Purusharth Siddhi Upay-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 211-226 ; Parishist 1; Alphabetical Index.

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[समयं] समय [लब्ध्वा] प्राप्त करीने तथा [मुनीनां] मुनिओना [पदम्] चरणनुं [अवलम्ब्य] अवलंबन करीने [सपदि] शीघ्र ज [परिपूर्णम्] परिपूर्ण [कर्त्तव्यम्] करवा योग्य छे.

टीकाः– ‘नित्यं बद्धोद्यमेन बोधिलाभस्य समयं लब्ध्वा च मुनिनां पदम् अवलम्ब्य सपदि परिपूर्णं कर्त्तव्यम्।’ अर्थः– गृहस्थे सदा उद्यमशील थईने सम्यग्ज्ञाननी प्राप्तिनो समय मेळवी मुनिपद धारण करीने शीघ्र सर्व देशव्रतो पाळवां जोईए.

भावार्थः– विवेकी पुरुष गृहस्थ दशामां पण संसार अने शरीरथी विरक्त थईने सदाय मोक्षमार्गमां उद्यमी रहे छे अने तेओ समय पामीने शीघ्र मुनिपद धारण करी, सकळ परिग्रहनो त्याग करी निर्विकल्प ध्यानमां आरूढ थईने, पूर्ण रत्नत्रयने प्राप्त करी, संसारभ्रमणनो नाश करी शीघ्र मोक्षनी प्राप्ति करे छे. एकदेश रत्नत्रयने धारण करी इन्द्रादिक उच्चपद पामे तथा परंपराए मोक्ष पण पामे. २१०.

असमग्रं भावयतो रत्नत्रयमस्ति कर्मबन्धो यः।
स विपक्षकृतोऽवश्यं मोक्षोपायो न बन्धनोपायः।। २११।।

अन्वयार्थः– [असमग्रं] अपूर्ण [रत्नत्रयम्] रत्नत्रयनी [भावयतः] भावना करनार पुरुषने [यः] जे [कर्मबन्धः] शुभ कर्मनो बंध [अस्ति] थाय छे, [सः] ते बंध [विपक्षकृतः] विपक्षकृत अथवा रागकृत होवाथी [अवश्यं] अवश्य ज [बन्धनोपायः] बंधनो उपाय छे, [मोक्षोपायः न] मोक्षनो उपाय नथी.

टीकाः– ‘असमग्रं रत्नत्रयं भावयतः यः कर्मबंधः अस्ति सः विपक्षकृतः रत्नत्रयं तु मोक्षोपायः अस्ति न बन्धनोपायः।’ अर्थः–एकदेशरूप रत्नत्रयनुं पालन करनार पुरुषने जे कर्मबंध थाय छे ते रत्नत्रयथी नथी थतो, पण रत्नत्रयनो विपक्ष जे रागद्वेष छे तेनाथी थाय छे. ते रत्नत्रय तो वास्तवमां मोक्षनो उपाय छे, बंधनो उपाय नथी.

भावार्थः– सम्यग्द्रष्टि जीव जे एकदेश रत्नत्रय धारण करे छे तेने जे कर्मबंध थाय छे ते रत्नत्रयथी नथी थतो पण तेनो जे शुभकषाय छे तेनाथी ज थाय छे. आथी एम सिद्ध थयुं के कर्मबंध करनार शुभकषाय छे पण रत्नत्रय नथी. २११.


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हवे रत्नत्रय अने रागनुं फळ बतावे छेः–

येनांशेन सुद्रष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति।
येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति।। २१२।।
येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य
बन्धनं नास्ति।
येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति।। २१३।।
येनांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य
बन्धनं नास्ति।
येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति।। २१४।।

अन्वयार्थः– [अस्य] आ आत्माने [येनांशेन] जे अंशथी [सुद्रष्टिः] सम्यग्दर्शन छे, [तेन] ते [अंशेन] अंशथी [बन्धनं] बंध [नास्ति] नथी, [तु] पण [येन] जे [अंशेन] अंशथी [अस्य] एने [रागः] राग छे, [तेन] ते [अंशेन] अंशथी [बन्धनं] बंध [भवति] थाय छे. [येन] जे [अंशेन] अंशथी [अस्य] एने [ज्ञानं] ज्ञान छे, [तेन] ते [अंशेन] अंशथी [बन्धनं] बंध [नास्ति] नथी [तु] पण [येन] जे [अंशेन] अंशथी [रागः] राग छे, [तेन] ते [अंशेन] अंशथी [अस्य] एने [बन्धनं] बंध [भवति] थाय छे. [येन] जे [अंशेन] अंशथी [अस्य] एने [चरित्रं] चारित्र छे, [तेन] ते [अंशेन] अंशथी [बन्धनं] बंध [नास्ति] नथी, [तु] पण [येन] जे [अंशेन] अंशथी [रागः] राग छे, [तेन] ते [अंशेन] अंशथी [अस्य] एने [बन्धनं] बंध [भवति] थाय छे.

टीकाः– ‘येन अंशेन सुद्रष्टिः तेन अंशेन बन्धनं नास्ति किन्तु येन अंशेन रागः तेन अंशेन बन्धनं भवति।’ अर्थः–जेटला अंशे सम्यग्दर्शन छे एटला अंशे कर्मबंध नथी तथा जेटला अंशे रागभाव छे तेटला ज अंशे कर्मनो बंध छे.

भावार्थः– जीवना त्रण भेद छे–१. बहिरात्मा, २. अंतरात्मा, ३. परमात्मा. आ त्रणमां बहिरात्मा तो मिथ्याद्रष्टि छे केमके तेने सम्यग्दर्शन नथी, केवळ रागभाव छे तेथी सर्वथा बंध ज छे; अने परमात्मा भगवान जेमने पूर्ण सम्यग्दर्शन थई गयुं छे तेमने रागभाव रंचमात्र पण नथी तेथी सर्वथा बंध नथी, मोक्ष ज छे.

अंतरात्मा सम्यग्द्रष्टि चोथा गुणस्थानथी मांडीने बारमा गुणस्थान सुधी छे, माटे आ अंतरात्माने जेटला अंशे सम्यग्दर्शन थई गयुं छे तेटला अंशे कर्मनुं


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बंधन नथी अने जेटला अंशे रागभाव छे एटला अंशे कर्मनो बंध छे. जेमके चोथा गुणस्थाने अनंतानुबंधी संबंधी रागभाव नथी तो एटलो कर्मबंध पण नथी, बाकीना अप्रत्याख्यानावरणनो बंध छे. पांचमा गुणस्थाने अप्रत्याख्याननो पण रागभाव न होवाथी तेनो पण बंध नथी परंतु प्रत्याख्याननो बंध छे. ए ज प्रमाणे आगळ जेटला अंशे रागभावनो अभाव छे तेटला ज अंशे कर्मनो बंध नथी तथा जेटला अंशे रागभाव छे तेटला ज अंशे कर्मनो बंध छे. २१२.

जेटला अंशे जे जीवने सम्यग्ज्ञान थई गयुं छे तेटला ज अंशे रागभाव नहि होवाथी कर्मनो बंध नथी. जेटला अंशे रागभाव छे तेटला ज अंशे कर्मनो बंध छे.

