Purusharth Siddhi Upay-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 195-210 ; Sakal Charitra vyakhyan.

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राखवी, ३–आहारनी वस्तुओ लीला पांदडाथी ढांकवी, ४–मुनि महाराजने आववानो समय होय त्यारे घरे न मळवुं अने प–पोताने घेर मुनि महाराजने माटे आहारनी विधि न मळी शकवाने कारणे अथवा पोताना घरे न आववाने कारणे जो बीजा श्रावकने घरे मुनिने आहारदान थाय तो ते श्रावकप्रत्ये द्वेष राखवो–आ पांच अतिचार अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रतना छे. १९४.

सल्लेखनाना पांच अतिचार

जीवितमरणाशंसे सुहृदनुरागः सुखानुबन्धश्च।
सनिदानः पञ्चैते भवन्ति
सल्लेखनाकाले।। १९५।।

अन्वयार्थः– [जीवितमरणाशंसे] जीवननी आशंसा, मरणनी आशंसा, [सुहृदनुरागः] सुहृद अर्थात् मित्र प्रति अनुराग, [सुखानुबन्धः] सुखनो अनुबन्ध [च] अने [सनिदानः] निदान सहित–[एते] [पंच] पांच अतिचार [सल्लेखनाकाले] समाधिमरणना समये [भवन्ति] होय छे.

टीकाः– ‘जीविताशंसा मरणाशंसा सुहृदनुरागः सुखानुबन्धः च सनिदानः इति एते पंच सल्लेखनाकाले अतीचाराः सन्ति।’ अर्थः–१. सल्लेखना धारण कर्या पछी जीववानी इच्छा करवी, २. सल्लेखना धारण कर्या पछी जो कांई वेदना थती होय तो एवी इच्छा करवी के हुं जलदी मरण पामुं, ३. पूर्वना मित्रोनुं स्मरण करवुं के ते सारो मित्र हतो, हुं तेनी साथे रमतो हतो वगेरे, ४. पूर्वे जे शातानी सामग्री भोगवी हती तेने याद करवी, ते भोग हवे कयारे मळशे एवुं स्मरण करवुं, प. आगामी काळमां सारा सारा भोगोनी प्राप्तिनी इच्छा करवी. – आ पांच सल्लेखनाना अतिचार छे.

भावार्थः– आ रीते १ सम्यग्दर्शन, प अणुव्रत, ३ गुणव्रत, ४ शिक्षाव्रत, अने १ सल्लेखना–ए चौदना सित्तेर अतिचारोनुं वर्णन करी चूकया. तेथी नैष्ठिक श्रावके आ बधानुं ज्यांसुधी बनी शके त्यांसुधी यथाशक्ति अतिचाररहित पालन करवुं, तो ज मनुष्यभव मळवो सार्थक छे.

आ उपर बतावेला चौद व्रत त्रणे प्रकारना श्रावक पाळे छे. १. पाक्षिक _________________________________________________________________ १. निश्चयसम्यग्दर्शन–ज्ञानपूर्वक प्रथमना बे कषायनी चोकडीना अभावरूप शुद्धभावरूप (अंशे

वीतरागी स्वाश्रयरूप) निश्चयव्रतनुं पालन करे छे ते जीवने साचां अणुव्रत होय छे;
निश्चयसम्यग्दर्शन न होय तो तेनां व्रत–तपने सर्वज्ञदेवे बाळव्रत (–अज्ञानव्रत) अने अज्ञानतप
कह्यां छे. एम सर्वत्र समजवुं.


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श्रावक सम्यग्दर्शननो धारक होय छे, ते सात व्यसनोनो त्यागी अने आठ मूळगुणोनो पाळनार छे. २. नैष्ठिक श्रावक उपरनी वातो सहित बार व्रतोनुं पालन करे छे. ए नैष्ठिक अवस्था जीवनपर्यंत रहे छे. ३. साधक–श्रावक ज्यारे मरणनो समय निकट आवी जाय छे त्यारे ते नैष्ठिक श्रावक साधक अवस्थाने प्राप्त थई शके छे. –आ रीते जे मनुष्य आ त्रणे अवस्थाओने प्राप्त करे छे ते अवश्य स्वर्गने पामी शके छे अने परंपराए मोक्ष प्राप्त करी ले छे. ए ज मोक्षप्राप्तिनो क्रम छे. १९प.

अतिचारनो त्याग करवानुं फळ

इत्येतानतिचारानपरानपि संप्रतर्क्य परिवर्ज्य।
सम्यक्त्वव्रतशीलैरमलैः पुरुषार्थसिद्धिमेत्यचिरात्।। १९६।।

अन्वयार्थः– [इति] ए प्रकारे गृहस्थ [एतान्] आ पूर्वे कहेला [अतिचारान्] अतिचार अने [अपरान्] बीजा दोष उत्पन्न करनार अतिक्रम, व्यतिक्रम आदिनो [अपि] पण [संप्रतर्क्य] विचार करीने [परिवर्ज्य] छोडीने [अमलैः] निर्मळ [सम्यक्त्वव्रतशीलैः] सम्यकत्व, व्रत अने शील द्वारा [अचिरात्] थोडा ज काळमां [पुरुषार्थसिद्धिम्] पुरुषना प्रयोजननी सिद्धि [एति] पामे छे.

टीकाः– ‘इति एतान् अतिचारान् अपि अपरान् सम्प्रतर्क्य च परिवर्ज्य अमलैः सम्यक्त्वव्रतशीलैः अचिरात् पुरुषार्थसिद्धिम् एति।’ अर्थः–आ रीते आ अतिचार अने बीजा पण जे दोष छे तेने सारी रीते विचारीने छोडे छे अने निर्दोष सम्यग्दर्शन, प अणुव्रत, ४ शिक्षाव्रत, ३ गुणव्रत–ए बधा व्रतोना पालन द्वारा जीव शीघ्र ज मोक्षने प्राप्त करी शके छे.

