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पापोपदेश अनर्थदंडत्यागव्रत कहे छे. श्रावक गृहस्थ पोताना कुटुंबीओने, भाईबंधोने, पोतानां सगांवहालांओने–संबंधीओने के जेमनी साथे पोताने प्रयोजन छे तेमने तथा पोताना साधर्मी भाईओ छे तेमने तेमनो निर्वाह चलाववा माटे अवश्य व्यापार वगेरेनो उपदेश आपीने निमित्त संबंधी चेष्टा करे, पण जेमनी साथे पोताने कांई पण प्रयोजन नथी तेमने उपदेश न देवो जोईए. १४२.
निष्कारणं न कुर्याद्दलफलकुसुमोच्चयानपि च।। १४३।।
अन्वयार्थः– [भूखननवृक्षमोट्टनशाड्वलदलनाम्बुसेचनादीनि] पृथ्वी खोदवी, वृक्ष उखाडवां, अतिशय घासवाळी जमीन कचरवी, पाणी सींचवुं वगेरे [च] अने [दलफलकुसुमोच्चयान्] पत्र, फळ, फूल तोडवा [अपि] वगेरे पण [निष्कारणं] प्रयोजन विना [न कुर्यात्] न करवुं.
टीकाः– ‘निष्कारणं भूखनन वृक्षमोट्टन शाड्वलदलन अम्बुसेचनादीनि च दलफलकुसुमोच्चयान् अपि च न कुर्यात्’–अर्थः–विना प्रयोजने पृथ्वी खोदवी, वृक्ष उखाडवा, घास कचरवुं, पाणी सींचवुं–ढोळवुं तथा पांदडां, फळ, फूलो तोडवां, इत्यादि कोई पण कार्य न करवुं.
भावार्थः– गृहस्थ श्रावक पोताना प्रयोजन माटे कांई पण करी शके छे, पण जेमां पोतानो कांई पण स्वार्थ नथी, जेमके रस्ते चालतां वनस्पति वगेरे तोडवी इत्यादि नकामां काम न करवां जोईए. एने ज प्रमादचर्याअनर्थदंडत्यागव्रत कहे छे. १४३.
वितरणमुपकरणानां हिंसायाः परिहरेद्यत्नात्।। १४४।।
अन्वयार्थः– [असि–धेनु–विष–हुताशन–लाङ्गल–करवाल–कार्मुकादीनाम्] छरी, विष, अग्नि, हळ, तलवार, धनुष आदि [हिंसायाः] हिंसानां [उपकरणानां] उपकरणोनुं
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[वितरणम्] वितरण एटले के बीजाने देवुं ते [यत्नात्] सावधानीथी [परिहरेत्] छोडी देवुं जोईए.
टीकाः– ‘हिंसायाः उपकरणानां असि धेनु विष हुताशन लाङ्गल करवाल कार्मुकादीनाम् परिहरेत्’–अर्थः–हिंसा करवानां साधन छरी, विष, अग्नि, हळ, तरवार, बाण वगेरेनुं देवुं प्रयत्नथी दूर करे अर्थात् बीजाने आपे नहि, एने ज हिंसादान अर्थदंडत्यागव्रत कहे छे. जे वस्तुओ आपवाथी हिंसा थती होय ते वस्तुओनो उपयोग पोताना माटे करी शके छे परंतु बीजाओने कदीपण न आपवी. १४४.
न कदाचन कुर्वीत श्रवणार्जनशिक्षणादीनि।। १४५।।
अन्वयार्थः– [रागादिवर्द्धनानां] राग, द्वेष, मोहादिने वधारनार तथा [अबोधबहुलानाम्] घणा अंशे अज्ञानथी भरेली [दुष्टकथानाम्] दुष्ट कथाओनुं [श्रवणार्जनशिक्षणादीनि] सांभळवुं, धारवुं, शीखवुं आदि [कदाचन] कोई समये, कदीपण [न कुर्वीत] करवुं न जोईए.
टीकाः– ‘अबोध (मिथ्यात्व) बहुलानां रागादिवर्द्धनानां दुष्टकथानां श्रवणार्जनशिक्षणादीनि न कदाचन कुर्वीत’–अर्थः–मिथ्यात्वसहित रागद्वेष, वेरभाव, मोह, मदादि वधारनार कुकथाओनुं श्रवण तथा नवी कथाओ बनाववी, वांचवी वगेरे कदी पण न करवुं. एने ज दुःश्रुति अनर्थदंडत्यागव्रत कहे छे. जे कथाओ सांभळवाथी, वांचवाथी अने शिखववाथी विषयादिनी वृद्धि थाय, मोह वधे अने पोताना तथा परना परिणामथी चित्तने संकलेश थाय एवी राजकथा, चोरकथा, भोजनकथा, स्त्रीकथा इत्यादि कथाओ कहेवी नहि. १४प.
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अन्वयार्थः– [सर्वानर्थप्रथमं] सात व्यसनोमां पहेलुं अथवा बधां अनर्थोमां मुख्य, [शौचस्य मथनं] संतोषनो नाश करनार, [मायायाः] मायाचारनुं [सद्म] घर अने [चौर्यासत्यास्पदम्] चोरी तथा असत्यनुं स्थान [द्यूतम्] एवा जुगारनो [दूरात्] दूरथी ज [परिहरणीयम्] त्याग करवो जोईए.
टीकाः– ‘सर्वानर्थप्रथमम् मथनं शौचस्य, सद्म मायायाः चौर्यासत्यास्पदं द्यूतम् दूरात् परिहरणीयम्।’–अर्थः–बधां अनर्थोने उत्पन्न करनार, शौच जे लोभनो त्याग तेनो नाश करनार अने कपटनुं घर एवा जुगारने दूरथी ज छोडवो जोईए.
भावार्थः– खरी रीते जुगार रमवो घणुं ज खराब काम छे. सात व्यसनोमांथी जुगार ज सौथी खराब छे. जे पुरुष जुगार रमे छे तेओ प्रायः बधां पापोनुं आचरण करे छे, माटे जुगारनो त्याग अवश्य करवो जोईए. तेथी अनर्थदंड त्यागनारने जुगारनो पण त्याग करवो जोईए. १४६.
अन्वयार्थः– [यः] जे मनुष्य [एवं विधं] आ प्रकारना [अपरमपि] बीजा पण [अनर्थदंडम्] अनर्थदंडने [ज्ञात्वा] जाणीने [मुञ्चति] त्यागे छे [तस्य] तेने [अनवद्यं] निर्दोष [अहिंसाव्रतं] अहिंसाव्रत [अनिशम्] निरंतर [विजयम्] विजय [लभते] पामे छे.
टीकाः– ‘यः एवं विधं अपरं अपि अनर्थदण्डं ज्ञात्वा मुञ्चति तस्य अनवद्यं अहिंसाव्रतं अनिशं विजयं लभते।’–अर्थः–जे मनुष्य आ रीते बीजा पण पापबंध करनार अनर्थदंडने जाणीने छोडे छे, ते पुरुषनुं पापरहित अहिंसाव्रत हंमेशा विजय पामे छे, अर्थात् सदैव पुण्यबंध करतो, पापनो त्याग करतो थको कर्मोनी निर्जरा करे छे.
