) स्वहितकामाः इत्यत्र त्रितयात्मनि मोक्षमार्गे अनुपरतं प्रयतन्ते ते (पुरुषाः) अचिरेण मुक्तिं प्रयान्ति’– अर्थः–जे जीव पोताना हितने इच्छता थका आ रीते रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गमां हंमेशां प्रयत्न करता रहे छे ते जीव तरत ज मोक्षने पामे छे. जीवमात्रनुं हित मोक्ष छे, संसारमां बीजे कयांय आनंद नथी. तेथी जे जीव मोक्षमां जवा इच्छे छे तेमणे सदैव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्ररूप जे मोक्षमार्ग छे तेमां सदैव ज प्रयत्न कर्या करवो. जो आपणे


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मोक्षनी वातो कर्या करीए अने मोक्षना मार्गनी खोज करीए नहि तथा तेना अनुसारे चालीए नहि तो आपणे कदी मोक्षने पामी शकीए नहि अने जे जीवो तेना मार्गमां चाले छे अर्थात् सम्यग्दर्शन प्राप्त करी ले छे ते जीव तरत ज मोक्षना परमधाममां पहोंची जाय छे. आ रीते (–तत्त्वज्ञानपूर्वक) पांचे पापना त्यागपूर्वक पांचे अणुव्रतनुं तथा रात्रिभोजनत्यागनुं वर्णन करीने हवे सात शीलव्रतोनुं वर्णन करे छे. केम के सात शीलव्रत पांच अणुव्रतनी रक्षा करवा माटे नगरना कोट समान छे. जेम किल्लो नगरनुं रक्षण करे छे तेवी ज रीते सात शीलव्रत पांचे अणुव्रतनी रक्षा करे छे. १३प.

परिधय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि।
व्रतपालनाय तस्माच्छीलान्यपि
पालनीयानि।। १३६।।

अन्वयार्थः– [किल] निश्चयथी [परिधयः इव] जेम कोट, किल्लो [नगराणि] नगरोनी रक्षा करे छे तेवी ज रीते [शीलानि] त्रण गुणव्रत अने चार शिक्षाव्रत–ए सात शील [व्रतानि] पांचे अणुव्रतोनुं [पालयन्ति] पालन अर्थात् रक्षण छे. [तस्मात्] माटे [व्रतपालनाय] व्रतोनुं पालन करवा माटे [शीलानि] सात शीलव्रतो [अपि] पण [पालनीयानि] पाळवां जोईए.

टीकाः– ‘किल शीलानि व्रतानि पालयन्ति परिधयः नगराणि इव तस्मात् व्रतपालनाय शीलानि अपि पालनीयानि’–अर्थः–निश्चयथी जे सात शीलव्रत छे ते पांचे अणुव्रतनी रक्षा करे छे, जेम कोट नगरनी रक्षा करे छे. तेथी पांचे अणुव्रतोनुं पालन करवा माटे त्रण गुणव्रत अने चार शिक्षाव्रत ए सात शीलव्रतो अवश्य पाळवां ज जोईए. हवे तेनुं ज वर्णन करे छे ते सांभळो. त्रण गुणव्रतोनां नामः–१ दिग्व्रत, २ देशव्रत, ३ अनर्थदंडत्यागव्रत. चार शिक्षाव्रतनां नामः–१ सामायिक. २ प्रोषधोपवास, ३ भोगोपभोगपरिमाणव्रत, ४ वैयावृत्त. १३६.

पहेलां दिग्व्रत नामना गुणव्रतनुं स्वरूप कहे छेः–

प्रविधाय सुप्रसिद्धैर्मर्यादां सर्वतोप्यभिज्ञानैः।
प्राच्यादिभ्यो दिग्भ्यः कर्तव्या विरतिरविचलिता।। १३७।।

अन्वयार्थः– [सुप्रसिद्धैः] सारी रीते प्रसिद्ध [अभिज्ञानैः] गाम, नदी, पर्वतादि जुदां जुदां लक्षणोथी [सर्वतः] बधी दिशाए [मर्यादां] मर्यादा [प्रविधाय]


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करीने [प्राच्यादिभ्यः] पूर्वादि [दिग्भ्यः] दिशाओमां [अविचलिता विरतिः] गमन न करवानी प्रतिज्ञा [कर्तव्या] करवी जोईए.