भावार्थः– पुरुष नाम आत्मानुं छे अने अर्थ नाम मोक्षनुं छे. आ रीते (स्वाश्रित निश्चयशुद्धि सहित) व्रतोना पालनथी सम्यक्चारित्रनी प्राप्ति थाय छे अने सम्यक्चारित्रनी प्राप्ति थवाथी शीघ्र ज मोक्ष प्राप्त थई जाय छे. तप विना सम्यक्चारित्रनी प्राप्ति थती नथी.१९६. _________________________________________________________________ १. सम्यक्तपनो अर्थ शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अथवा निजपरमात्माना आश्रये निश्चयसम्यग्दर्शन–

ज्ञान–चारित्ररूप शुद्धिवडे शुभाशुभ इच्छाओना निरोधपूर्वक आत्मामां निर्मळ–निराकुळ ज्ञान–
आनंदना अनुभवथी अखंडित प्रतापवंत रहेवुं; निस्तरंग चैतन्यरूपे शोभित थवुं ते तप छे. आवुं
निश्चयतप भूमिकानुसार साधकने होय छे. त्यां बाह्यमां १२ प्रकारना तपमांथी यथायोग्य निमित्त
होय छे, तेनुं ज्ञान कराववा माटे तेने व्यवहारतप कहेवाय छे. (विशेषपणे समजवा माटे जुओ
मोक्षमार्ग प्रकाशक अ
७, निर्जरातत्त्वनी श्रद्धानी अयथार्थता).


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चारित्रान्तर्भावात् तपोपि मोक्षाङ्गमागमे गदितम्।
अनिगूहितनिजवीर्यैस्तदपि निषेव्यं समाहितस्वान्तैः।।१९७।।

अन्वयार्थः– [आगमे] जैन आगममां [चारित्रान्तर्भावात्] चारित्रनुं अन्तर्वर्ती होवाथी [तपः] तपने [अपि] पण [मोक्षाङ्गम्] मोक्षनुं अंग [गदितम्] कहेवामां आव्युं छे, तेथी [अनिगूहितनिजवीर्यैः] पोतानुं पराक्रम न छुपावनार तथा [समाहितस्वान्तैः] सावधान चित्तवाळा पुरुषोए [तदपि] ते तपनुं पण [निषेव्यम्] सेवन करवा योग्य छे.

टीकाः– ‘चारित्रान्तर्भावात् तपः अपि आगमे मोक्षाङ्गम् गदितम् अतः एव अनिगूहितनिजवीर्यैः समाहितस्वान्तैः तदपि निषेव्यम्।’ अर्थः–सम्यक्चारित्रमां समावेश पामतुं होवाथी तपने पण शास्त्रोमां मोक्षनुं कारण कह्युं छे, तेथी पोतानी शक्ति छुपाव्या विना पोतानुं मन वश राखी ते तपनुं पण आचरण करवुं जोईए.

भावार्थः– तप एक प्रकारे व्यवहारचारित्र छे. (भूतार्थनो आश्रय करनारने) व्यवहारचारित्रथी निश्चयचारित्र के जे सम्यक्चारित्र छे तेनी प्राप्ति थाय छे अर्थात् ए नियम छे के तपश्चरण विना निश्चय सम्यक्चारित्रनी प्राप्ति थती ज नथी तेथी मोक्ष इच्छनार पुरुषोए अवश्य तप धारण करवुं जोईए. १९७.

[नोंधः– चारित्र तो वीतरागता छे अने ते निज शुद्धात्माना आश्रये ज प्रगटे छे. पण त्यां ते काळे व्यवहारचरण केवुं होय ते बताववा तेने व्यवहारनयथी कारण कह्युं छे. राग छे ते बाधक ज छे पण ते ते भूमिकाने योग्य राग ते गुणस्थाननो नाशक नथी एटलो मेळ बताववा माटे उपचार–व्यवहार निरूपणनी ए रीत छे. राग करतां करतां निश्चयचारित्र थाय नहि एम प्रथमथी ज निःसंदेहपणे प्रतीति करवी जोईए.]

बाह्य अने अंतरंग एवा भेदथी तप बे प्रकारनुं छे. पहेलां बाह्य तपना भेद बतावे छेः–

अनशनमवमौदर्यं विविक्तशय्यासनं रसत्यागः।
कायक्लेशो वृत्तेः सङ्खया च निषेव्यमिति तपो बाह्यम्।। १९८।।


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अन्वयार्थः– [अनशनम्] अनशन, [अवमौदर्यं] ऊणोदर, [विविक्त शय्यासनं] विविक्त शय्यासन, [रसत्यागः] रस परित्याग, [कायक्लेशः] कायक्लेश [च] अने [वृत्तेः संख्या] वृत्तिनी संख्या–[इति] ए रीते [बाह्यं तपः] बाह्यतपनुं [निषेव्यम्] सेवन करवा योग्य छे.