भावार्थः– संसारमां एवां नानां नानां घणां कार्यो छे के जेने करवाथी व्यर्थ ज पापनो बंध कर्या करे छे, तेथी बधा मनुष्योए जेनाथी पोतानुं कांई प्रयोजन नथी एवा व्यर्थ अनर्थदंडोनो त्याग अवश्य करवो–ए तेमनुं कर्तव्य छे. आ रीते त्रण गुणव्रतोनुं वर्णन समाप्त कर्युं. १४७.
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तत्त्वोपलब्धिमूलं बहुशः सामायिकं कार्यम्।। १४८।।
अन्वयार्थः– [रागद्वेषत्यागात्] राग–द्वेषना त्यागथी [निखिलद्रव्येषु] बधा इष्ट– अनिष्ट पदार्थोमां [साम्यं] साम्यभावने [अवलम्ब्य] अंगीकार करीने [तत्त्वोपलब्धिमूलं] आत्मतत्त्वनी प्राप्तिनुं मूळकारण एवुं [सामायिकं] सामायिक [कार्यम्] करवुं जोईए.
टीकाः– ‘निखिलद्रव्येषु रागद्वेषत्यागात् साम्यं अवलम्ब्य तत्त्वोपलब्धि मूलं सामायिकं बहुशः कार्यम्।’ अर्थः–समस्त इष्ट–अनिष्ट पदार्थोमां रागद्वेष भावोनो त्याग करवाथी, समताभावनुं आलंबन करीने, आत्माना स्वरूपनी प्राप्ति करवामां मूळकारण सामायिक छे ते वारंवार करवुं जोईए, अर्थात् दररोज त्रणे काळे करवुं जोईए. तेने ज सामायिक शिक्षाव्रत कहे छे.
भावार्थः– ‘सम्’ एटले एकरूप अने ‘अय’ एटले आत्माना स्वरूपमां गमन ते ‘समय’ थयुं. एवो ‘समय’ जेनुं प्रयोजन छे तेने सामायिक कहे छे. आ सामायिक समताभाव विना थई शके नहि. तेथी सुखदायक अने दुःखदायक पदार्थोमां समान बुद्धि राखतो श्रावक त्रणे काळे पांचे पापोनो त्याग करीने अवश्य सामायिक करे. एने सामायिक शिक्षाव्रत कहे छे. १४८.
अन्वयार्थः– [तत्] ते सामायिक [रजनीदिनयोः] रात्रि अने दिवसना [अन्ते] अंते [अविचलितम्] एकाग्रतापूर्वक [अवश्यं] अवश्य [भावनीयम्] करवुं जोईए. [पुनः] अने जो [इतरत्र समये] अन्य समये [कृतं] करवामां आवे तो [तत् कृतं] ते सामायिक कार्य [दोषाय] दोषनो हेतु [न] नथी, पण [गुणाय] गुणने माटे ज होय छे.
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टीकाः– ‘तत् सामायिकं रजनी दिनयोः अन्ते अवश्यं अविचलितं भावनीयं पुनः इतरत्र समये दोषाय कृतम् न किन्तु तत् गुणाय कृतम् अस्ति।’–अर्थः–ते १सामायिक प्रत्येक श्रावके रातना अंते अने दिवसना अंते अर्थात् प्रभाते अने संध्याकाळे अवश्य नियमपूर्वक करवुं जोईए अने बाकीना वखते जो सामायिक करे तो गुण निमित्ते ज होय छे, दोष निमित्ते नहि.
भावार्थः– गृहस्थ श्रावक गृहस्थपणानां अनेक कार्योमां संलग्न रहे छे तेथी तेने माटे आलंबनरूप प्रभात अने संध्याना बन्ने समय आचार्योए नियमित कर्या छे. आम तो सामायिक गमे त्यारे करवामां आवे तेनाथी आत्मानुं कल्याण ज छे, नुकसान कदीपण नथी. तेथी प्रत्येक श्रावके बन्ने समय अथवा त्रण समय बे घडी, चार घडी के छ घडी सुधी पांचे पापनो तथा आरंभ–परिग्रहनो त्याग करीने एकांत स्थानमां शुद्ध मन करीने पहेलां पूर्व दिशामां नमस्कार करवा, पछी नववार नमस्कारमंत्रनो जाप करवो, पछी त्रण आवर्तन करवा अने एक शिरोनति करवी. आ रीते चारे दिशामां करीने खड्गासन अथवा पद्मासन करीने सामायिक करवुं अने ज्यारे सामायिक पूर्ण थई जाय त्यारे अंते पण शरूआतनी पेठे नववार नमस्कारमंत्रनो जाप, त्रण त्रण आवर्तन, एक एक शिरोनति ए ज प्रमाणे करवी. आ ज सामायिक करवानी स्थूळ विधि छे. सामायिक करती वखते श्रावक पण मुनिसमान ज छे. १४९.
भवति महाव्रतमेषामुदयेऽपि चरित्रमोहस्य।। १५०।।
अन्वयार्थः– [एषाम्] आ [सामायिकश्रितानां] सामायिक दशाने पामेला श्रावकोने [चरित्रमोहस्य] चारित्रमोहनो [उदये अपि] उदय होवा छतां पण [समस्तसावद्ययोगपरिहारात्] समस्त पापना योगना त्यागथी [महाव्रतं] महाव्रत [भवति] थाय छे. _________________________________________________________________ १. [सामायिकने माटे १–योग्य क्षेत्र, २–योग्य काळ, ३–योग्य आसन, ४–योग्य विनय, प–मनशुद्धि,
भेदज्ञानपूर्वक स्वसन्मुखताना बळथी जेटली परिणामोनी शुद्धता थाय तेटली निश्चय सामायिक छे,
त्यां वर्तता शुभरागने व्यवहार सामायिक कहेवामां आवे छे. निश्चयसम्यग्दर्शन–ज्ञानपूर्वक जेणे
कषायनी बे चोकडीनो अभाव कर्यो छे ते जीवने साचां अणुव्रत अने सामायिकव्रत होय छे, जेने
निश्चयसम्यग्दर्शन न होय तेना व्रतने सर्वज्ञदेवे बाळव्रत–अज्ञानमयव्रत कहेल छे.]
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टीकाः– ‘सामायिकश्रितानां एषां श्रावकानां समस्तसावद्ययोगपरिहारात् चरित्रमोहस्य उदये अपि महाव्रतं भवति।’–अर्थः–सामायिक करनार श्रावकने ते समये समस्त पांचे पापोनो त्याग होवाथी प्रत्याख्यानावरण चारित्रमोहनीय कर्मनो उदय होवा छतां पण महाव्रत ज छे.
भावार्थः– श्रावक जे वखते सामायिक करी रह्यो छे त्यारे खरी रीते तेनी ते वखतनी अवस्था मुनि समान ज छे. तेना परिणामोमां अने मुनिना परिणामोमां विशेष तफावत नथी. भेद फक्त एटलो ज छे के मुनि दिगंबर छे अने श्रावक वस्त्रसहित छे. मुनि महाराजे प्रत्याख्यानावरण कषायोनो त्याग करी दीधो छे अने श्रावके हजी सुधी प्रत्याख्यानावरण कषायोनो त्याग कर्यो नथी. १प०.