भावार्थः– जेवी रीते सम्यग्दर्शननुं कथन कर्युं छे तेवी रीते सम्यग्ज्ञाननुं पण समजवुं, जेम के बहिरात्माने सम्यग्ज्ञान नथी, मिथ्याज्ञान ज छे तेथी तेने पूर्ण रागद्वेष होवाथी अवश्य कर्मनो बंध थाय छे. परमात्मा जे तेरमा गुणस्थानवर्ती छे तेमने पूर्ण सम्यग्ज्ञान प्रगट थई गयुं छे, रागभावनो बिलकुल अभाव छे तेथी तेमने कर्मनो बंध बिलकुल नथी. अने अंतरात्मा जे चोथा गुणस्थानथी लईने बारमा गुणस्थान सुधी छे तेमने जेटला अंशे सम्यग्ज्ञान प्रगट थई गयुं छे तेटला ज अंशे कर्मनो बंध नथी तथा जेटला अंशे रागभाव छे तेटला ज अंशे कर्मबंध छे. २१३.

जेटला अंशे सम्यक्चारित्र प्रगट थई गयुं छे तेटला ज अंशे कर्मनो बंध नथी अने जेटला अंशे रागद्वेषभाव छे तेटला ज अंशे कर्मनो बंध छे. उपरनी जेम अहीं पण समजी लेवुं. जेमके बहिरात्माने मिथ्याचारित्र छे, सम्यक्चारित्र रंचमात्र पण नथी तेथी एने रागद्वेषनी पूर्णता होवाथी पूर्ण कर्मनो बंध छे, अने परमात्माने पूर्ण सम्यक्चारित्र छे तेथी एने रंचमात्र पण कर्मनो बंध नथी. अंतरात्माने जेटला अंशे रागद्वेष भावोनो अभाव छे एटला ज अंशे कर्मनो बंध नथी.

भावार्थः– मोहनीय कर्मना बे भेद छे–१. दर्शनमोह, २. चारित्रमोह. दर्शनमोहना उदयथी मिथ्यादर्शन थाय छे अने चारित्रमोहना उदयथी मिथ्याचारित्र थाय छे. जेटलो ते कषायोनो अभाव थतो जाय छे तेटलो तेटलो तेने सम्यग्दर्शन अथवा सम्यक्चारित्र गुणनो विकास थतो जाय छे. जेमके दर्शनमोहनीयनो अभाव थवाथी सम्यग्दर्शन गुण प्रगट थाय छे. अने अनंतानुबंधी चोकडीनो अभाव थवाथी स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट थाय छे. अप्रत्याख्यानावरणी चोकडीनो अभाव थवाथी देशचारित्र प्रगट थाय छे. प्रत्याख्यानावरणी चोकडीनो अभाव थवाथी सकलचारित्र प्रगट थाय छे. संज्वलन चोकडी अने नव नोकषायनो अभाव थवाथी यथाख्यातचारित्र


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प्रगट थाय छे. –आ रीते आ मोहनीयकर्मनी २प प्रकृति ज जीवने रागद्वेष थवामां निमित्तकारण छे.

एमांथी अनंतानुबंधी क्रोध अने मान, अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध अने मान, प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध अने मान, संज्वलन क्रोध अने मान–ए आठ अने अरति, शोक, भय, जुगुप्सा–कुल ए बार प्रकृति तो द्वेषरूप परिणमनमां कारण छे तथा बाकी रहेली तेर प्रकृतिओ रागरूप परिणमनमां कारण छे. आ रीते आ जीव अनादिकाळथी पचीस कषायोने ज वशीभूत थईने नित्य अनेक दुष्कर्मो करतो थको संसारसागरमां भ्रमण करी रह्यो छे माटे आठे कर्मोमां आ मोहनीय कर्मने सर्वथी पहेलां जीतवुं जोईए. ज्यां सुधी मोहनीय कर्मनो पराजय न थाय त्यां सुधी बाकीनां कर्मोनो पराजय थई शकतो नथी. तेथी सौथी पहेलां सम्यग्दर्शन प्राप्त करीने दर्शनमोहनो नाश करवो. सम्यग्ज्ञान वडे ज्ञानावरणनो नाश अने सम्यग्चारित्रवडे चारित्रमोहनीयनो नाश करी सम्यक्रत्नत्रय प्राप्त करवां जोईए. ज्यारे कोई पण जीव आ क्रमे कर्मोनो नाश करी आत्माना गुणोनो विकास करशे त्यारे ज ते पोताना ध्येयने प्राप्त करी शके छे. २१४.

आत्मा साथे कर्मोनो बंध करावनार कोण छे ए वात हवे बतावे छेः–

योगात्प्रदेशबन्धः स्थितिबन्धो भवति तु कषायात्।
दर्शनबोधचरित्रं न योगरूपं
कषायरूपं च।। २१५।।

अन्वयार्थः– [प्रदेशबन्धः] प्रदेशबंध [योगात्] मन, वचन, कायाना व्यापारथी [तु] अने [स्थितिबन्धः] स्थितिबंध [कषायात्] क्रोधादि कषायोथी [भवति] थाय छे, परंतु [दर्शनबोधचरित्रं] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय [न] न तो [योगरूपं] योगरूप छे [च] अने न [कषायरूपं] कषायरूप पण छे.

टीकाः– ‘योगात् प्रदेशबन्धः भवति तु कषायात् स्थितिबन्धः भवति यतः दर्शनबोधचरित्रं योगरूपं च कषायरूपं न भवति।’ अर्थः–मन, वचन, कायाना त्रण योगथी प्रदेशबंध अने प्रकृतिबंध थाय छे तथा क्रोधादि कषायोथी स्थितिबंध अने अनुभागबंध थाय छे. अहीं श्लोकमां जोके प्रकृतिबंध अने अनुभागबंध गणाव्या नथी तोपण उपलक्षणथी ग्रहण थई जाय छे. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ए त्रणे न तो योगरूप छे अने न कषायरूप पण छे. तेथी रत्नत्रय कर्मबंधनुं कारण थई शकतां नथी.


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भावार्थः– बंध चार प्रकारना छे–प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध. आमांथी प्रकृतिबंध अने प्रदेशबंध योगथी थाय छे तथा स्थितिबंध अने अनुभागबंध कषायोथी थाय छे. हवे आ चारे बंधोनुं स्वरूप कहे छे. १. प्रकृतिबंध–प्रकृति नाम स्वभावनुं छे. कर्मोनी मूळ–प्रकृति आठ अने उत्तर–प्रकृति एकसोअडतालीस छे, जेम के ज्ञानावरणीय कर्मनो स्वभाव पडदा समान छे. जे वस्तु उपर पडदो ढंकायो होय ते पडदो ते वस्तुनुं ज्ञान न थवामां कारण छे, तेवी ज रीते ज्यांसुधी आत्मानी साथे ज्ञानावरणीय कर्मरूपी पडदो होय त्यांसुधी ते आत्माने पदार्थोनुं सम्यग्ज्ञान न थवामां कारण छे.

दर्शनावरणीय कर्मनो स्वभाव दरबारी जेवो छे. जेम दरबारी राजानुं दर्शन थवा देतो नथी तेम दर्शनावरणीय कर्म आत्माने स्व–पर पदार्थोनुं दर्शन थवा देतुं नथी.