टीकाः– ‘अनशनं अवमौदर्यं विविक्तशय्यासनं रसत्यागः कायक्लेशः च वृत्तेः संख्याः बाह्यं तपः इति निषेव्यम्।’ अर्थः–१–अनशन तप–अर्थात् उपवास द्वारा चारे प्रकारना आहारनो त्याग करवो. खाद्य, स्वाद्य, लेह्य अने पेय ए–रीते आहार चार प्रकारनो छे. २– अवमौद्रर्य तप–एटले एकाशन करवुं, भूखथी ओछुं खावुं, ए बेउ प्रकारना तप द्वारा कर्मोनी निर्जरा थाय छे अने ध्याननी प्राप्ति थाय छे. निद्रा मटे छे, दोष घटे छे, संतोष थाय छे, स्वाध्याय करवामां मन लागे छे. ३–विविक्त शय्यासन–ज्यां मनुष्योनुं आवागमन न होय एवा एकांत स्थानमां वास करवो. ४–रसत्याग–दूध, दहीं, घी, साकर अने तेल–आ पांच रसनो त्याग अने मीठानो तेम ज लीलोतरीनो पण त्याग करवो तेने रसत्याग कहे छे. जोके रस तो पांच ज छे तोपण इन्द्रियसंयमनी अपेक्षाए सातेनो त्याग करवो जोईए. एना त्यागनो क्रम मीठुं, लीलोतरी, साकर, घी, दूध, दहीं अने तेल ए प्रमाणे छे. अने ते रविवारना दिवसथी शरू करवुं जोईए. प–कायक्लेश–शरीरने परिषह उपजावीने पीडा सहन करवी तेनुं नाम कायक्लेश छे आ कायक्लेशनो अभ्यास करवाथी अनेक कठोर उपसर्ग सहन करवानी शक्ति उत्पन्न थाय छे, शरीर साथेनो ममत्वभाव घटे छे अने रागनो अभाव थाय छे. ६– वृत्तिसंख्या–वृत्तिनी मर्यादा करी लेवी. जेम के आजे मने आवुं भोजन मळे तो हुं आहार करीश अथवा आटलां घरे भोजन माटे जईश वगेरे प्रकारथी नियम करी लेवो. आ रीते छ प्रकारनां बाह्यतपनुं निरूपण कर्युं. १९८.

हवे अंतरंग तपोनुं निरूपण करे छेः–

अंतरंग तपना छ भेद

विनयो वैयावृत्त्यं प्रायश्चित्तं तथैव चोत्सर्गः।
स्वाध्यायोऽथ ध्यानं भवति निषेव्यं तपोऽन्तरङ्गमिति।।१९९।।

अन्वयार्थः– [विनयः] विनय, [वैयावृत्त्यं] वैयावृत्य, [प्रायश्चितं] प्रायश्चित्त [तथैव च] अने एवी ज रीते [उत्सर्गः] उत्सर्ग, [स्वाध्यायः] स्वाध्याय [अथ]


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अने [ध्यानं] ध्यान–[इति] ए रीते [अन्तरङ्गम्] अंतरंग [तपः] तप [निषेव्यं] सेवन करवा योग्य [भवति] छे.

टीकाः– ‘विनयः वैयावृत्त्यं प्रायश्चित्तं च उत्सर्गः तथैव स्वाध्यायः ध्यानं इति अन्तरंगतपः निषेव्यम्।’ अर्थः–१–विनय–विनय अंतरंगतप चार प्रकारनुं छे. १. दर्शन विनय, २. ज्ञान विनय, ३. चारित्र विनय अने ४. उपचार विनय.

१. सम्यगदर्शननी प्राप्तिनो उपाय करवो, सम्यग्दर्शनना महात्म्यनो प्रचार करवो, सम्यग्द्रष्टि जीवोनी वृद्धि थाय तेवा प्रयत्नो करवा तथा पोतानुं सम्यग्दर्शन सदा निर्दोष राखवुं– ए दर्शनविनय छे. २. ज्ञाननी प्राप्ति करवी, ज्ञाननो प्रचार करवो, स्वाध्यायशाळा, विद्यालय खोलाववां, शास्त्रो वहेंचवा–ए बधो ज्ञानविनय छे. ३. चारित्र प्राप्त करवुं, चारित्रनो उपदेश देवो वगेरे चारित्रविनय छे. ४. रत्नत्रयधारकोनो अने बीजा धर्मात्मा भाईओनो शारीरिक विनय करवो, ते आवे त्यारे ऊभा थवुं, नमस्कार करवा, हाथ जोडवा, पगे पडवुं वगेरे–ए बधो उपचारविनय छे. तीर्थक्षेत्रनी वंदना करवी ए पण उपचारविनय छे, पूजा–भक्ति करवी ए पण उपचारविनय छे. रत्नत्रयनी प्राप्ति करवी ए ज साचो विनय छे. आ रीते विनयतपनुं वर्णन पूर्ण कर्युं.

२–वैयावृत्त्यपोताना गुरु वगेरे आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधु, अर्जिका, श्रावक, श्राविका, त्यागी इत्यादि धर्मात्मा सज्ज्नोनी सेवा–सुश्रूषा करवी एने वैयावृत्त्य कहे छे. कोई वार कोई व्रतधारीने रोग थई जतां शुद्ध प्रासुक औषधथी तेमनो रोग दूर करवो, जंगलोमां वसतिका, कुटी वगेरे बनाववां, ए बधुं वैयावृत्त्य ज छे.

३–प्रायश्चित्त–प्रमादथी जे कांई दोष थई गयो होय तेने पोताना गुरु सामे प्रगट करवो, तेमना कहेवा प्रमाणे ते दोषने दोष मानीने तथा आगामी काळमां ते प्रमाणे न करवानी प्रतिज्ञा करीने जे कांई दंड दे ते दंडनो स्वीकार करवो तेने प्रायश्चित्त अंतरंगतप कहे छे. एनाथी व्रत–चारित्रनी शुद्धि थाय छे. १. आलोचन, २. प्रतिक्रमण, ३. आलोचन प्रतिक्रमण, ४. विवेक, प. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. परिहार अने ९. उपस्थापना–ए रीते प्रायश्चित्तना नव भेद छे.

४–उत्सर्ग–शरीरमां ममत्वनो त्याग करवो तथा क्रोधादि कषायोनो त्याग करवो अने संसारनी वस्तुओने पोतानी न मानवी इत्यादि ममत्व–अहंकारबुद्धिनो त्याग करवो तेने ज उत्सर्ग नामनुं अंतरंगतप कहे छे.