पक्षार्द्धयोर्द्वयोरपि कर्तव्योऽवश्यमुपवासः।। १५१।।
अन्वयार्थः– [प्रतिदिनं] दररोज [आरोपितं] अंगीकार करेल [सामायिकसंस्कारं] सामायिकरूप संस्कार [स्थिरीकर्तुम्] स्थिर करवाने माटे [द्वयोः] बन्ने [पक्षार्द्धयोः] पक्षना अर्धभागमां अर्थात् अष्टमी अने चतुर्दशीना दिवसे [उपवासः] उपवास [अवश्यमपि] अवश्य ज [कर्तव्यः] करवो जोईए.
टीकाः– ‘प्रतिदिनं आरोपितं सामायिक संस्कारं स्थिरीकर्तुम् द्वयोरपि पक्षार्द्धयोः अवश्यम् उपवासः कर्तव्यः’–अर्थः–प्रतिदिन अंगीकार करेल सामायिक व्रतनी द्रढता करवा माटे बन्ने पखवाडियाना अर्धा भागमां जे चौदश अने आठम छे तेमां अवश्य उपवास करवो जोईए.
भावार्थः– आ प्रोषध उपवास दरेक महिनामां चार वार करवामां आवे छे, अर्थात् दरेक चौदश अने आठमना दिवसे ते करवामां आवे छे. तेनाथी सामायिक करवानी भावना द्रढ रहे अर्थात् विषयकषायोमांथी चित्त सदा विरक्त ज रहे छे तेथी प्रत्येक गृहस्थे सामायिक अवश्य करवुं जोईए. १प१.
उपवासं
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अन्वयार्थः– [मुक्तसमस्तारम्भः] समस्त आरंभथी मुक्त थईने [देहादौ] शरीरादिमां [ममत्वं] आत्मबुद्धिनो [अपहाय] त्याग करीने [प्रोषधदिनपूर्ववासरस्यार्द्धे] उपवासना आगला दिवसना अर्धा भागमां [उपवासं] उपवास [गृह्णीयात्] अंगीकार करवो जोईए.
टीकाः– ‘प्रोषधदिनपूर्ववासरस्यार्द्धे मुक्तसमस्तारम्भः देहादौ ममत्वं अपहाय उपवासं गृह्णीयात्।’–अर्थः–उपवास करवाना एक दिवस अगाउ अर्थात् धारणाना दिवसे समस्त आरंभ छोडीने चारे प्रकारना आहारनो त्याग करीने शरीर वगेरेमां ममत्वभाव छोडीने उपवास ग्रहण करवो.
भावार्थः– जेम के आठमनो उपवास करवानो छे तो सातमना बार वाग्याथी चारे प्रकारना आहारनो त्याग करीने, समस्त आरंभनो त्याग करतो थको शरीरादिथी मोह छोडीने उपवास धारण करवो. १प२.
अन्वयार्थः– पछी [विविक्तवसतिं] निर्जन १वसतिका–निवासस्थानमां [श्रित्वा] जईने [समस्तसावद्ययोगं] सम्पूर्ण २सावद्ययोगनो [अपनीय] ३त्याग करीने [सर्वेन्द्रियार्थविरतः] सर्व इन्द्रियोथी विरक्त थई [कायमनोवचनगुप्तिभिः] मनगुप्ति, वचनगुप्ति अने कायगुप्ति सहित [तिष्ठेत] स्थिर थाय.
टीकाः– ‘विविक्त वसतिं श्रित्वा समस्त सावद्ययोगं अपनीय सर्वेन्द्रियार्थविरतः कायमनोवचनगुप्तिभिः तिष्ठेत्।’–अर्थः–जेणे सातमना दिवसे उपवास धारण कर्यो छे ते श्रावक ते ज वखते एकांत स्थानमां जईने हिंसादि पांचे पापोनो संकल्पपूर्वक त्याग करीने, पांचे इन्द्रियना विषयोथी विरक्त थईने मन, वचन अने कायाने वश राखे अर्थात् त्रणे गुप्तिनुं पालन करे. _________________________________________________________________ १. प्राचीन समयमां नगर–ग्रामोनी बहार धर्मात्माजन मुनिओने उतरवा माटे–आराम माटे अथवा
वसतिकाओ आज पण जोवामां आवे छे. २–अपध्यान माठुं ध्यान, अपकथन अने अपचेष्टारूप
पापसहित क्रिया. ३–समस्तसावद्ययोगनो त्याग जे समये सावद्यक्रियाओनो त्याग करे, ते समये
‘‘हुं सर्वसावद्ययोगनो त्यागी थाउं छुं’’ एवी प्रतिज्ञा करे.
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भावार्थः– उपवासनो बधो समय धर्मध्यान वगेरेमां विताववो जोईए. एकांत स्थान विना धर्मध्यान थई शकतुं नथी. माटे एकांत स्थान धर्मशाळा, चैत्यालय वगेरेमां वास करे अने जो मनमां विचार करे तो धार्मिक वातोनो ज विचार करे, जो वचन बोले तो धार्मिक वातोनुं ज विवेचन करे अने जो कायानी चेष्टा करे तो पोतानी मर्यादा प्रमाणे ज हरे फरे, निरर्थक हरे फरे नहि. आ रीते त्रणे गुप्तिओनुं पालन करे. १प३.
शुचिसंस्तरे त्रियामां गमयेत्स्वाध्यायजितनिद्रः।। १५४।।
अन्वयार्थः– [विहितसान्ध्यविधिम्] जेमां प्रातःकाळ अने संध्याकाळनी सामायिकादि क्रिया करीने [वासरम्] दिवस [धर्मध्यानासक्तः] धर्मध्यानमां लीन थईने [अतिवाह्य] वितावीने [स्वाध्यायजितनिद्रः] पठन–पाठनथी निद्राने जीतीने [शुचिसंस्तरे] पवित्र पथारी पर [त्रियामां] रात्रि [गमयेत्] पूर्ण करे.
टीकाः– ‘धर्मध्यानासक्तो वासरं अतिवाह्य विहित सान्ध्यविधिम् स्वाध्यायजितनिद्रः शुचिसंस्तरे त्रियामां गमयेत्।’–अर्थः–उपवास स्वीकारीने श्रावक, धर्मध्यानमां लीन थई दिवस पूर्ण करी संध्या समये सामायिक वगेरे करीने त्रण पहोर सुधी पवित्र पथारीमां यथाशक्ति स्वाध्याय करीने रात्रि पूर्ण करे.
भावार्थः– आ उपवास धारणानो दिवस छे तेथी बपोरना बार वाग्याथी संध्याकाळ सुधी धर्मध्यान करवुं, पछी सामायिक करवुं, पछी स्वाध्याय करवी, पछी शयन करवुं. यथाशक्ति ब्रह्मचर्यव्रतनुं पालन करवुं. पछी प्रातःकाळे चार वाग्ये पथारी छोडीने जाग्रत थई जवुं. १प४.