वेदनीय कर्मनो स्वभाव मध चोपडेली तलवार जेवो छे. जेम ते तलवार चाटवाथी मीठी लागे छे पण ते जीभने कापी नाखे छे. तेम वेदनीय कर्म पण पहेलां थोडा समय सुधी सुखरूप लागे छे, पछी ते ज दुःख आपनार बनी जाय छे.

मोहनीय कर्मनो स्वभाव मदिरा जेवो छे. जेम मदिरा पीवाथी मनुष्यने पोताना मनुष्यपणानुं भान रहेतुं नथी तेवी ज रीते आ मोहनीय कर्ममां जोडावाथी आत्मा पोतानुं स्वरूप भूली पर पदार्थोमां पोतापणुं, कर्ता–भोक्ता, स्वामीपणुं माने छे.

आयुकर्मनो स्वभाव हेडबेडी सहित जेल समान छे. जेम जे माणस ज्यांसुधी जेलमां छे त्यांसुधी ते माणस त्यांथी कयांय पण जई शकतो नथी तेवी ज रीते जे जीवे जे आयुकर्मनो बंध कर्यो छे ते आयु ज्यांसुधी पूर्ण न थाय त्यांसुधी तेने ते ज गतिमां रहेवुं पडे छे.

नामकर्मनो स्वभाव चित्रकार समान छे. जेम चित्रकार जुदी जुदी जातना अर्थात् कोईवार मनुष्यनुं, कोईवार घोडानुं, कोईवार हाथीनुं चित्र बनावे छे, तेवी ज रीते नामकर्म पण आ जीवने कोईवार माणस बनावे छे, कोईवार घोडो बनावे छे, कोईवार काणो, कोईवार बहेरो, कोईवार लूलो इत्यादि प्रकारे अनेकरूप बनावे छे.

गोत्रकर्मनो स्वभाव कुंभार जेवो छे, जेम कुंभार कोईवार नानुं वासण बनावे छे अने कोईवार मोटुं वासण बनावे छे, तेम गोत्रकर्म पण आ जीवने कोईवार उच्च कुळमां अने कोईवार नीच कुळमां पेदा करे छे.

अन्तरायकर्मनो स्वभाव भंडारी जेवो छे. जेम राजा कोईने कांईक ईनाम


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वगेरे आपता होय अने भंडारी तेने आपवा देतो नथी, तेवी ज रीते अंतराय कर्म पण आत्माने प्राप्त थनार पदार्थोमां अनेक प्रकारनां विघ्न नाखीने ते पदार्थ प्राप्त थवा देतुं नथी. – आ रीते आ आठे कर्मोनो स्वभाव छे. ए पोतपोताना स्वभाव सहित जीव साथे संबंध करे छे.

हवे प्रदेशबंधनुं वर्णन करे छे. आत्माना असंख्यात प्रदेशोमांथी एक एक प्रदेश साथे कर्मनां अनंतानंत परमाणु बंधाय अर्थात् जीवना प्रदेश अने कर्मनां परमाणु–बन्ने एकक्षेत्रावगाह थईने रहे तेने प्रदेशबंध कहे छे.

हवे स्थितिबंधनुं वर्णन करे छे. जे कर्म (जीवनी साथे रहेवानी) पोतानी स्थितिसहित बंधाय तेने स्थितिबंध कहे छे. जेम के ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय अने अंतराय–आ चार कर्मोनी उत्कृष्ट स्थिति ३० क्रोडाक्रोडी सागरनी छे अने मोहनीय कर्ममांथी दर्शनमोहनीयनी ७० क्रोडाक्रोडीनी अने चारित्रमोहनीयनी ४० क्रोडाक्रोडी सागरनी छे. नाम अने गोत्रकर्मनी स्थिति २० क्रोडाक्रोडी सागरनी छे. आयुकर्मनी स्थिति ३३ सागरनी छे. आ बधानी उत्कृष्ट स्थिति थई. जघन्य स्थिति नाम गोत्रनी आठ मुहूर्त, वेदनीयनी बार मुहूर्त, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अंतराय अने आयु ए पांच कर्मोनी जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त छे. मध्यमस्थितिना अनंत भेद छे. आ प्रकारे स्थितिबंधनुं निरूपण कर्युं.

हवे अनुभागबंधनुं वर्णन करे छे. कर्मोमां जे फळ देवानी शक्ति होय छे तेने ज अनुभागबंध कहे छे. आ अनुभागबंध घातीकर्मोनो तो केवळ अशुभरूप ज होय छे अने अघातीकर्मोनो शुभरूप अने अशुभरूप बन्ने प्रकारनो होय छे. जेम के ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय अने अंतराय–ए चार कर्मोनो लता–लाकडुं–हाडकां अने पथ्थररूप क्रमथी वधतो वधतो बंध थाय छे अने नाम, गोत्र, वेदनीय आयु–आ चार कर्मोनो जो शुभरूप होय तो गोळ, खांड, साकर अने अमृत समान शुभफळ आपे छे अने जो अशुभरूप होय तो लींबडो, कांजी, विष अने हळाहळ समान अशुभ फळ आपे छे.–आ रीते आ बधां कर्मोनो विपाक थया करे छे. आ रीते चारे प्रकारना बंधनुं वर्णन कर्युं. २१प.

रत्नत्रयथी बंध केम थतो नथी ए वात हवे बतावे छेः–

दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः।
स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्धः।। २१६।।


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अन्वयार्थः– [आत्मविनिश्चितिः] पोताना आत्मानो विनिश्चय [दर्शनम्] सम्यग्दर्शन, [आत्मपरिज्ञानम्] आत्मानुं विशेष ज्ञान [बोधः] सम्यग्ज्ञान अने [आत्मनि] आत्मामां [स्थितिः] स्थिरता [चारित्रं] सम्यक्चारित्र [इष्यते] कहेवाय छे तो पछी [एतेभ्यः ‘त्रिभ्यः’] आ त्रणथी [कुतः] केवी रीते [बन्धः] बंध [भवति] थाय?

टीकाः– ‘आत्मविनिश्चितिः दर्शनं, आत्मपरिज्ञानं बोधः, आत्मनि स्थितिः चारित्रं इष्यते एतेभ्यः बंधः कुतः भवति।’ अर्थः–आत्माना स्वरूपनो निश्चय थवो ते सम्यग्दर्शन छे, आत्माना स्वरूपनुं परिज्ञान थवुं ते सम्यग्ज्ञान छे अने आत्मस्वरूपमां लीन थवुं ते सम्यक्चारित्र छे. आ त्रणे आत्मस्वरूप ज छे. ज्यारे आ त्रणे गुण आत्मस्वरूप छे तो एनाथी कर्मोनो बंध केवी रीते थई शके? अर्थात् थई शकतो नथी.