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प. स्वाध्याय–प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग अने द्रव्यानुयोग, ए चारे प्रकारना शास्त्रोनु स्वाध्याय करवुं, शीखवुं, शीखववुं, विचारवुं, मनन करवुं. ए स्वाध्याय करवाथी सम्यग्ज्ञाननी प्राप्ति थाय छे. अन्य जीवोने सम्यग्ज्ञाननो बोध थाय छे, परिणाम स्थिर रहे छे, संसारथी वैराग्य थाय छे, धर्मनी वृद्धि थाय छे वगेरे अनेक गुण प्रगट थाय छे, तेथी स्वाध्याय करवी जोईए.

६. ध्यान–एकाग्रचित्त थईने समस्त आरंभ–परिग्रहथी मुक्त थई पंचपरमेष्ठी अने आत्मानुं ध्यान करवुं तेने ज ध्यान कहे छे. ते आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान अने शुकलध्यान–ए रीते चार प्रकारनुं छे. तेमां आर्तध्यान अने रौद्रध्यान संसारनां कारण छे तथा धर्मध्यान अने शुकलध्यान मोक्षनां कारण छे.

ध्यानना सामान्य रीते त्रण भेद थई शके छे–अशुभध्यान, शुभध्यान अने शुद्धध्यान. तेथी आर्तध्यान अने रौद्रध्यान ए बे अशुभध्यान छे, धर्मध्यान शुभध्यान छे अने शुकलध्यान शुद्धध्यान छे. माटे मोक्षार्थी जीवोए धर्मध्यान अने शुकलध्यान अवश्य अपनाववुं जोईए. ध्यानना अवलंबनरूपे पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ अने रूपातीत–ए चार भेद छे. एनुं विशेष वर्णन पण ज्ञानार्णव ग्रन्थमांथी जाणी लेवुं. अहीं लखवाथी घणो विस्तार थई जशे.

भावार्थः– अहीं ए वात जाणी लेवी बहु जरूरी छे के बाह्यतप अने अंतरंग तपमां शुं तफावत छे. बाह्यतपमां केवळ बाह्यपदार्थ तथा शरीरनी क्रिया ज प्रधान कारण होय छे अने अंतरंग तपमां आत्मीय भाव तथा मननुं अवलंबन ज प्रधान कारण पडे छे. जेम अग्नि सोनाने शुद्ध बनावे छे तेम आ बन्ने प्रकारना तप आत्माने शुद्ध बनावे छे. कारण के तप विना चारित्र होतुं नथी अने चारित्र विना कर्मोनी निर्जरा थती नथी, माटे आ बन्ने प्रकारना तपनुं आचरण अवश्य करवुं जोईए. अहीं सुधी गृहस्थना व्रतोनुं वर्णन कर्युं. हवे त्यारपछी श्री अमृतचन्द्रस्वामी मुनिओना चारित्रनुं वर्णन करे छे. मुनिपद धारण कर्या विना मोक्षनी प्राप्ति कदी थती नथी माटे मोक्षार्थी भव्यात्माओए ज्यांसुधी बनी शके त्यांसुधी समस्त आरंभ–परिग्रहनो त्याग करीने मुनिपद धारण करी, आठ कर्मोनो क्षय करी मोक्षनी प्राप्ति करवी जोईए. १९९.

मुनिव्रत धारण करवानो उपदेश

जिनपुङ्गवप्रवचने मुनीश्वराणां यदुक्तमाचरणम्।
सुनिरूप्य निजां पदवीं शक्तिं च निषेव्यमेतदपि।। २००।।


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अन्वयार्थः– [जिनपुङ्गवप्रवचने] जिनेश्वरना सिद्धान्तमां [मुनीश्वराणां] मुनीश्वर अर्थात् सकलव्रतधारीओनुं [यत्] जे [आचरणम्] आचरण [उक्तम्] कह्युं छे, [एतत्] [अपि] पण गृहस्थोए [निजां] पोतानां [पदवीं] पद [च] अने [शक्ति] शक्तिनो [सुनिरूप्य] सारी रीते विचार करीने [निषेव्यम्] सेवन करवा योग्य छे.

टीकाः– ‘जिनपुङ्गवप्रवचने मुनीश्वराणां यत् आचरणं उक्तम् एतत् अपि निजां पदवीं सुनिरूप्य शक्तिं च सुनिरूप्य निषेव्यम्।’ अर्थः–अर्हंत भगवान तथा गणधरादिए कहेलां जिनशास्त्रोमां जे मुनि–महात्माओनुं सर्वदेश त्यागरूप आचरण कह्युं छे ते आचरण पोताना पदनी योग्यता अने पोतानी शक्ति जोईने अवश्य आचरवुं जोईए.

भावार्थः– ज्यांसुधी बनी शके त्यांसुधी प्रत्येक आत्मकल्याणार्थीए मुनिपदनो स्वीकार करीने पोताना आत्मानुं कल्याण करवुं जोईए. जो ते कोई पण रीते सर्वदेशव्रतनुं पूर्णपणे पालन न करी शके तो पहेलां अणुव्रत पाळवां जोईए अने पछी महाव्रत धारण करवां जोईए. २००.

छ आवश्यकनुं वर्णन

इदमावश्यकषट्कं समतास्तववन्दनाप्रतिक्रमणम्।
प्रत्याख्यानं वपुषो व्युत्सर्गश्चेति कर्त्तव्यम्।। २०१।।

अन्वयार्थः– [समतास्तववन्दनाप्रतिक्रमणम्] समता, स्तवन, वंदना, प्रतिक्रमण, [प्रत्याख्यानं] प्रत्याख्यान [च] अने [वपुषो व्युत्सर्गः] कायोत्सर्ग–[इति] ए रीते [इदम्] [आवश्यकषट्कं] छ आवश्यक [कर्त्तव्यम्] करवां जोईए.

टीकाः– ‘समता स्तव वन्दना प्रतिक्रमणं प्रत्याख्यानं वपुषो व्युत्सर्गः इति इदं आवश्यक षट्कम्।’

१. समता–समस्त जीवो पर समताभाव राखवो अथवा सामायिक करवी.