निर्वर्तयेद्यथोक्तं जिनपूजां प्रासुकैर्द्रव्यैः।। १५५।।
अन्वयार्थः– [ततः] पछी [प्रातः] सवारमां [प्रोत्थाय] ऊठीने [तात्कालिकं] ते समयनी [क्रियाकल्पम्] क्रियाओ [कृत्वा] करीने [प्रासुकैः] प्रासुक अर्थात्
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जीवरहित [द्रव्यैः] द्रव्योथी [यथोक्तं] आर्ष ग्रन्थोमां कह्या प्रमाणे [जिनपूजां] जिनेश्वरदेवनी पूजा [निर्वर्तयेत्] करवी.
टीकाः– ‘ततः प्रातः प्रोत्थाय तात्कालिकं क्रियाकल्पं कृत्वा यथोक्तं प्रासुकैः द्रव्यैः जिनपूजां निर्वर्तयेत्।’–अर्थः–सूता पछी चार वाग्ये ब्रह्ममुहूर्तमां जाग्रत थईने सामायिक अने भजन–स्तुति वगेरे करीने शौचादि स्नान वगेरे करी प्रासुक आठ द्रव्योथी भगवाननी पूजा करवी तथा स्वाध्याय वगेरे करवां.
भावार्थः– आचार्योनो अभिप्राय अहीं प्रासुक द्रव्योथी पूजन करवानो छे तेथी जळने लविंग द्वारा प्रासुक१ बनावी लेवुं जोईए अथवा जळ उकाळी लेवुं जोईए अने ते जळथी द्रव्यो धोवां जोईए. भगवाननी पूजा माटे मोसंबी, नारंगी, सीताफळ, शेरडी आदि सचित्त वस्तुओ उपवासना व्रतधारीए कदीपण चढाववी नहि. १पप.
अतिवाह्येत्प्रयत्नादर्धं च तृतीयदिवसस्य।। १५६।।
अन्वयार्थः– [ततः] त्यार पछी [उक्तेन] पूर्वोक्त [विधिना] विधिथी [दिवसं] उपवासनो दिवस [च] अने [द्वितीयरात्रिं] बीजी रात्रि [नीत्वा] वितावीने [च] पछी [तृतीयदिवसस्य] त्रीजा दिवसनो [अर्धं] अर्धभाग पण [प्रयत्नात्] अतिशय यत्नाचारपूर्वक [अतिवाहयेत्] व्यतीत करवो.
टीकाः– ‘ततः उक्तेन विधिना दिवसं नीत्वा च द्वितीय रात्रिं नीत्वा च तृतीय दिवसस्य अर्द्धं प्रयत्नात् अतिवाहयेत्।’–अर्थः–पछी जेवी रीते धर्मध्यानथी पहेलो अर्धो दिवस विताव्यो हतो तेवी ज रीते बीजो दिवस वितावीने, तथा जेवी रीते स्वाध्यायपूर्वक पहेली रात्रि वितावी हती तेवी ज रीते बीजी रात्रि वितावीने खूब प्रयत्नपूर्वक त्रीजो अर्धो दिवस पण विताववो.
भावार्थः– जेवी रीते धारणानो दिवस विताव्यो हतो तेवी ज रीते पारणानो दिवस विताववो. धारणाथी लईने पारणा सुधी सोळ पहोर सुधी श्रावके सारी रीते _________________________________________________________________ १. प्रासुक जे द्रव्य सुकायेलुं होय पाकी गयेलुं होय, अग्निथी तपावेलुं होय, आम्लरस तथा लवण
बधां प्रासुक अचित्त छे. आ गाथा स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा ग्रन्थनी संस्कृत टीकामां तथा
गोम्मटसारनी केशववर्णीकृत सं. टीकामां सत्यवचनना भेदोमां कहेवामां आवी छे.
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धर्मध्यानपूर्वक ज समय विताववो, त्यारे ज तेनो उपवास करवो सार्थक छे; कारण के विषय– कषायोना त्याग माटे ज उपवास वगेरे करवामां आवे छे. १प६.
तस्य तदानीं नियतं पूर्णमहिंसाव्रतं भवति।। १५७।।
अन्वयार्थः– [यः] जे जीव [इति] आ रीते [परिमुक्तसकलसावद्यः सन्] संपूर्ण पापक्रियाओथी रहित थईने [षोडशयामान्] सोळ पहोर [गमयति] वितावे छे [तस्य] तेने [तदानीं] ते वखते [नियतं] निश्चयपूर्वक [पूर्णं] संपूर्ण [अहिंसाव्रतं] अहिंसाव्रत [भवति] थाय छे.
टीकाः– ‘इति (पूर्वोक्तरीत्या) यः (श्रावकः) परिमुक्तसकलसावद्यः षोडशयामान् गमयति, तस्य (श्रावकस्य) तदानीं नियतं पूर्णं अहिंसाव्रतं भवति।’–अर्थः–जेवी रीते उपवासनी विधि बतावी छे तेवी रीते जे श्रावक संपूर्ण आरंभ–परिग्रहनो त्याग करी सोळ पहोर वितावे छे ते श्रावकने ते सोळ पहोरमां नियमथी पूर्ण अहिंसाव्रतनुं पालन थाय छे.
भावार्थः– उपवास त्रण प्रकारे छेः–उत्कृष्ट उपवास सोळ पहोरनो छे, मध्यम उपवास बार पहोरनो छे, जघन्य उपवास आठ पहोरनो छे. जेम (१) सातमने दिवसे बार वाग्ये उपवास धारण कर्यो अने नोमने दिवसे बार वाग्ये
पहोरनो जघन्य उपवास थयो. आ रीते उपवासनुं वर्णन पूर्ण थयुं. १प७.
भोगोपभोग विरहाद्भवति न लेशोऽपि हिंसायाः।। १५८।।
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अन्वयार्थः– [किल] खरेखर [अमीषाम्] आ देशव्रती श्रावकने [भोगोपभोग] भोग–उपभोगना हेतुथी [स्थावरहिंसा] स्थावर अर्थात् एकेन्द्रिय जीवोनी हिंसा [भवेत्] थाय छे पण [भोगोपभोगविरहात्] भोग–उपभोगना त्यागथी [हिंसायाः] हिंसा [लेशः अपि] लेश पण [न भवति] थती नथी.
टीकाः– ‘‘किल अमीषाम् (श्रावकानाम्) भोगोपभोगहेतोः स्थावरहिंसा भवेत् (अतः उपवासे) भोगोपभोगविरहात् हिंसायाः लेशोऽपि न भवति’’–अर्थः–निश्चयथी श्रावकोने भोग– उपभोगना पदार्थो संबंधी स्थावरहिंसा थाय छे, केमके गृहस्थ श्रावक त्रसहिंसानो तो पूर्ण त्यागी ज छे. ज्यारे गृहस्थ उपवासमां समस्त आरंभ–परिग्रह अने पांचे पापनो संपूर्ण त्याग करी दे छे त्यारे तेने उपवासमां स्थावरहिंसा पण थती नथी. आ कारणे पण तेने अहिंसा महाव्रतनुं पालन थाय छे. १प८.