भावार्थः– रत्नत्रय बे प्रकारना छे–१. व्यवहाररत्नत्रय अने २. निश्चयरत्नत्रय. देव– शास्त्र–गुरुनुं तथा सात तत्त्वोनुं श्रद्धान करवुं ते व्यवहारसम्यग्दर्शन छे, तत्त्वोना स्वरूपने जाणी लेवुं ते व्यवहारसम्यग्ज्ञान छे, अशुभ क्रियाओथी प्रवृत्ति हटावीने शुभक्रियामां प्रवृत्ति करवी ते व्यवहारसम्यक्चारित्र छे.–आ व्यवहाररत्नत्रय थयां. आत्मस्वरूपनुं श्रद्धान ते निश्चयसम्यग्दर्शन, आत्मज्ञान थवुं ते निश्चयसम्यग्ज्ञान अने आत्मस्वरूपमां परिणमन ते निश्चयसम्यक्चारित्र. ते आ जीवने कर्मोथी छोडाववानुं कारण छे, पण कर्मोना बंधनुं कारण नथी. २१६.

रत्नत्रय तीर्थंकरादि प्रकृतिओनो पण बंध करनार नथी, ए वात हवे बतावे छेः–

सम्यक्त्वचरित्राभ्यां तीर्थकराहारकर्म्मणो बन्धः।
योऽप्युपदिष्टः समये न नयविदां सोऽपि दोषाय।। २१७।।

अन्वयार्थः– [अपि] अने [तीर्थकराहारकर्मणाः] तीर्थंकरप्रकृति अने आहार प्रकृतिनो [यः] जे [बन्धः] बंध [सम्यक्त्वचरित्राभ्यां] सम्यक्त्व अने चारित्रथी [समये] आगममां [उपदिष्टः] कह्यो छे, [सः] ते [अपि] पण [नयविदां] नयना जाणनाराओना [दोषाय] दोषनुं कारण [न] नथी.

टीकाः– ‘सम्यक्त्व चरित्राभ्यां तीर्थकराहार कर्मणः बन्धः (भवति) यः अपि समयं उपदिष्टः सः अपि नयविदां दोषाय न भवति।’ अर्थः–सम्यग्दर्शन अने सम्यक्–


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चारित्रथी तीर्थंकर–प्रकृति अने आहारक–प्रकृतिनो बंध थाय छे, एवो जे शास्त्रोमां उपदेश छे तेमां पण नयविवक्षा जाणनारने दोष अर्थात् विरोध जणातो नथी.

भावार्थः– जो कोई एम शंका करे के सम्यग्दर्शन थया पछी ज तीर्थंकरप्रकृतिनो बंध थाय छे अने सम्यक्चारित्र थया पछी ज आहारक–प्रकृतिनो बंध थाय छे तो उपर जे आ कहेवामां आव्युं छे के रत्नत्रय कर्मनो बंध करनार नथी ए केवी रीते? तेनो खुलासो करे छेः–

सति सम्यक्त्वचरित्रे तीर्थकराहारबन्धकौ भवतः।
योगकषायौ
नासति तत्पुनरस्मिन्नुदासीनम्।। २१८।।

अन्वयार्थः– [यस्मिन्] जेमां [सम्यक्त्वचरित्रे सति] सम्यक्त्व अने चारित्र होवा छतां [तीर्थकराहारबन्धकौ] तीर्थंकर अने आहारक प्रकृतिनो बंध करनार [योगकषायौ] योग अने कषाय [भवतः] थाय छे [पुनः] अने [असतिः न] नहोता, थता नथी अर्थात् सम्यक्त्व अने चारित्र विना बंधना कर्ता योग अने कषाय थता नथी [तत्] ते सम्यक्त्व अने चारित्र [अस्मिन्] आ बंधमां [उदासीनम्] उदासीन छे.

टीकाः– ‘सम्यक्त्व चरित्रे सति योगकषायौ तीर्थकराहार बंधकौ भवतः तस्मात् तत्पुनः अस्मिन् उदासीनम्।’ अर्थः–सम्यग्दर्शन अने सम्यक्चारित्र होय त्यारे ज योग अने कषाय तीर्थंकर तथा आहारकनो बंध करनार थाय छे, तेथी रत्नत्रय तो प्रकृतिओनो बंध करवामां उदासीन छे.

भावार्थः– ज्यारे आत्मामां सम्यग्दर्शन अने सम्यक्चारित्रगुण प्रगट होता नथी त्यारे पण आत्मानी साथे कर्मोनो बंध थाय छे अने ज्यारे एकदेश सम्यक्चारित्र प्रगट थाय त्यारे पण आत्मानी साथे कर्मनो बंध थाय छे, तेथी जणाय छे के कर्मोनो बंध करवामां कारण योग–कषायोनुं थवुं अने कर्मोना अबंधमां कारण योग–कषायोनुं न थवुं ज छे. २१८.

शंकाः– जो आम छे तो सम्यक्त्वने देवायुना बंधनुं कारण केम कह्युं छे?

ननु कथमेवं सिद्धयति देवायुःप्रभृतिसत्प्रकृतिबन्धः।
सकलजनसुप्रसिद्धो रत्नत्रयधारिणां मुनिवराणाम्।। २१९।।


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अन्वयार्थः– [ननु] शंका–कोई पुरुष शंका करे छे के [रत्नत्रयधारिणां] रत्नत्रयना धारक [मुनिवराणां] श्रेष्ठ मुनिओने [सकलजनसुप्रसिद्धः] सर्वजनोमां सारी रीते प्रसिद्ध [देवायुः प्रभृतिसत्प्रकृतिबन्धः] देवायु आदि उत्तम प्रकृतिओनो बंध [एवं] पूर्वोक्त प्रकारे [कथम्] केवी रीते [सिद्धयति] सिद्ध थशे?

टीकाः– ‘ननु रत्नत्रयधारिणां मुनिवराणां सकलजनसुप्रसिद्धः देवायुः प्रभृतिसत्प्रकृतिबन्धः एवं कथं सिद्धयति।’ अर्थः–अहीं कोई शंका करे के रत्नत्रयना धारक मुनिओने देवायु वगेरे शुभ प्रकृतिओनो बंध थाय छे एवुं जे शास्त्रोमां कथन छे ते केवी रीते सिद्ध थशे? २१९. तेनो उत्तरः–

रत्नत्रयमिह हेतुर्निर्वाणस्यैव भवति नान्यस्य।
आस्रवति
यत्तु पुण्यं शुभोपयोगोऽयमपराधः।। २२०।।

अन्वयार्थः– [इह] आ लोकमां [रत्नत्रयं] रत्नत्रयरूप धर्म [निर्वाणस्य एव] निर्वाणनुं ज [हेतु] कारण [भवति] थाय छे, [अन्यस्य] अन्य गतिनुं [न] नहीं, [तु] अने [यत्] जे रत्नत्रयमां [पुण्यं आस्रवति] पुण्यनो आस्रव थाय छे, ते [अयम्] [अपराधः] अपराध [शुभोपयोगः] शुभोपयोगनो छे.

टीकाः– ‘इह रत्नत्रयं निर्वाणस्य एव हेतुः भवति अन्यस्य न तु यत् पुण्यं आस्रवति अयं अपराधः शुभोपयोगः।’ अर्थः–आ लोकमां रत्नत्रय मोक्षनुं ज कारण छे, बीजी गतिनुं कारण नथी. वळी रत्नत्रयना सद्भावमां जे शुभ प्रकृतिओनो आस्रव थाय छे ते बधो शुभकषाय अने शुभयोगथी ज थाय छे, अर्थात् ते शुभोपयोगनो ज अपराध छे पण रत्नत्रयनो नथी. भिन्न भिन्न कारणोथी भिन्न भिन्न कार्य थाय छे तोपण व्यवहारथी एकबीजानुं पण कार्य कही देवामां आवे छे. २२०.