२. स्तव–श्री भगवान अर्हंतदेव–तीर्थंकर भगवानना गुणोनुं कीर्तन करवुं अर्थात् स्तुति करवी. ए स्तव व्यवहारस्तव अने निश्चयस्तव–एम बे प्रकारे छे.

३. वंदना–पांच परमेष्ठीने प्रत्यक्ष अथवा परोक्षरूपे साष्टांग नमस्कार करवा.


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४. प्रतिक्रमण–पोते करेला दोषोनो पश्चात्ताप करवो. अर्थात् ज्यारे पोतानाथी कोई दोष के भूल थई जाय त्यारे ते पोताना गुरु समक्ष प्रगट करी ते भूल मानी लेवी ए ज प्रतिक्रमण छे.

प. प्रत्याख्यान–जे रत्नत्रयमां विघ्न उत्पन्न करनार छे तेने मन, वचन अने कायाथी रोकवा अने तेमनो त्याग करवो तेने ज प्रत्याख्यान कहे छे. आ प्रत्याख्यान १. अखंडित, २. साकार, ३. निराकार, ४. परिमान, प. इतरत्, ६. वर्तनीपात, ७. सहेतुक इत्यादि भेदथी १० प्रकारनुं छे.

६. व्युत्सर्ग–शरीरनुं ममत्व छोडीने विशेष प्रकारना आसनपूर्वक ध्यान करवुं ए व्युत्सर्ग नामनुं छठ्ठुं आवश्यक छे.

भावार्थः– आ रीते छ आवश्यकोनुं वर्णन कर्युं के जे मुनिओए अने श्रावकोए पण पाळवुं जोईए. मुनि अने श्रावकोए तेमनुं पालन प्रतिदिन जरूर करवुं जोईए तेथी ज एमनुं नाम आवश्यक छे. माटे मुनिओए तेनुं पालन सर्वदेश करवुं जोईए अने श्रावकोए पोतानी योग्यता अनुसार एकदेश करवुं जोईए. २०१.

त्रण गुप्तिओनुं वर्णन

सम्यग्दण्डो वपुषः सम्यग्दण्डस्तथा च वचनस्य।
मनसः सम्यग्दण्डो गुप्तीनां त्रितयमवगम्यम्।। २०२।।

अन्वयार्थः– [वपुषः] शरीरने [सम्यग्दण्डः] सारी रीते–शास्त्रोक्त विधिथी वश करवुं, [तथा] तथा [वचनस्य] वचननुं [सम्यग्दण्डः] सारी रीते अवरोधन करवुं [च] अने [मनसः] मननो [सम्यग्दण्डः] सम्यक्पणे निरोध करवो–आ रीते [गुप्तीनां त्रितयम्] त्रण गुप्तिओने [अवगम्यम्] जाणवी जोईए.

टीकाः– ‘वपुषः सम्यग्दण्डः तथा वचनस्य सम्यग्दण्डः च मनसः सम्यग्दण्डः इति गुप्तीनां त्रितयं समनुगम्यम्।’ अर्थः–शरीरने वश करवुं, वचनने वश करवां अने मनने वश करवुं–आ त्रणे गुप्ति जाणवी जोईए.

भावार्थः– गुप्ति नाम गोपववानुं अथवा छुपाववानुं छे. जेम के मननी क्रिया रोकवी एटले मननी चंचळता रोकी एकाग्रता करी लेवी ते मनगुप्ति छे तथा वचनने न बोलवा ते वचनगुप्ति छे अने शरीरनी क्रिया रोकवी अर्थात् स्थिर थई जवुं ते कायगुप्ति छे. आ त्रणे गुप्तिओमांथी मनोगुप्तिनुं पालन ज घणुं कठिन छे.


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जे मुनिने मनगुप्ति होय छे तेमने अवधिज्ञान अवश्य नियमथी होय छे. ज्यारे त्रणे गुप्ति थई जाय छे त्यारे आत्मध्यान होय छे. २०२.

पांच समिति

सम्यग्गमनागमनं सम्यग्भाषा तथैषणा सम्यक्।
सम्यग्ग्रहनिक्षेपौ
व्युत्सर्गः सम्यगिति समितिः।। २०३।।

अन्वयार्थः– [सम्यग्गमनागमनं] सावधानीथी सारी रीते गमन अने आगमन, [सम्यग्भाषा] उत्तम हितमितरूप वचन, [सम्यक् एषणा] योग्य आहारनुं ग्रहण, [सम्यग्ग्रहनिक्षेपौ] पदार्थनुं यत्नपूर्वक ग्रहण अने यत्नपूर्वक क्षेपण करवुं [तथा] अने [सम्यग्व्युत्सर्गः] प्रासुक भूमि जोईने मळ–मूत्रादिनो त्याग करवो–[इति] ए रीते आ पांच [समितिः] समिति छे.

टीकाः– ‘सम्यग्गमनागमनं सम्यग्भाषा तथा सम्यक् एषणा च सम्यग्ग्रहनिक्षेपः सम्यक् व्युत्सर्गः इति् (पंच) समितिः।’ अर्थः–१–ईर्यासमिति–बे घडी सूर्य ऊग्या पछी रस्तो प्रासुक थई गया पछी यत्नाचारपूर्वक चार हाथ प्रमाण जमीन जोई संभाळीने आववुं–जवुं.

२–भाषासमिति–हितकारी अने थोडां एवां वचन बोलवां के जे सांभळतां कोई पण प्राणीने दुःख न थाय.

३–एषणासमिति–छेंताळीस दोष, बत्रीस अंतराय टाळीने उत्तम कुलीन श्रावकने घेर आचारसहित विधिपूर्वक शुद्ध प्रासुक आहार एकवार लेवो.

४–आदाननिक्षेपणसमिति–यत्नाचारपूर्वक जोई संभाळीने पुस्तक, पींछी, कमंडळ वगेरे लेवुं–मूकवुं.