ए ज रीते उपवासमां अहिंसा महाव्रतनी जेम बीजां चार महाव्रत पण पळाय छे ए वात बतावे छेः–
नाब्रह्म मैथुनमुचः सङ्गो नाङ्गेप्यमूर्छस्य।। १५९।।
अन्वयार्थः– अने उपवासधारी पुरुषने [वाग्गुप्तेः] वचनगुप्ति होवाथी [अनृतं] जूठुं वचन [न] नथी, [समस्तादानविरहतः] संपूर्ण अदत्तादानना त्यागथी [स्तेयम्] चोरी [न] नथी, [मैथुनमुच] मैथुन छोडनारने [अब्रह्म] अब्रह्मचर्य [न] नथी अने [अङ्गे] शरीरमां [अमूर्छस्य] निर्ममत्व होवाथी [सङ्गः] परिग्रह [अपि] पण [न] नथी.
टीकाः– ‘वाग्गुप्तेः अनृतं नास्ति, समस्तादानविरहतः स्तेयं नास्ति, मैथुनमुचः अब्रह्म नास्ति, अङ्गे अपि अमूर्छस्य सङ्गः नास्ति।’–अर्थः–उपवासधारी पुरुषने वचनगुप्ति पाळवाथी सत्य महाव्रत पळाय छे, दीधा विनानी समस्त वस्तुओनो त्याग होवाथी अचौर्य महाव्रत पळाय छे, संपूर्ण मैथुन कर्मनो त्याग होवाथी ब्रह्मचर्य महाव्रत पळाय छे अने शरीरमां ज ममत्वपरिणाम न होवाथी परिग्रहत्याग महाव्रत पळाय छे. ए रीते चारे महाव्रत पाळी शके छे. १प९.
हवे अहीं कोई शंका करे के जो श्रावकने पण महाव्रत छे अने मुनिओने पण महाव्रत छे तो बन्नेमां तफावत शुं छे?
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तो कहे छेः–
उदयति चरित्रमोहे लभते तु न संयमस्थानम्।। १६०।।
अन्वयार्थः– [इत्थम्] आ रीते [अशेषितहिंसाः] संपूर्ण हिंसाओथी रहित [सः] ते प्रोषध उपवास करनार पुरुष [उपचारात्] उपचारथी अथवा व्यवहारनयथी [महाव्रतित्वं] महाव्रतपणुं [प्रयाति] पामे छे, [तु] पण [चरित्रमोहे] चारित्रमोहना [उदयति] उदयरूप होवाना कारणे [संयमस्थानम्] संयमस्थान अर्थात् प्रमत्तादि गुणस्थान [न लभते] प्राप्त करतो नथी.
टीकाः– ‘इत्थं अशेषितहिंसाः सः (श्रावकः) उपचारात् महाव्रतित्वं प्रयाति, तु चरित्रमोहे उदयति (सति) संयमस्थानं न लभते।’–अर्थः–आ रीते जेने हिंसा बाकी छे एवो श्रावक उपचारथी महाव्रतपणुं पामे छे. खरी रीते ते महाव्रती नथी, केमके प्रत्याख्यानावरण चारित्रमोहनीय कर्मना उदयमां जोडावाथी ते श्रावक महाव्रत संयमने प्राप्त थई शकतो नथी.
भावार्थः– वास्तवमां जेने प्रत्याख्यानावरण क्रोध–मान–माया–लोभनो अभाव थई गयो छे ते ज महाव्रती संयमी कहेवाय छे. पण जेमने ते कषायोनो अभाव थयो नथी पण तेने द्रव्यरूप पांचे पापोनो अभाव थई गयो होय तो तेने उपचारथी महाव्रत छे; खरी रीते महाव्रत नथी, केमके पूर्ण संयम प्रमत्त गुणस्थानमां ज शरू थाय छे अने प्रमत्त गुणस्थान प्रत्याख्यानावरण कषायना अभाव विना थतुं नथी. आ रीते प्रोषधोपवासनुं वर्णन कर्युं. आ प्रोषधोपवास बधा श्रावकोए करवो जोईए, केम के एमां पांचे महापापोनो त्याग थई जाय छे अने पांचे इंद्रियोना विषय तथा कषायोनुं दमन पण थाय छे. जे गृहस्थ केवळ मान–मोटाई माटे ज उपवास करे छे अने पोताना कषायोनो त्याग करता नथी तेमने उपवास करवो ए न करवा समान ज छे. १६०.
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अन्वयार्थः– [विरताविरतस्य] देशव्रती श्रावकने [भोगोपभोगमूला] भोग अने उपभोगना निमित्ते थती [हिंसा] हिंसा थाय छे [अन्यतः न] अन्य प्रकारे थती नथी, माटे [तौ] ते बन्ने अर्थात् भोग अने उपभोग [अपि] पण [वस्तुतत्त्वं] वस्तुस्वरूप [अपि] अने [स्वशक्तिम्] पोतानी शक्तिने [अधिगम्य] जाणीने अर्थात् पोतानी शक्ति अनुसार [त्याज्यौ] छोडवा योग्य छे.
टीकाः– ‘विरताविरतस्य भोगोपभोगमूला हिंसा भवति। अन्यतः न इति हेतोः भावकेन वस्तुतत्त्वं अधिगम्य तथा स्वशक्तिम् अपि अधिगम्य तौ अपि भोगोपभोगौ अपि त्याज्यो।’– अर्थः–देशव्रत पाळनार श्रावकने भोगना पदार्थो संबंधी अने उपभोगना पदार्थो संबंधी हिंसा थाय छे, पण बीजा कोई प्रकारे हिंसा थती नथी. आ कारणे वस्तुस्वरूप जाणीने तथा पोतानी शक्तिने पण जाणीने ते भोग अने उपभोगने छोडवा.
भावार्थः– जे एक वार भोगववामां आवे तेने भोग कहे छे. जेम के दाळ, भात, रोटली, पुरी, पाणी, दूध, दहीं, पेंडा, जलेबी, पुष्पमाळा वगेरे बधा भोग पदार्थो छे. जे वारंवार भोगववामां आवे तेने उपभोग कहे छे. जेम के कपडां, वासण, घर, मकान, खेतर, जमीन, गाय, बळद वगेरे बधा उपभोग पदार्थो छे श्रावकने आ पदार्थोना संबंधथी हिंसा थाय छे तेथी श्रावकोए आ हिंसानां कारणोनो शीघ्र त्याग करवो जोईए. १६१.
करणीयमशेषाणां
अन्वयार्थः– [ततः] कारण के [एकम्] एक साधारण शरीरने–कंदमूळादिने [अपि] पण [प्रजिघांसुः] घातवानी इच्छा करनार पुरुष [अनन्तानि] अनंत जीवने [निहन्ति] मारे छे, [अतः] माटे [अशेषाणां] संपूर्ण [अनन्तकायानां] अनंतकायनो [परिहरणं] परित्याग [अवश्यम्] अवश्य [करणीयम्] करवो जोईए.
टीकाः– ‘एकं अपि प्रजिघांसुः अतः अनन्तानि निहन्ति ततः अशेषाणां अनन्तकायानां अवश्यं परिहरणं करणीयम्।’–अर्थः–एक कंदमूळ संबंधी जीवने खावानी इच्छा करनार गृहस्थ ते जीवनी साथे साथे तेने आश्रये रहेता साधारण अनंता
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जीवो छे ते बधायने मारे छे तेथी साधारण अनंतकायवाळी जेटली वनस्पति छे १ते बधीनो अवश्य त्याग करवो जोईए.