एकस्मिन् समवायादत्यन्तविरुद्धकार्ययोरपि हि।
इह दहति घृतमिति यथा व्यवहारस्ताद्रशोऽपि रूढिमितः।।२२१।।

अन्वयार्थः– [हि] निश्चयथी [एकस्मिन्] एक वस्तुमां [अत्यंतविरुद्धकार्ययोः] अत्यंत विरोधी बे कार्योना [अपि] पण [समवायात्] मेळथी [ताद्रशः अपि] तेवो जे [व्यवहारः] व्यवहार [रूढिम्] रूढिने [इतः] प्राप्त छे, [यथा] जेम [इह] आ लोकमां ‘‘[घृतम्] घी [दहति] बाळे छे’’–[इति] ए प्रकारनी कहेवत छे.


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टीकाः– ‘हि एकस्मिन् अत्यंतविरुद्धकार्ययोः अपि समवायात् यथा घृतं दहति इति व्यवहारः अपि ताद्रशः व्यवहारः रूढिं इतः।’ अर्थः–निश्चयथी एक अधिकरणमां परस्पर विरुद्ध बे कार्योनो बंध थवाथी ‘जेम घी बाळे छे’ एवो एकनो बीजामां व्यवहार थई जाय छे, तेवी ज रीते अहीं पण व्यवहार प्रसिद्ध थई गयो छे के सम्यक्त्वथी शुभ प्रकृतिओनो बंध थाय छे.

भावार्थः– जोके घी बाळतुं नथी तोपण अग्निना संबंधथी ज्यारे घी गरम थई जाय छे त्यारे एवुं जाणवामां आवे छे के घी बाळे छे. तेवी ज रीते सम्यक्त्वनुं काम कर्मबंध करवानुं नथी तोपण ज्यारे आत्मामां सम्यक्त्व अने रागभाव बन्ने मळी जाय छे त्यारे एम ज कहेवामां आवे छे के सम्यक्त्वथी कर्मनो बंध थाय छे. तेथी ज लोकमां व्यवहार पण एवो थाय छे के सम्यक्त्वथी शुभकर्मोनो बंध थाय छे, रत्नत्रयथी मोक्षनो लाभ थाय छे. २२१.

सम्यक्त्वबोधचारित्रलक्षणो मोक्षमार्ग इत्येषः।
मुख्योपचाररूपः प्रापयति परं पदं पुरुषम्।। २२२।।

अन्वयार्थः– [इति] आ रीते [एषः] आ पूर्वकथित [मुख्योपचाररूपः] निश्चय अने व्यवहाररूप [सम्यक्त्वबोधचारित्रलक्षणः] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र लक्षणवाळो [मोक्षमार्गः] मोक्षनो मार्ग [पुरुषम्] आत्माने [परं पदं] परमात्मानुं पद [प्रापयति] प्राप्त करावे छे.

टीकाः– ‘सम्यक्त्वबोधचारित्रलक्षणः इतिः एषः मोक्षमार्गः मुख्योपचाररूपः पुरुषं परं पदं प्रापयति।’ अर्थः–सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ए त्रण स्वरूप ज मोक्षमार्ग छे. ए मोक्षमार्ग निश्चय–व्यवहार एम बे प्रकारनो ज आत्माने मोक्ष पहोंचाडे छे.

भावार्थः– निश्चयमोक्षमार्ग साक्षात् मोक्षमार्गनो साधक छे तथा व्यवहारमोक्षमार्ग परंपराए मोक्षमार्गनो साधक छे अर्थात् व्यवहारमोक्षमार्ग निश्चय मोक्षमार्गनुं कारण छे. २२२.

नित्यमपि निरुपलेपः स्वरूपसमवस्थितो निरुपघातः।
गगनमिव परमपुरुषः परमपदे स्फुरति
विशदतमः।। २२३।।


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अन्वयार्थः– [नित्यमपि] हंमेशां [निरुपलेपः] कर्मरूपी रजना लेप रहित [स्वरूपसमवस्थितः] पोताना अनंतदर्शन–ज्ञान स्वरूपमां सारी रीते ठरेलो [निरुपघातः] उपघात रहित अने [विशदतमः] अत्यंत निर्मळ [परमपुरुषः] परमात्मा [गगनम् इव] आकाशनी जेम [परमपदे] लोकशिखरस्थित मोक्षस्थानमां [स्फुरति] प्रकाशमान थाय छे.

टीकाः– ‘नित्यम् अपि निरुपलेपः स्वरूपसमवस्थितः निरुपघातः विशदतमः परमपुरुषः गगनम् इव परमपदे स्फुरति।’ अर्थः–सदाकाळ कर्ममळ रहित, पोताना स्वरूपमां स्थित, कोईना पण घातरहित, अत्यंत निर्मळ एवा जे परमात्मा सिद्ध भगवान छे ते मोक्षमां आकाश समान दैदीप्यमान रहे छे.

भावार्थः– पुरुष नाम जीवनुं छे अने परम पुरुष नाम परमात्मा सिद्ध भगवाननुं छे. जीव तो नर–नारकादि चारे गतिओमां पोताना आयुष्य प्रमाणे थोडा काळ सुधी ज रहे छे अने सिद्धभगवान मोक्षमां सदा अनंतकाळ सुधी रहे छे. संसारी जीव कर्मरूपी मेलथी मलिन छे, सिद्ध भगवान कर्ममळथी रहित छे. संसारी जीव पुण्य–पापरूपी लेपथी लिप्त छे, सिद्ध भगवान आकाश समान निर्लेप छे. संसारी जीव विभाव परिणतिना योगथी सदा देहादिरूपे थई रह्यो छे, सिद्ध भगवान सदा निजस्वरूपमां ज विराजमान रहे छे. संसारना जीव बीजा जीवोनो घात करे छे अने बीजाओ द्वारा हणाय छे पण सिद्ध भगवान कोई जीवने हणता नथी के कोई जीवो वडे हणाता नथी. आवा सिद्ध भगवान अखंड, अविनाशी, निर्मळ, पोताना स्वरूपमां स्थित सदाकाळ मोक्षमां ज बिराजमान रहे छे. २२३.

परमात्मानुं स्वरूप

कृतकृत्यः परमपदे परमात्मा सकलविषयविषयात्मा।
परमानन्दनिमग्नो ज्ञानमयो नन्दति सदैव।। २२४।।

अन्वयार्थः– [कृतकृत्यः] कृतकृत्य [सकलविषयविषयात्मा] समस्त पदार्थो जेमना विषय छे एवा अर्थात् सर्व पदार्थोना ज्ञाता [परमानन्दनिमग्नः] विषयानन्दथी रहित ज्ञानानंदमां अतिशय मग्न [ज्ञानमयः] ज्ञानमय ज्योतिरूप [परमात्मा] मुक्तात्मा [परमपदे] सौथी उपर मोक्षपदमां [सदैव] निरंतर ज [नन्दति] आनंदरूपे स्थित छे.