टीकाः– ‘सुप्रसिद्धैः अभिज्ञानैः सर्वतः मर्यादां प्रविधाय प्राच्यादिभ्यः दिग्भ्यः अविचलिता विरतिः कर्तव्या’–अर्थः–प्रसिद्धपणे जाणेला जे महान पर्वतादि, नगरादि अथवा समुद्रादिवडे चारे दिशामां जिंदगीपर्यंत मर्यादा बांधीने चार दिशा, चार विदिशा अने उपर तथा नीचे–ए रीते दशे दिशाओमां जवानी प्रतिज्ञा करी लेवी अने पछी जिंदगीपर्यंत आ मर्यादानी बहार न जवुं तेने दिग्व्रत कहे छे. अहीं पहाड वगेरे तथा हवाई जहाजथी चडवानी अपेक्षाए उपरनी दिशा अने कूवा के समुद्रादिमां जवानी अपेक्षाए नीचेनी दिशानुं ग्रहण कर्युं छे. १३७.

दिग्व्रत पाळवानुं फळ

इति नियमितदिग्भागे प्रवर्तते यस्ततो बहिस्तस्य।
सकलासंयमविरहाद्भवत्यहिंसाव्रतं
पूर्णम्।। १३८।।

अन्वयार्थः– [यः] जे [इति] आ रीते [नियमितदिग्भावे] मर्यादा करेली दिशाओनी अंदर [प्रवर्तते] रहे छे [तस्य] ते पुरुषने [ततः] ते क्षेत्रनी [बहिः] बहारना [सकलासंयमविरहात्] समस्त असंयमना त्यागना कारणे [पूर्णं] परिपूर्ण [अहिंसाव्रतं] अहिंसाव्रत [भवति] थाय छे.

टीकाः– ‘यः (पुरुषः) इति नियमित दिग्भागे प्रवर्तते तस्य ततः बहिः सकलासंयमविरहात् पूर्णं अहिंसाव्रतं भवति।’–अर्थः–जे मनुष्य आ रीते मर्यादा करेला दशे दिशाओना क्षेत्रनी अंदर ज पोतानुं बधुं काम करे छे तेने ते दिशाओनी बहार अहिंसा महाव्रत पळाय छे. माटे दिग्व्रत पाळवाथी अहिंसाव्रत पुष्ट थाय छे. १३८.

देशव्रतनुं स्वरूप

तत्रापि च परिमाणं ग्रामापणभवनपाटकादीनाम्।
प्रविधाय नियतकालं करणीयं विरमणं देशात्।। १३९।।

अन्वयार्थः– [च] अने [तत्र अपि] ते दिग्व्रतमां पण [ग्रामापणभवनपाटकादीनाम्] गाम, बजार, मकान, शेरी वगेरेनुं [परिमाणं] परिमाण [प्रविधाय]


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करीने [देशात्] मर्यादा करेला क्षेत्रमांथी बहार [नियतकालं] जवानो कोई नक्की करेला समय सुधी [विरमणं] त्याग [करणीयं] करवो जोईए.

टीकाः– ‘तत्रापि च दिग्व्रतोऽपि च ग्रामापणभवनपाटकादीनाम् नियतकालं परिमाणं प्रविधाय देशात् विरमणं करणीयम्।’–अर्थः–जे दशे दिशाओनी मर्यादा दिग्व्रतमां करी हती तेमां पण गाम, बजार, घर, शेरी वगेरे सुधी एक दिवस, एक अठवाडियुं, पखवाडियुं, महिनो, अयन, वर्ष वगेरे निश्चित काळ सुधी जवा–आववानुं परिमाण करीने बहारना क्षेत्रथी विरक्त थवुं एने ज देशव्रत कहे छे. आ देशव्रतथी पण अहिंसा पळाय छे. १३९.

इति विरतो बहुदेशात् तदुत्थहिंसाविशेषपरिहारात्।
तत्कालं
विमलमतिः श्रयत्यहिंसां विशेषेण।। १४०।।

अन्वयार्थः– [इति] आ रीते [बहुदेशात् विरतः] घणा क्षेत्रनो त्याग करनार [विमलमतिः] निर्मळ बुद्धिवाळो श्रावक [तत्कालं] ते नियमित काळे [तदुत्थहिंसाविशेषपरिहारात्] मर्यादाकृत क्षेत्रथी उत्पन्न थयेली हिंसा विशेषना त्यागथी [विशेषेण] विशेषपणे [अहिंसां] अहिंसाव्रतनो [श्रयति] आश्रय करे छे.