भावार्थः– वनस्पति साधारण अने प्रत्येक एम बे प्रकारे छे. तेमां गृहस्थ श्रावके साधारण वनस्पतिनो त्याग तो सर्वथा ज करवो जोईए अने यथाशक्ति प्रत्येक वनस्पतिनो पण त्याग करवो जोईए. हवे अहीं प्रत्येक अने साधारणना सर्व भेद–प्रभेदपूर्वक स्पष्ट कथन करे छे.
पांच स्थावरोमांथी पृथ्वीकाय, जळकाय, वायुकाय अने अग्निकाय ए चारमां तो निगोदना जीव रहेता नथी, केवळ एक वनस्पतिमां ज रहे छे. तेना प्रत्येक अने साधारण एवा बे भेद छे. जे शरीरनो एक ज स्वामी होय तेने प्रत्येक कहे छे अने जे शरीरना अनंत स्वामी होय तेने साधारण कहे छे. प्रत्येकना पण बे भेद छे. सप्रतिष्ठित प्रत्येक अने अप्रतिष्ठित प्रत्येक. जे शरीरनो मूळ स्वामी एक होय अने ते शरीरना आश्रये अनंत जीव रहेता होय तेने सप्रतिष्ठित कहे छे. जे शरीरनो मूळ स्वामी एक होय अने तेना आश्रये अनंत जीव न रहेता होय तेने अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहे छे.
साधारण वनस्पतिनुं लक्षणः–जेने तोडतां समान भंग थाय, जेनां पांदडांओमां ज्यांसुधी तंतुरेखा अने नसनी जाळ नीकळी न होय, जेनां मूळ, कंद, कंदमूळ, छाल, पांदडां, नानी डाळी, फूल, फळ अने बीजमां–तेने तोडती वखते–समान भंग थई जाय त्यांसुधी ते बधी साधारण वनस्पति छे अने ज्यारे तेमनामां समान भंग न थाय त्यारे ते ज वनस्पति प्रत्येक थई जाय छे. जोके साधारण वनस्पति अने सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति–ए बन्नेमां अनंता जीव छे तोपण साधारण वनस्पतिना शरीरमां जेटला जीव छे ते बधा ज ते शरीरना स्वामी छे अने ते वनस्पतिने तोडतां–कापतां ते बधा जीवोनो घात थाय छे अने सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिमां एक शरीरमां स्वामी तो शरीरनो एक ज छे पण ते शरीरना आश्रये अनंत जीव छे ते बधा स्वामी नथी अने ते शरीरना स्वामीना मरवा–जीववा साथे ते बधा जीवोना _________________________________________________________________ १–ते बधीनो त्याग एटले ते संबंधी रागनो त्याग ते पण मिथ्या अभिप्रायना त्यागरूप अने स्वाश्रयना ग्रहणरूप सम्यग्दर्शन विना ‘यथार्थ रीते व्यवहार त्याग’ एवा नामने पामतो नथी. धर्मी जीवे त्रस अने स्थावर जीवना भेद जाणवा जोईए बेइन्द्रिय आदिथी पंचेन्द्रिय सुधीना जीवने त्रस तथा पृथिवीकायिक, जळकायिक, वायुकायिक, अग्निकायिक अने वनस्पतिकायिक जीवने स्थावर कहे छे.
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मरवा–जीववानो कोई संबंध नथी. बस ए ज बन्नेमां भेद छे. तेथी गृहस्थ श्रावके साधारण वनस्पतिनो सर्वथा ज त्याग करवो जोईए अने सप्रतिष्ठित प्रत्येकनो पण त्याग करवो जोईए केम के एक साधारण वनस्पतिना एक शरीरमां अनंतानंत जीव रहे छे. तेथी ज्यारे आपणे एक बटेटुं खाईए छीए त्यारे अनंतानंत जीवोनो घात करीए छीए.
हवे अहीं एक साधारण वनस्पतिनो विचार करवामां आवे छे. जेमके एक बटेटुं ल्यो. आ बटेटाना जेटला प्रदेशो छे तेना करतां असंख्यातगुणां शरीर छे, ते बधां शरीरना पिंडने ‘स्कंध’ कहीए छीए. (जेम एक आपणुं शरीर छे) अने ते एक स्कंधमां असंख्यात लोकप्रमाण ‘अंडर’ छे (जेम आपणा शरीरमां हाथ, पग वगेरे उपांग छे) अने एक अंडरमां असंख्यात लोकप्रमाण ‘पुलवी’ छे, (जेम आपणा हाथने आंगळीओ छे) अने एक पुलवीमां असंख्यात लोकप्रमाण ‘आवास’ छे, (जेम एक आंगळीमां त्रण वेढा होय छे) अने एक ‘आवास’मां असंख्यात लोकप्रमाण निगोदना ‘शरीर’ छे. (जेम एक वेढामां अनेक रेखाओ छे) अने एक निगोद शरीरमां अनंत सिद्ध (मुक्तात्मा)नी राशिथी अनंतगुणा जीव छे (जेम एक आंगळीनी रेखामां असंख्यात प्रदेश छे) ए रीते एक बटेटामां अथवा एक बटेटाना टूकडामां अनंतानंत जीव रहे छे. तेथी आवी वनस्पतिओनो शीघ्र त्याग करवो जोईए. १६२.
अन्वयार्थः– [च] अने [प्रभूतजीवानाम्] घणा जीवोना [योनिस्थानं] उत्पत्तिस्थानरूप [नवनीतं] नवनीत अर्थात् माखण [त्याज्यं] त्याग करवा योग्य छे. [वा] अथवा [पिण्डशुद्धौ] आहारनी शुद्धिमां [यत्किञ्चित्] जे थोडुं पण [विरुद्धं] विरुद्ध [अभिधीयते] कहेवामां आवे छे [तत्] ते [अपि] पण त्याग करवा योग्य छे.
टीकाः– ‘च प्रभूत जीवानां योनिस्थानं नवनीतं त्याज्यं वा पिण्डशुद्धौ यत्किञ्चित् विरुद्धं अभिधीयते तत् अपि त्याज्यम्।’ अर्थः–घणा जीवोने ऊपजवानुं स्थान एवुं माखण अने ताजुं माखण ते पण त्याग करवा योग्य छे अने आहारशुद्धिमां जे कांई पण निषिद्ध छे ते बधुं ज छोडवुं जोईए.
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भावार्थः– आचारशास्त्रमां जे पदार्थो अभक्ष्य अने निषेध्य बताव्या छे ते बधानो त्याग करवो जोईए. जेम के चामडामां राखेल अथवा चामडानो स्पर्श थयो होय तेवुं पाणी, नळनुं पाणी, चामडामां राखेल वा चामडानो स्पर्श थयो होय तेवां घी, तेल; चामडामां राखेल हींग वगेरे पण अशुद्ध छे. तेथी ते खावा नहि. ४८ मिनिटथी वधारे वखत रहेलुं काचुं दूध, एक दिवस उपरांतनुं दहीं, बजारनो लोट, अजाण्यां फळ, रींगणां, सडेलुं अनाज, बहुबीजवाळी वस्तुओ खावी नहि. मर्यादा उपरांतनो लोट खावो न जोईए.