टीकाः– ‘परमात्मा कृतकृत्यः सकलविषयविषयात्मा (विरतात्मा) वा परमानन्द


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निमग्नः ज्ञानमयः परमपदे सदैव नन्दति।’ अर्थः–सिद्ध भगवानने कांई काम करवानुं बाकी रह्युं नथी, सकल पदार्थोने पोताना ज्ञानमां विषय करनार अथवा सकळ पदार्थोथी विरक्त, परम सुखमां निमग्न अने केवळज्ञानसहित मोक्षमां निरंतर आनंद करे छे.

भावार्थः– संसारना जीवोने अनेक कार्य करवानी अभिलाषा छे तेथी कृतकृत्य नथी, सिद्ध भगवानने कांई काम करवानुं बाकी रह्युं नथी तेथी कृतकृत्य छे. जगतना जीव मोक्षथी विमुख छे अने सिद्ध भगवान मोक्षमां बिराजमान छे. संसारना जीवो विषय विकार सहित छे, सिद्ध भगवान विषय विकार रहित छे. संसारना जीव अनेक शरीरो धारण करीने दुःखी थई रह्या छे, सिद्ध भगवान मन, वचन, कायाथी रहित छे. इत्यादि अनंत गुणो सहित सिद्ध भगवान छे. २२४.

जैन नीति अथवा नय–विवक्षा

एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण।
अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी।। २२५।।

अन्वयार्थः– [मन्थाननेत्रम्] रवई–वलोणाने खेंचनार [गोपी इव] गोवालणनी जेम [जैनी नीतिः] जिनेन्द्रदेवनी स्याद्वादनीति अथवा निश्चय–व्यवहाररूप नीति [वस्तुतत्त्वम्] वस्तुना स्वरूपने [एकेन] एक सम्यग्दर्शनथी [आकर्षन्ती] पोता तरफ खेंचे छे, [इतरेण] बीजाथी अर्थात् सम्यग्ज्ञानथी [श्लथयन्ती] शिथिल करे छे अने [अन्तेन] अन्तिम अर्थात् सम्यक्चारित्रथी सिद्धरूप कार्यने उत्पन्न करवाथी [जयति] सर्वनी उपर वर्ते छे. (अथवा बीजो अन्वयार्थ)

अन्वयार्थः– [मन्थानेत्रम्] रवईने खेंचनार [गोपी इव] गोवालणनी जेम जे [वस्तुतत्त्वम्] वस्तुना स्वरूपनी [एकेन अन्तेन] एक अंतथी अर्थात् द्रव्यार्थिकनयथी [आकर्षन्ती] आकर्षण करे छे–खेंचे छे, अने वळी [इतरेण] बीजा पर्यायार्थिकनयथी [श्लथयन्ती] शिथिल करे छे, ते [जैनीनीतिः] जैनमतनी न्यायपद्धति [जयति] जयवंती छे.

टीकाः– मन्थाननेत्रं गोपी इव जैनी नीतिः वस्तुतत्त्वं एकेन आकर्षन्ती इतरेण श्लथयन्ती अन्तेन जयति। अर्थः–वलोणामां रवई खेंचनार गोवालणनी जेम जिनेन्द्र भगवाननी जे नीति अर्थात् विवक्षा छे ते वस्तुरूपने एक नय–विवक्षाथी खेंचती, बीजी नय– विवक्षाथी ढीली मूकती अंते अर्थात् बन्ने विवक्षाओथी जयवंत रहे.


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भावार्थः– भगवाननी वाणी स्याद्वादरूप अनेकान्तात्मक छे. वस्तुनुं स्वरूप प्रधान तथा गौणनयनी विवक्षाथी करवामां आवे छे. जेम के जीवद्रव्य नित्य पण छे अने अनित्य पण छे. द्रव्यार्थिकनयनी विवक्षाथी नित्य छे अने पर्यायार्थिकनयनी अपेक्षाए अनित्य छे, ए ज नय–विवक्षा छे. २२प.

[नोंधः– आ श्लोकमां एम बताव्युं छे के शास्त्रमां कोई ठेकाणे निश्चयनयनी मुख्यताथी कथन छे अने कोई ठेकाणे व्यवहारनयनी मुख्यताथी कथन छे, पण तेनो अर्थ एम नथी के साचो धर्म कोई वखते व्यवहारनय (अभूतार्थनय)ना आश्रयथी थाय अने कोईवार निश्चयनय (भूतार्थनय)ना आश्रयथी थाय छे; धर्म तो सदाय निश्चयनय अर्थात् भूतार्थनयना विषयना आश्रयथी ज थाय छे. मोक्षमार्गनुं निरूपण बे प्रकारे थाय छे पण मोक्षमार्ग बे नथी. सरागताथी पण मोक्षमार्ग तथा वीतरागताथी पण मोक्षमार्ग–एम परस्पर विरुद्धताथी तथा संशयरूप मोक्षमार्ग नथी.]

ग्रंथ पूर्ण करतां आचार्य महाराज पोतानी लघुता बतावे छेः–

वर्णैः कृतानि चित्रैः पदानि तु पदैः कृतानि वाक्यानि।
वाक्यैः कृतं पवित्रं शास्त्रमिदं
न पुनरस्माभिः।। २२६।।

अन्वयार्थः– [चित्रैः] अनेक प्रकारना [वर्णैः] अक्षरो वडे [कृतानि] रचायेला [पदानि] पद, [पदैः] पदोथी [कृतानि] बनावेला [वाक्यानि] वाकयो छे, [तु] अने [वाक्यैः] ते वाकयोथी [पुनः] पछी [इदं] [पवित्रं] पवित्र–पूज्य [शास्त्रम्] शास्त्र [कृतं] बनाववामां आव्युं छे, [अस्माभिः] अमाराथी [न ‘किमपि कृतम्’] कांई पण करायुं नथी.

टीकाः– चित्रैः वर्णैः पदानि कृतानि तु पदैः वाक्यानि कृतानि वाक्यैः पवित्रं शास्त्रं कृतं पुनः अस्माभिः न। अर्थः–स्वामी अमृतचन्द्र महाराज ग्रन्थ पूर्ण करतां पोतानी लघुता बतावे छे अने कहे छे के आ ग्रंथ में बनाव्यो नथी. तो पछी कोणे बनाव्यो छे?–तो कहे छे के अनेक प्रकारना स्वर, व्यंजन, वर्ण अनादि काळना छे, ते वर्णोथी पद अनादिनां छे, तथा पदोथी वाकय बने छे अने ते वाकयोए आ पवित्र शास्त्र बनाव्युं छे, अमे कांई पण बनाव्युं नथी.