प–प्रतिष्ठापनासमिति–जोई संभाळीने निर्जीव स्थानमां कफ, मळ, मूत्र वगेरेनो त्याग करवो, लीलोतरी उपर अथवा भीनी जमीन पर मळत्याग न करवो. –आ रीते समितिनुं वर्णन कर्युं. आ पांचे समिति गुप्तिना पालनमां सहायक थाय छे अने जेवी रीते समितिनुं कथन कर्युं छे ते प्रकारे पालन तो मुनिमहाराज ज करे छे, तोपण जेटलुं बनी शके तेटलुं श्रावके पण पालन करवुं जोईए. जेम के श्रावके जोई संभाळीने चालवुं जोईए, ओछुं अने हितकारी वचन बोलवुं जोईए, शुद्ध प्रासुक आहार लेवो, बधी वस्तुओ जोई संभाळीने लेवी–मूकवी अने जोई


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संभाळीने जीवरहित स्थानमां मळ–मूत्र वगेरेनुं क्षेपण करवुं. ए रीते यथाशक्ति श्रावकोए पालन करवुं जोईए. २०३.

दश धर्मो

धर्मः सेव्यः क्षान्तिर्मृदुत्वमृजुता च शौचमथ सत्यम्।
आकिञ्चन्यं ब्रह्म त्यागश्च तपश्च संयमश्चेति।। २०४।।

अन्वयार्थः– [क्षान्तिः] क्षमा, [मृदुत्वम्] मार्दव, [ऋजुता] सरळपणुं अर्थात् आर्जव, [शौचम्] शौच, [अथ] पछी [सत्यम्] सत्य, [च] तथा [आकिंञ्चन्यं] आकिंचन, [ब्रह्म] ब्रह्मचर्य, [च] अने [त्यागः] त्याग, [च] अने [तपः] तप, [च] अने [संयमः] संयम–[इति] ए रीते [धर्मः] दश प्रकारनो धर्म [सेव्यः] सेवन करवा योग्य छे.

टीकाः– क्षान्तिः मृदुत्वं ऋजुता च शौचम् अथ सत्यम् आकिञ्चन्यं ब्रह्म च त्यागः च तपः च संयमः इति धर्मः सेव्यः। अर्थः–१–क्रोधनो त्याग करी क्षमा धारण करवी ते उत्तमक्षमा पहेलो धर्म छे. २–मान कषायनो त्याग करीने कोमळता धारण करवी ते उत्तम मार्दव नामनो बीजो धर्म छे. ३–मायाचार (कपट)नो त्याग करीने सरळता धारण करवी ते आर्जव नामनो त्रीजो धर्म छे. ४–लोभनो त्याग करी संतोष धारण करवो ते शौच नामनो चोथो धर्म छे. शौच नाम शुद्धिनुं छे. आ शुद्धि बे प्रकारनी छे. १ बाह्यशुद्धि, २ अंतरंगशुद्धि. स्नान वगेरेथी शरीरने पवित्र राखवुं ए बाह्यशुद्धि छे अने लोभकषायनो त्याग करवो ए अंतरंगशुद्धि छे. आ बन्ने प्रकारनी शुद्धि करवी एने ज शौचधर्म कहे छे. अहीं आ एक वात विचारवा जेवी छे के आ बन्ने शुद्धि गृहस्थ–श्रावकनी अपेक्षाए ज छे, मुनिनी अपेक्षाए नथी; कारण के मुनिमहाराजने तो अंतरंगशुद्धिनी ज मुख्यता छे.

प–बीजाने दुःख उत्पन्न करनार, निन्दनीय कपटी वचनो न बोलवां तेने सत्य कहे छे अने ए ज पांचमो उत्तम सत्यधर्म छे. ६–पांच इन्द्रियना विषयोने तथा मनना विषयने रोकवा अने छ कायना जीवोनी हिंसा न करवी एने ज संयम कहे छे. व्रतोनुं ध्यान करवाथी, समितिओनुं पालन करवाथी, कषायोनो निग्रह करवाथी अने मन–वचन–कायाने वश राखवाथी आ संयमनुं पालन थाय छे. ए ज छठ्ठो संयम धर्म छे. ७–जेवी रीते सोनानो मेल दूर करवा माटे अग्निनो ताप देवामां आवे छे तेवी ज रीते आत्मा साथे लागेलां कर्मो दूर करवाने माटे (सर्वज्ञ–वीतराग कथित)


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तप करवामां आवे छे. आ तप बार प्रकारना छे. ए सातमो तपधर्म छे. ८–लोकमां आहार, औषध, अभय अने ज्ञानदान आपवुं तेने त्यागधर्म कहे छे, परंतु ए त्याग पण साचो त्याग नथी. क्रोधादि कषायोनो त्याग करवो ते ज साचो त्याग छे. माटे प्रत्यक्षपणे मुनिमहाराज कांई दान करता नथी तोपण वास्तवमां कषायोनो त्याग करनार तेओ ज साचा दानी छे अने जे वखते जे जीवने लोभकषायनो त्याग थई गयो तेने बाह्य पदार्थोनो तो त्याग थई ज गयो, केमके लोभकषाय छोडया विना बाह्य वस्तुनो त्याग थतो नथी. तेथी एम सिद्ध थयुं के (तत्त्वज्ञानना बळ वडे) लोभादि कषायोनो त्याग करवो ए ज साचो त्याग छे, ते ज दान छे.

९–ममत्वबुद्धिनो त्याग करवो ते आकिंचन्य धर्म छे. चौद प्रकारना अंतरंग परिग्रह अने दस प्रकारना बाह्य परिग्रह–ए बन्ने प्रकारना परिग्रहनो त्याग करी देवो ते ज उत्तम आकिंचन्य धर्म छे. १०–संसारना सर्व पदार्थो प्रत्येथी मननी वृत्ति खसेडीने केवळ एक आत्मामां ज रमण करी शके ते ब्रह्मचर्य.