बत्रीस आंगळ लांबा अने चोवीस आंगळ पहोळा बेवडा करेला स्वच्छ, जाडा कपडाथी पाणी गाळीने पीवुं. ते गाळेला काचा पाणीनी मर्यादा ४८ मिनिटनी छे. गाळेला पाणीमां जो लविंग, एलची, मरी वगेरेनो भूको करीने नाखवामां आवे अने तेनुं प्रमाण एटलुं होय के ते पाणीनो रंग अने स्वाद बदलाई जाय तो ते पाणीनी मर्यादा छ कलाकनी छे अने पाणीने उछाळो आवे तेवुं उकाळवामां आवे तो तेनी मर्यादा २४ कलाकनी छे.१ आ रीते पाणीना उपयोगमां आचरण करवुं जोईए. पाणीनुं गाळण ज्यांथी पाणी आव्युं होय त्यां मोकलवुं जोईए. आ रीते श्रावके पोताना भोग–उपभोगनी सामग्रीमां विवेक राखीने त्याग अने ग्रहण करवां जोईए. १६३.
अविरुद्धा अपि भोगा निजशक्तिमपेक्ष्य धीमता त्याज्याः। अत्याज्येष्वपि सीमा कार्यैकदिवानिशोपभोग्यतया।। १६४।।
अन्वयार्थः– [धीमता] बुद्धिमान मनुष्ये [निजशक्तिम्] पोतानी शक्ति [अपेक्ष्य] जोईने [अविरुद्धाः] अविरुद्ध [भोगाः] भोग [अपि] पण [त्याज्याः] छोडी देवा योग्य छे. अने जे [अत्याज्येषु] उचित भोग–उपभोगोनो त्याग न थई शके तो तेमां [अपि] पण [एकदिवानिशोपभोग्यतया] एक दिवस–रातनी उपभोग्यताथी [सीमा] मर्यादा [कार्या] करवी जोईए.
टीकाः– ‘धीमता निजशक्तिम् अपेक्ष्य अविरुद्धाः अपि भोगाः त्याज्याः तथा अत्याज्येषु अपि एक दिवानिशोपभोग्यतया सीमा कार्या।’ अर्थः–बुद्धिमान श्रावक पोतानी शक्तिनो विचार करीने खावा योग्य पदार्थो पण छोडे अने जे सर्वथा छूटी _________________________________________________________________ १. उकाळेला पाणीनी मर्यादा पूरी थया पछी ते पाणी कोई काममां न लेवुं एवी आज्ञा छे.
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न शके तेमां एक दिवस, एक रात, एक अठवाडियुं, पखवाडियुं वगेरेनी मर्यादा करीने क्रमे क्रमे छोडे. १६४.
पुनरपि पूर्वकृतायां समीक्ष्य तात्कालिकीं निजां शक्तिम्। सीमन्यन्तरसीमा प्रतिदिवसं भवति कर्तव्या।। १६५।।
अन्वयार्थः– [पूर्वकृतायां] प्रथम करेली [सीमनि] मर्यादामां [पुनः] फरीथी [अपि] पण [तात्कालिकी] ते समयनी अर्थात् वर्तमान समयनी [निजां] पोतानी [शक्तिम्] शक्तिनो [समीक्ष्य] विचार करीने [प्रतिदिवसं] दररोज [अन्तरसीमा] मर्यादामां पण थोडी मर्यादा [कर्तव्या भवति] करवा योग्य छे.
टीकाः– ‘पुनरपि पूर्वकृतायां सीमनि तात्कालिकीं निजां शक्तिम् समीक्ष्य प्रतिदिवसं अन्तर सीमा कर्तव्या भवति।’–अर्थः–पहेलां जे एक दिवस, एक सप्ताह इत्यादि क्रमे त्याग कर्यो छे तेमां पण ते समयनी पोतानी शक्ति जोईने घडी, कलाक, पहोर वगेरेनी थोडी थोडी मर्यादा करीने जेटलो त्याग बनी शके तेटलो त्याग करवो. आ रीते पोताना भोग–उपभोगनी सामग्रीना पदार्थोनी संख्या तथा जेटला काळनी मर्यादा ओछी करी शके तेटली अवश्य करवी. एमां ज आत्मानुं १कल्याण छे. १६प.
इति यः परिमितभोगैः सन्तुष्टस्त्यजति बहुतरान् भोगान्। बहुतरहिंसाविरहात्तस्याऽहिंसा विशिष्टा स्यात्।। १६६।।
अन्वयार्थः– [यः] जे गृहस्थ [इति] आ रीते [परिमितभोगैः] मर्यादारूप भोगोथी [सन्तुष्टः] संतुष्ट थईने [बहुतरान्] घणा [भोगान्] भोगोने [त्यजति] छोडी दे छे [तस्य] तेने [बहुतरहिंसाविरहात्] घणी हिंसाना त्यागथी [विशिष्टा अहिंसा] विशेष अहिंसाव्रत [स्यात्] थाय छे. _________________________________________________________________ १, [नोंधः–अहीं भूमिकानुसार आवो राग आवे छे तेनुं ज्ञान कराववा माटे उपदेशवचन छे. आत्मानुं
अशुभथी बचवा जे शुभराग आवे छे तेने उपचारथी व्यवहारथी भलो कहेवानी रीत छे.]
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टीकाः– ‘यः इति परिमितभोगैः सन्तुष्टः बहुतरान् भोगान् त्यजति तस्य बहुतरहिंसाविरहात् विशिष्टा अहिंसा स्यात्।’–अर्थः–आ रीते जे श्रावक भोग–उपभोगना पदार्थोथी संतुष्ट थयो थको घणा भोग–उपभोगना पदार्थोने छोडी दे छे तेने घणी हिंसा न थवाना कारणे विशेष अहिंसा थाय छे.
भावार्थः– जे श्रावक भोग–उपभोगना पदार्थोनो मर्यादापूर्वक त्याग करतो रहे छे तेने तेटला ज अंशे संतोष प्रगट थईने अहिंसा प्रगट थाय छे. ते वस्तुओना जीवोनी हिंसा नहि थवाथी द्रव्यहिंसा थती नथी तथा एटला ज अंशे लोभ कषायनो त्याग थवाने लीधे भावहिंसा पण थती नथी. तेथी (अकषाय ज्ञातास्वरूपमां–सावधान एवा) त्यागी मनुष्यने अवश्य ज विशेष अहिंसा होय छे. आ रीते भोग–उपभोगपरिमाण नामना त्रीजा शिक्षाव्रतनुं वर्णन कर्युं.१६६.
हवे चोथा वैयावृत्त (अतिथिसंविभाग) नामना शिक्षाव्रतनुं वर्णन करे छेः–
स्वपरानुग्रहहेतोः कर्तव्योऽवश्यमतिथये भागः।। १६७।।
अन्वयार्थः– [दातृगुणवता] दाताना गुणवाळा गृहस्थे [१जातरूपाय अतिथये] दिगंबर मुनिने [स्वपरानुग्रहहेतोः] पोताना अने परना अनुग्रहना हेतुथी [द्रव्यविशेषस्य] विशेष द्रव्यनो अर्थात् देवा योग्य वस्तुनो [भागः] भाग [विधिना] विधिपूर्वक [अवश्यम्] अवश्य ज [कर्तव्यः] कर्तव्य छे.