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(दोहा)

अमृतचन्द्र मुनीन्द्रकृत ग्रंथ श्रावकाचार,
अध्यातमरूपी महा आर्या छन्द जु सार;
पुरुषारथकी सिद्धिको जामें परम उपाय,
जाहि सुनत भवभ्रम मिटै आतम तत्त्व लखाय.
भाषा टीका ता उपर कीनी टोडरमल्ल,
मुनिवरकृत बाकी रही ताके मांहि अचल;
ये तो परभवकुं गये जयपुर नगर मंझार,
सब साधर्मी तब कियो मनमें यहै विचार.
ग्रन्थ महा उपदेशमय परम धामको मूल,
टीका पूरण होय तो मिटे जीवकी भूल;
साधर्मिनमें मुख्य हैं रतनचन्द्र दीवान,
पृथ्वीसिंह नरेशको श्रद्धावान सुजान.
तिनके अतिरुचि धर्मसों साधर्मिन सों प्रीति,
देव–शास्त्र–गुरुकी सदा उरमें महा प्रतीत;
आनन्द सुत तिनको सखा नाम जु दौलतराम,
भृत्य भूपको कुल वणिक जाको बसवे धाम.
कुछ इक गुरु परतापसें कीनोंई ग्रन्थ अभ्यास,
लगन लगी जिनधर्मसों जिन दासन को दास;
तासूं रतन दीवानने कही प्रीति धर एह,
करिये टीका पूरणा उर धर धर्म सनेह.
तब टीका पूरण करी भाषारूप निधान,
कुशल होय चहुं संघको लहे जीव निज ज्ञान;
सुखी होय राजा प्रजा होय धर्मकी वृद्धि,
मिटें दोष दुःख जगतके पावें भविजन सिद्धि.
अठारहसैं ऊपरे संवत सत्ताईस,
मास मार्गशिर ऋतु शिशिर सुदि दोयज
रजनीश.


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पुरुषार्थसिद्धि–उपायना श्लोकोनी वर्णानुक्रमणिका

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अक्रमकथनेन यतः
१९–२३ आत्मा प्रभावनीयो
३०–३३
अतिचाराः सम्यक्त्वे
१८१–१४० आत्मां वा पक्कां वा
६८–६३
अतिसंक्षेपाद् द्विविधः
११५–९१ आमास्वपि पक्कास्वपि
६७–६३
अत्यन्तनिशतिधारं
५९–५९ आहारो हि सचित्तः
१९३–१४७
अथ निश्चित्तसचित्तौ
११७–९२
अनवेक्षिताप्रमार्जित
१९२–१४७ इति यः परिमितिभोगैः
१६६–१२५
अध्रुवमशरणमेकत्व
२०५–१५९ इति यो व्रतरक्षार्थं
१८०–१४०
अनवरतमहिंसायां
२९–३५ इति यः षोडशयामान्
१५७–११८
अनुसरतां पदमेतत्
१६–२१ इतिरत्नत्रयमेतत्
२०९–१६७
अबुधस्य बोधनार्थं
६–९ इति नियमितदिग्भागे
१३८–१०६
अप्रादुर्भावः खलु
४४–४८ इति विरतो बहुदेशात्
१४०–१०७
अभिमानभयजुगुप्सा
६४–६२ इति विविधभङ्गगहने
५८–५८
अमृतत्वहेतुभूतं
७८–६९ इत्थमशेषितहिंसः
१६०–१२०
अरतिकरं भीतिकरं
९८–८१ इत्यत्र त्रितयात्मनि
१३५–१०४
अर्कालोकेन विना
१३३–१०३ इत्येतानतिचारापरानपि
१९६–१५०
अर्था नाम य एते प्राणा
१०३–८४ इदमावश्यकषट्कं
२०१–१५५
अवबुध्य हिंस्यहिंसक
६०–५९ इत्याश्रितसम्यक्त्वैः
३१–३७
अनशनमवमौदर्यं
१९८–१५१ इयमेकैव समर्था
१७५–१३३
अवितीर्णस्य ग्रहणं
१०२–८३ इह जन्मनि विभवादीन्य
२४–३१
अविधायापि हि हिंसा
५१–५४
अविरुद्धा अपि भोगा
१६४–१२४ उक्तेन ततो विधिना
१५६–११७
अष्टावनिष्टदुस्तर
७४–६७ उपलब्धिसुगतिसाधन
८७–७५
असदपि हि वस्तुरूपं
९३–७८ उभयपरिग्रहवर्जन
११८–९२
असमग्रं भावयतो
२११–१६९
असमर्था ये कर्तुं
१०६–८६ ऊर्ध्वमधस्तात्तिर्यग्
१८८–१४५
असिधेनुहुताशन
१४४–१०९
अस्ति पुरुषश्चिदात्मा
९–१३ एकमपि प्रजिघांसुर्निहन्त्य
१६२–१२१
एकस्मिन समवायाद
२२१–१७७
आत्मपरिणामहिंसन
४२–४७ एकस्य सैव तीव्रं
५३–५५


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एकस्याल्पा हिंसा
५२–५५ जीवकृतं परिणामं
१२–१७
एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती
२२५–१८० जीवाजीवादीनां
२२–२६
एकः करोति हिंसा
५५–५७ जीवितमरणाशंसे
१६५–१४९
एवं न विशेषः स्यादुन्दु
१२०–९४
एवमतिव्याप्तिः स्यात्
११४–९० तज्जयति परं ज्योतिः
१–२
एवमयं कर्मकृतैभावै
१४–१९ तत्त्वार्थाश्रद्धाने निर्युक्तं
१२४–९६
एवं विधमपरमपि ज्ञात्वा
१४७–१११ तत्रादौ सम्यक्त्वं
२१–२५
एवं सम्यग्दर्शनबोध
२०–२५ तत्रापि च परिमाणं
१३९–१०६
ऐहिकफलानपेक्षा
१६९–१२७ दर्शनमात्मविनिश्चिति
२१६–१७४
द्वाविंशतिरप्येतै
२०८–१६३
कर्त्तव्योऽध्यवसायः
३५–४१ द्रष्टापरं पुरस्तादशनाय
८९–७६
कन्दर्पः कौत्कृच्यं
१९०–१४६
कस्यापि दिशति हिंसा
५६–५७
कामक्रोधमदादिषु
२८–३४ धनलवपिपासितानां
८८–७६
कारणकार्यविधानं
३४–४० धर्मध्यानासक्तो वासर
१५४–११६
किंवा बहुप्रलपितैरिति
१३४–१०३ धर्ममहिसारूपं
७६–६८
को नाम विशति मोहं
९०–७७ धर्मः सेव्यः क्षान्ति
२०४–१५८
कृछेण सुखावाप्तिर्भवन्ति
८६–७४ धर्मोऽभिवधर्मनीयः
२७–३३
कृतकारितानुमननै
७५–६७ धर्मो हि देवताभ्यः
८०–७१
कृतकृत्यःपरमपदे
२२४–१७९
कृत्मात्मार्थं मुनये
१७४–१३२ नवनीतं च त्याज्यं
१६३–१२३
ननु कथमेवं सिद्धयति
२१९–१७६
गर्हितमवद्यसंयुत
९५–८० न विना प्राणविघातान्
६५–६२
गृहमागताय गुणिने
१७३–१३१ न हि सम्यग्व्यपदेशं
३८–४४
ग्रन्थार्थोभयपूर्णं
३६–४२ नातिव्याप्तिश्च तयोः
१०५–८५
निजशक्त्या शेषाणां
१२६–९८
चारित्रान्तर्भावात् तपोपि
१९७–१५१ नित्यमपि निरुपलेपः
२२३–१७८
चारित्रं भवति यतः
३९–४५ निरतः कार्त्स्न्यनिवृत्तौ
४१–४६
निर्बाध संसिध्येत्
१२२–९५
छेदनताडन बन्धा
१८३–१४१ निश्चयमबुध्यमानो
५०–५३
छेदनभेदमारणकर्षण
९७–८१ निश्चयमिह भूतार्थं
५–७
नीयन्तेऽत्र कषाया
१७९–१३९
जिनपुङ्गवप्रवचने
२००–१५४ नैवं वासरभुक्तेर्भवति
१३२–१०२