टीकाः– ‘इति बहुदेशात् विरतो विमलमतिः तत्कालं तदुत्थहिंसाविशेषपरिहारात् विशेषेण अहिंसां श्रयति।’–अर्थः–आ रीते दिग्व्रतमां करेला क्षेत्रनुं परिमाण करीने ते क्षेत्र बहार हिंसानो त्याग थवा छतां पण उत्तम बुद्धिवाळो श्रावक जो ते वखते बीजा पण थोडा क्षेत्रनी मर्यादा करे छे तो ते विशेषपणे अहिंसानुं आश्रय करे छे. जे मनुष्ये जीवनपर्यंत दक्षिणमां कन्याकुमारी अने उत्तरमां हिमालय सुधीनुं दिग्व्रत कर्युं छे ते कायम तो हिमालय जतो नथी तेथी ते दररोज एवी प्रतिज्ञा करे छे के आज हुं ‘छपारा’ गाममां ज रहीश, बहार नहीं जाउं. तो जे दिवसे ते ‘छपारा’ सुधीनो ज नियम करे छे तेने ते दिवसे ‘छपारा’नी बहारना प्रदेशमां अहिंसा महाव्रतनुं पालन थाय छे. १४०.

त्रीजा अनर्थदंडत्याग नामना गुणव्रतनुं स्वरूपः–

प्रयोजन विनाना पापनो त्याग करवो तेने अनर्थदंडत्यागव्रत कहे छे. तेना पांच भेद छेः–१. अपध्यानत्यागव्रत, २. पापोपदेशत्यागव्रत, ३. प्रमादचर्यात्यागव्रत, ४. हिंसादानत्यागव्रत, अने प. दुःश्रुतित्यागव्रत.


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अपध्यानअनर्थदंडत्यागव्रतनुं स्वरूपः–

पापर्द्धिजयपराजयसङ्गरपरदारगमनचौर्याद्याः ।
न कदाचनापि चिन्त्याः पापफलं केवलं यस्मात्।। १४१।।

अन्वयार्थः– [पापर्द्धि–जय–पराजय–सङ्गरपरदारगमन–चौर्याद्याः] शिकार, जय, पराजय, युद्ध, परस्त्रीगमन, चोरी, आदिनुं [कदाचनापि] कोई पण समये [न चिन्त्याः] चिंतवन न करवुं जोईए [यस्मात्] कारण के आ अपध्यानोनुं [केवलं] मात्र [पापफलं] पाप ज फळ छे.

टीकाः– ‘पापर्द्धि जय पराजय संगरपरदारगमन चौर्याद्याः कदाचन अपि न चिन्त्याः यस्मात् केवल पापफलं भवति’–अर्थः–शिकार करवानुं, संग्राममां कोईनी जीत अने हारनुं, परस्त्रीगमननुं, चोरी करवानुं इत्यादि खराब कार्यो के जे करवाथी केवळ पाप ज थाय छे., तेनुं कदीपण चिंतवन न करवुं जोईए एने ज अपध्यान–अनर्थदंडत्यागव्रत कहे छे. खोटा (खराब) ध्याननुं नाम अपध्यान छे, तेथी जे वातनो विचार करवाथी केवळ पापनो ज बंध थाय तेने ज अपध्यान कहे छे. तेनो त्याग करवो ते अपध्यानअनर्थदंडत्यागव्रत कहे छे. १४१.

पापोपदेश नामना अनर्थदंडत्यागव्रतनुं स्वरूपः–

विद्यावाणिज्यमषीकृषिसेवाशिल्पजीविनां पुंसाम्।
पापोपदेशदानं
कदाचिदपि नैव वक्तव्यम्।। १४२।।

अन्वयार्थः– [विद्या–वाणिज्य–मषी–कृषि–सेवा–शिल्पजीविनां] विद्या, व्यापार, लेखनकळा, खेती, नोकरी अने कारीगरीथी निर्वाह चलावनार [पुंसाम्] पुरुषोने [पापोपदेशदानं] पापनो उपदेश मळे एवुं [वचनं] वचन [कदाचित् अपि] कोई पण वखते [नैव] [वक्तव्यम्] बोलवुं जोईए.

टीकाः– ‘विद्या वाणिज्य मषी कृषि सेवा शिल्प जीविनां पुंसाम् पापोपदेशदानं वचनं कदाचित् अपि नैव वक्तव्यम्।’–अर्थः–विद्या अर्थात् वैदक–ज्योतिष करनार, व्यापार करनार, लेखनकार्य करनार, खेती करनार, नोकरी–चाकरी करनार अने लुहार, सोनी, दरजी वगेरेनुं काम करनारने आ ज काम करवाना अने बीजा जे कोई पापबंध करनारां कार्य छे तेनो कोईने पण उपदेश आपवो न जोईए. एने ज