टीकाः– ‘विधिना दातृगुणवता द्रव्यविशेषस्य जातरूपाय अतिथये स्वपरानुग्रहहेतोः अवश्यं भागः कर्तव्यः।’–अर्थः–नवधाभक्तिपूर्वक तथा दातारना सात गुण सहित जे श्रावक छे तेणे दान देवा योग्य वस्तुनुं जे गुणवान पात्र छे तेमने पोताना अने परना उपकारना निमित्ते अवश्य दान करवुं जोईए.
भावार्थः– श्रावक जे न्यायपूर्वक धन पेदा करे छे तेणे पोताना धनमांथी थोडुंघणुं धन चारे संघना दान निमित्ते काढवुं जोईए अने तेनुं विधिपूर्वक दान आपवुं जोईए. तेथी तेना धननो सदुपयोग थईने कर्मोनी निर्जरा थाय अने चारे संघ पोतानां तपनी वृद्धि करे. १६७. _________________________________________________________________ १. जातरूपा जन्म्या प्रमाणे (निर्दोष) जेवा रूपमां हता तेवा अर्थात् नग्न दिगम्बर, अथवा उत्तम
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[आवेला अभ्यागतने प्रतिदिन भोजनादिकनुं दान करीने पछी पोते भोजन करे एवुं श्रावकोनुं नित्यकर्म छे. तेने अतिथिसंविभाग कहे छे.]
वाक्कायमनःशुद्धिरेषणशुद्धिश्च
अन्वयार्थः– [च] अने [संग्रहम्] प्रतिग्रहण, [उच्चस्थानं] ऊंचुं आसन आपवुं, [पादोदकम्] पग धोवा, [अर्चनं] पूजा करवी, [प्रणामं] नमस्कार करवा, [वाक्कायमनःशुद्धि] मनशुद्धि, वचनशुद्धि अने कायशुद्धि राखवी [च] अने [एषणशुद्धिः] भोजनशुद्धि. आ रीते आचार्यो [विधिम्] नवधाभक्तिरूप विधि [आहुः] कहे छे.
टीकाः– संग्रहम्, उच्चस्थानं, पादोदकं, अर्चनं, प्रणामं, वाक्शुद्धिः, कायशुद्धिः, मनशुद्धिः, एषणशुद्धिः, इति विधिम् आहुः।’ १–संग्रह एटले पडगाहन करवुं, मुनिराजने खूब आदरपूर्वक भोजन माटे निमंत्रण आपीने घरमां प्रवेश कराववो, २–उच्च स्थान अर्थात् घरमां लई जईने तेमने ऊंचा आसन पर बेसाडवां, ३–पादोदक अर्थात् तेमना पग निर्दोष जळथी धोवा, ४–अर्चन अर्थात् आठ द्रव्यथी तेमनी पूजा करवी अथवा फक्त अर्घ चडाववो, प–प्रणाम अर्थात् पूजन पछी प्रणाम करीने त्रण प्रदक्षिणा करवी, ६–वाक्शुद्धि अर्थात् विनयपूर्वक वचन बोलवां एवी वचनशुद्धि, ७–कायशुद्धि अर्थात् हाथ अने पोतानुं शरीर शुद्ध राखवुं, ८–मनशुद्धि अर्थात् मन शुद्ध करवुं जेम के दान देवामां परिणाम सेवा तथा भक्तिरूप राखवा, खोटा परिणाम न करवा, ९–एषणशुद्धि अर्थात् आहारनी शुद्धि राखवी, आहारनी बधी वस्तुओ निर्दोष राखवी. आ रीते नव प्रकारनी भक्तिपूर्वक ज आहारदान आपवुं जोईए, आ नवधाभक्ति मुनि महाराजने माटे ज छे अन्यने माटे योग्यता प्रमाणे ओछीवत्ती छे. १६८.
अविषादित्वमुदित्वे निरहङ्कारित्वमिति हि दातृगुणाः।।
१६९।।
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अन्वयार्थः– [ऐहिकफलानपेक्षा] आ लोक संबंधी फळनी इच्छा न राखवी, [क्षान्तिः] क्षमा अथवा सहनशीलता, [निष्कपटता] निष्कपटपणुं, [अनसूयत्वम्] इर्षारहितपणुं, [अविषादित्वमुदित्वे] अखिन्नभाव, हर्षभाव अने [निरहङ्कारित्वम्] निरभिमानपणुं [इति]–ए रीते आ सात [हि] निश्चयथी [दातृगुणाः] दाताना गुण छे.
टीकाः– ‘हि ऐहिकफलानपेक्षा, क्षान्तिः, निष्कपटता, अनसूयत्वम्, अविषादित्वम्– मुदित्वम्, निरहंकारित्वम इति सप्त दातृगुणाः सन्ति।’ अर्थः–१–ऐहिकफल–अनपेक्षा–दान आपीने आ लोक संबंधी सारा भोगोपभोगनी सामग्रीनी इच्छा न करवी. २–क्षान्ति–दान आपती वखते क्षमाभाव धारण करवो. ३–निष्कपटता–कपट न करवुं ते. बहारमां भक्ति करे अने अंतरंगमां परिणाम खराब राखे तेम न करवुं जोईए. ४–अनसूयत्वम्–बीजा दाता प्रत्ये दुर्भाव न राखवो. अर्थात् पोताने घेर मुनि महाराजनो आहार न थवाथी अने बीजाना घेर आहार थवाथी बीजा प्रत्ये बुरो भाव न राखवो. प–अविषादपणुं–विषाद न करवो ते. अमारे त्यां सारी वस्तु हती ते अमे आपी शकया नहि वगेरे प्रकारे खिन्नता करवी नहि. ६– मुदितपणुं–दान आपीने खूब हर्ष न करे. ७–निरहंकारीपणुं–अभिमान न करवुं ते. अमे महान दानी छीए इत्यादि प्रकारे मनमां अभिमान न करवुं. आ १सात गुण दाताना छे. ते प्रत्येक दातामां अवश्य होवा जोईए. आ रीते नव प्रकारनी भक्तिपूर्वक तथा सात गुण सहित जे दाता दान आपे छे ते दान घणुं फळ आपनार थाय छे अने जे ए सिवाय दान आपे छे ते घणुं फळ आपनार थतुं नथी. १६९.
अन्वयार्थः– [यत्] जे [द्रव्यं] द्रव्य [रागद्वेषासंयममददुःखभयादिकं] राग, द्वेष, असंयम, मद, दुःख, भय आदि [न कुरुते] करतुं नथी अने [सुतपः स्वाध्याय– _________________________________________________________________ १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार गा० १३३ मां दाताना सात गुण–१ भक्ति–धर्ममां तत्पर रही, पात्रोना
पात्रनी भक्तिमां प्रवर्ते. २–तुष्टि–देवामां अति आसक्त, पात्रलाभने परम निधाननो लाभ माने.
३–श्रद्धा, ४–विज्ञान, प–अलोलुप, ६–सात्त्विक, ७–क्षमा.