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मरणान्तेऽवश्यमहं
१७६–१३३
परदातृव्यपदेशः
१९४–१४८ मरणेऽवश्यं भाविनि
१७७–१३४
परमागमस्य जीवं
२–४ माणवक एव सिंहो
७–१०
परिणममानस्य चित
१३–१८ माधुर्यप्रीतिः किल दुग्धे
१२३–९६
परिणममानो नित्यं
१०–१५ मिथ्यात्ववेदरागात्
११६–९१
परिधय इव नगराणि
१३६–१०५ मिथ्योपदेशदानं
१८४–१४२
पात्रं त्रिभेदयुक्तं संयोगो
१७१–१२९ मुख्योपचारविवरण
४–६
पापर्द्धिजयपराजय
१४१–१०८ मुक्तसमस्तारम्भः
१५२–१५४
पुनरपि पूर्वकृतायां
१६५–१२५ मूर्छालक्षणकरणात्
११२–८९
पूज्यनिमित्तं घाते
८१–७२
पैशून्यहासगर्भं
९६–८० यत्खलुकषाययोगात्
३३–४८
पृथगाराधनमिष्टं
३२–३७ यदपि किल भवति मांसं
६६–६३
प्रविधाय सुप्रसिद्धै
१३७–१०५ यदपि क्रियते किञ्चिन्
१०९–८८
प्रतिरूपव्यवहार
१८५–१४३ यदिदं प्रमादयोगाद
९१–७७
प्रविहाय च द्वितीयान्
१२५–९७ यद्वेदरागयोगान
१०७–८६
प्रागेव फलति हिंसा
५४–५६ यद्येवं तर्हि दिवा
१३१–१०१
प्रातः प्रोत्थाय ततः कृत्वा
१५५–११६ यद्येवं भवति तदा
११३–९०
प्रेष्यस्य संप्रयोजन
१८९–१४५ यस्मात्सकषायः सन्
४७–५१
यानि तु पुनर्भवेयुः
७३–६६
बद्धोद्यमेन नित्यं
२१०–१६८ या मूर्च्छा नामेयं
१११–८९
बीहरङ्गादपि सङ्गात्
१२७–९९ युक्ताचरणस्य सतो
४५–५०
बहुशः समस्तविरतिं
१७–२२ येनांशेन चरित्रं
२१४–१७०
बहुसत्त्वघातजनिता
८२–७२ येनांशेन सुद्रष्टिम्
२१२–१७०
बहुसत्त्वघातिनोऽमी
८४–७३ येनांशेन ज्ञानं
२१३–१७०
बहुदुःखासंज्ञपिताः
८५–७४ ये निजकलत्रमात्रं
११०–८८
योगात्प्रदेशबन्ध
२१५–१७२
भूखननवृक्षमोट्टन
१४३–१०९ योनिरुदुम्बरयुग्मं
७२–६५
भोगोपभोगमूला
१६१–१२० योऽपि न शक्यस्त्यक्तुं
१२८–९९
भोगोपभोगसाधनमात्रं
१०१–८३ यो यतिधर्ममकथयन्नु
१८–२३
भोगोपभोगहेतोः
१५८–११८ यो हि कषायाविष्टः
१७८–१३५
मधु मद्यं नवनीतं
७१–६५ रत्नत्रयमिह हेतुर्निर्वाण
२२०–१७७
मधुशकलमपि प्रायो
६९–६४ रजनीदिनयोरन्ते
१४९–११२
मद्यं मासं क्षौद्रं
६१–६० रसजानां च बहूनां
६३–६१
मद्यं मोहयति मानो
६२–६१ रक्षा भवति बहूनामेक
८६–७३


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रागद्वेषत्यागन्निखिल
१४८–११२ सम्यक्त्वबोधचारित्र
२२२–१७८
रागद्वेषासंयममद
१७०–१२८ सम्यग्गमनागमनं
२०३–१५७
रागादिवर्द्धनानां
१४५–११० सम्यग्दण्डो वपुषः
२०२–१५६
रागाद्युदयपरत्वाद्
१३०–१०१ सम्यग्ज्ञानं कार्यं
३३–३९
रात्रौ भुञ्जानानां
१२९–१०० सर्वस्मिन्नप्यस्मिन्
९९–८१
सर्वानर्थप्रथमं मथनं
१४६–११०
लोकत्रयैकनेत्रं निरूप्य
३–५ सामायिकश्रितानां
१५०–११३
लोके शास्त्राभासे
२६–३२ सामायिकसंस्कारं
१५१–११४
सूक्ष्मापि न खलु हिंसा
४९–५२
वचनमनःकायानां
१९१–१४६ सूक्ष्मो भगवद्धर्मो
७९–७०
वर्णैः कृतानि चित्रैः
२२६–१८१ संग्रहमुच्चस्थानं पादोदक
१६८–१२७
वस्तु सदीप स्वरूपात्
९४–७९ स्तोकैकेन्द्रियघाताद्
७७–६९
वाग्गुप्तेनस्त्यिनृतं न
१५९–११९ स्पर्शश्च तृणादीनाम
२०७–१६२
वास्तुक्षेत्राष्टापदहिरण्य
१८७–१४४ स्मरतीव्राभिनिवेशो
१८६–१४३
विगलितदर्शनमोहैः
३७–४४ स्वक्षेत्रकालभावैः सदपि
९२–७८
विदावाणिज्यमषीकृषि
१४२–१०८ स्वयमेव विगलितं यो
७०–६४
विधिना दातृगुणवता
१६७–१२६
विनयो वैयावृत्यं
१९९–१५२ हरिततृणांकुरचारिणि
१२१–९४
विपरीताभिनिवेशं
१५–२१ हिंसातोऽनृतवचनात्
४०–४६
व्यवहारनिश्चयौ यः
८–११ हिंसापर्यायत्वात्
११९–९३
व्युत्थानावस्थायां
४६–५० हिंसाफलमपरस्य तु
५७–५७
हिंसायाअविरमणं
४८–५१
शङ्का तथैव कांक्षा
१८२–१४१ हिंसायाः पर्यायो
१७२–१३१
श्रित्वा विविक्तवसतिं
१५३–११५ हिंसायाः स्तेयस्य च
१०४–८४
हिंस्यन्ते तिलनाल्यां
१०८–८७
सकलमनेकान्तात्मक
२३–३० हेतौ प्रमत्तयोगे
१००–८२
सर्वविवत्तौत्तीर्णं यदा
११–१६
क्ष
सति सम्यक्त्वचरित्रे
२१८–१७६ क्षुतृष्णाशीतोष्ण
२५–३२
सम्यक्त्वचारित्राभ्यां
२१७–१७५ क्षुतृष्णा हिममुष्णं
२०६–१६२