ए दशा ते वखते थई शके छे के ज्यारे आत्मा पांचे इन्द्रियोना विषयोने रोकवा माटे समर्थ होय तथा खास करीने स्पर्शेन्द्रियना विषय अर्थात् कायवासनाने जीतवा माटे समर्थ थई जाय, अने ते कायवासनानो त्याग त्यारे ज थाय छे के ज्यारे स्त्री मात्रनो त्यागी थाय अर्थात् संसारनी स्त्री मात्रने मन–वचन–कायाथी त्यागे. पण एवो त्याग तो केवळ एक मुनिमहाराज ज करी शके छे; श्रावक तो एकदेश त्याग करी शके छे अर्थात् पोतानी स्त्रीमां संतोष राखीने पोतानी स्त्री सिवाय बाकीनी संसारनी समस्त स्त्रीओने माता, बेन के पुत्री समान ज जाणे छे–ए ज एकदेश ब्रह्मचर्यनुं पालन छे.

भावार्थः– आ रीते आ दश धर्मोनुं वर्णन कर्युं. ते धर्मोनुं पालन करवुं ए प्रत्येक प्राणीनुं मुख्य कर्तव्य छे, कारण के आ ज दश धर्म मोक्षमार्गनुं साधन करवा माटे मुख्य कारण छे. २०४.

बार भावनाओनुं निरूपण

अध्रुवमशरणमेकत्वमन्यताऽशौचमास्रवो जन्मः।
लोकवृषबोधिसंवरनिर्जराः
सततमनुप्रेक्ष्याः।। २०५।।

अन्वयार्थः– [अध्रुवम्] अध्रुव, [अशरणम्] अशरण, [एकत्वम्] एकत्व, [अन्यता] अन्यत्व, [अशौचम्] अशुचि, [आस्रवः] आस्रव, [जन्म] संसार,


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[लोकवृषबोधिसंवरनिर्जराः] लोक, धर्म, बोधिदुर्लभ, संवर अने निर्जरा [एता द्वादशभावना] ए बार भावनाओनुं [सततम्] निरंतर [अनुप्रेक्ष्याः] वारंवार चिंतवन अने मनन करवुं जोईए.

टीकाः– ‘अध्रुवं अशरणं जन्म एकत्वं अन्यता अशौचं आस्रवः संवरः निर्जरा लोक बोधि वृषः इति द्वादश अनुप्रेक्ष्याः सततं भावनीयाः।’

अर्थः– १. अनित्य भावना–संसारनी समस्त वस्तुओ शरीर, भोगादि बधुं नाशवान छे, आत्मा नित्य छे, ध्रुव छे, माटे अध्रुव वस्तुने छोडीने ध्रुव वस्तुमां चित्त लगाववुं एने ज अनित्य भावना कहे छे.

२. अशरण भावना–आ जगतमां कोई कोईने शरण नथी, बधा प्राणी काळने वश छे, काळथी बचावनार कोई नथी. व्यवहारनयथी चार शरण छे–अर्हंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण अने जैनधर्मनुं शरण, अने वास्तवमां निश्चयनयथी केवळ पोतानो आत्मा ज शरण छे, बीजुं नहि. एवो (स्वसन्मुखता–सहित) विचार करवो ते आ बीजी अशरण भावना छे.

३. संसार भावना–संसार बहु दुःखरूप छे, चारे गतिमां कयांय पण सुख नथी. नरक गतिमां तो प्रगटरूप ताडन, भेदन–छेदन, इत्यादि घणां दुःख छे, तिर्यंच गतिमां भूख, तरस, घणो भार लादवो वगेरे दुःख छे. मनुष्य गतिमां पण अनेक चिंता, व्याकुळता वगेरे घणां दुःख छे, देवगतिमां पण विषय–वासना छे अने नाना देवो मोटा देवोनो वैभव जोईने दुःखी थाय छे, देवोनुं आयुष्य लांबुं अने देवांगनाओनुं आयुष्य टूंकुं होवाथी वियोगमां अवश्य दुःख थाय छे. मरणना छ मास अगाउ ज्यारे माळा करमावा लागे छे त्यारे अत्यंत खेद अने दुःख थाय छे वगेरे प्रकारे देवगतिमां पण घणां दुःख छे. एक सुख मात्र पंचमगति अर्थात् मोक्षमां छे तेथी प्रत्येक प्राणीए चार गतिरूप संसारथी उदासीन थईने पंचमगति प्राप्त करवानो उपाय करवो जोईए. आवुं हंमेशां चिंतन करता रहेवुं ते त्रीजी संसार भावना छे.

४. एकत्व भावना–आ आत्मा सदा एकलो ज छे. जन्ममां तथा मरणमां एकलो छे, तेनो कोई संगी नथी. ते सुख भोगववामां एकलो, संसारभ्रमण करवामां एकलो, निर्वाण थवामां पण एकलो. सदा आत्मा एकलो ज रहे छे, तेनो साथी कोई नथी एवुं हंमेशां विचारवुं तेने एकत्व भावना कहे छे.

प. अन्यत्व भावना–संसारना जेटला पदार्थो छे ते बधा जुदा जुदा छे, कोई पदार्थ कोई पदार्थमां मळेलो नथी, मन, वचन, काया ए बधां आत्माथी जुदां छे.


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ज्यारे आ शरीर, मन अने वचन पण आत्माथी जुदां छे तो आ प्रगटरूपे जुदां एवां घर, मकान वगेरे एक केवी रीते होई शके? आ जातनुं वारंवार चिंतवन करवुं ते अन्यत्व भावना छे.

६. अशुचि भावना–आ शरीर सदैव नवद्वारथी वहेता मळ–मूत्रनो खजानो महा अशुचिरूप छे अने आत्मा ज्ञानमय महा पवित्र छे, तो आत्मानो शरीरादिथी संबंध केवी रीते होई शके? एम वारंवार चिंतवन करवुं ते छठ्ठी अशुचि भावना छे.

७. आस्रव भावना–प मिथ्यात्व, १२ अविरति, २प कषाय, १प योग–ए आस्रवना प७ भेद छे. आ भेदो वडे आ जीव हंमेशां कर्मोनो आस्रव कर्या करे छे. ज्यांसुधी (शुद्धभावरूप संवर वडे) ते आस्रवोनो त्याग न थाय त्यांसुधी आ जीव संसारमांथी छूटी शकतो नथी. अर्थात् जीवने आ आस्रव ज दुःखदायक पदार्थ छे –एम वारंवार चिंतवन करवुं तेने ज आस्रवभावना कहे छे.

८. संवर भावना–कर्मोना आगमनने रोकवुं तेने ज संवर कहे छे. आ संवर ज संसारथी छोडावनार अने मोक्षमां पहोंचाडनार छे. पांच महाव्रत, पांच समिति, त्रण गुप्ति, दश धर्म, बार भावना, बावीस परिषह, पांच प्रकारना चारित्र –ए बधां संवरनां कारण छे. बधा प्राणीओए आ बधां कारणोने धारण करी संवरनी प्राप्ति करवी जोईए. –एवुं वारंवार चिंतवन करवुं तेने ज संवर भावना कहे छे.

९. निर्जरा भावना–कर्मोनो एकदेश क्षय थवो तेने निर्जरा कहे छे. आ निर्जरा बे प्रकारनी छेः सविपाक निर्जरा अने अविपाक निर्जरा. सविपाक निर्जरा तो संसारना समस्त जीवोने सदैव थया ज करे छे पण अविपाक निर्जरा तप वगेरे करवाथी ज थाय छे अने अविपाक निर्जरा विना जीव संसारथी मुक्त थई शकतो नथी. माटे मोक्षार्थी जीवोए आ अविपाक निर्जरा अवश्य करवी जोईए. –एवुं वारंवार चिंतवन करवुं तेने ज निर्जरा भावना कहे छे.

१०. लोक भावना–आ अनादिनिधन लोक कोईए बनाव्यो नथी, कोई एनो रक्षक नथी के कोई एनो नाश करनार नथी. ए स्वयंसिद्ध अविनाशी–कदी पण नाश न पामनार छे. आ लोकना त्रण भाग छे. अधोलोक, मध्यलोक अने ऊर्ध्वलोक. आ जीव अनादिकाळथी आ त्रणे लोकमां भ्रमण करी रह्यो छे. आ त्रणे लोकमां सुखनो अंश पण नथी, ए महान दुःखनी खाण छे. आ लोकनो निवास कयारे टूटे एवो वारंवार विचार करवो एने ज लोकभावना कहे छे.


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११. बोधिदुर्लभ भावना–संसारमां बधी ज वस्तुओ सुलभ छे अर्थात् शीघ्र ज बधाने प्राप्त थई शके छे, पण जो कांई दुर्लभ अने कठिन होय तो ते एक केवळज्ञान छे. अने केवळज्ञान विना आ जीवने मोक्ष मळी शकतो नथी, माटे प्रत्येक प्राणीए ते ज केवळज्ञाननी प्राप्ति करवामां तत्पर अने प्रयत्नशील थवुं जोईए. ज्यांसुधी केवळज्ञाननी प्राप्ति नहि थाय त्यांसुधी आ आत्मा संसारमां भ्रमण करतो ज रहेशे. तेथी हे आत्मा! जो तारे वास्तविक सुखनी प्राप्ति करवी होय तो तुं शीघ्र चार घातिकर्मोनो नाश करी शीघ्र ज केवळज्ञानने प्राप्त कर. –आ प्रकारनुं वारंवार चिंतवन करता रहेवुं तेने ज बोधिदुर्लभ भावना कहे छे.

१२. धर्मभावना–वास्तवमां जीवने सुख आपनारी वस्तु एक धर्म छे, केमके धर्म नाम स्वभावनुं छे. प्रत्येक वस्तुनो जे स्वभाव छे तेने ज धर्म कहे छे. ज्यारे ते द्रव्य पोताना स्वभावमां परिणमन करे छे त्यारे ते सुखी अने शुद्ध कहेवाय छे. आ आत्मानो जे ज्ञानगुण छे ते ज एनो धर्म छे. ज्यांसुधी ते ज्ञानधर्मनो अथवा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ए त्रणे धर्मोनो पूर्ण विकास नहि थाय त्यांसुधी आ आत्मा संसारना बंधनमांथी छूटी शकतो नथी.

उत्तम क्षमा, मार्दव वगेरे पण आत्माना ज धर्म छे तथा दया करवी ए पण आत्मानो धर्म छे. जोके आ धर्म प्रत्येक संसारी आत्मामां विराजमान छे तोपण ज्यांसुधी एनो आत्मामां विकास न थाय त्यांसुधी आ आत्मा संसाररूपी जेलमांथी छूटी शकतो नथी अर्थात् मोक्ष पामी शकतो नथी, माटे आ प्रमाणे वारंवार चिंतवन करता रहेवुं एने ज धर्मभावना कहे छे.–आ रीते बार भावनाओनुं वर्णन कर्युं केमके संसारथी वैराग्य उत्पन्न करवामां ए प्रधान सहायक छे. बार भावनाओनुं चिंतवन करवाथी आ वैराग्यनी पुष्टि थाय छे माटे एनुं सदैव चिंतवन करवुं जोईए. २०प.

बावीश परिषहो

क्षुत्तृष्णा हिममुष्णं नग्नत्वं याचनारतिरलाभः।
दंशो मशकादीनामाक्रोशो व्याधिदुःखमङ्गमलम्।। २०६।।

स्पर्शश्च तृणादीनामज्ञानमदर्शनं तथा प्रज्ञा।
सत्कारपुरस्कारः शय्या चर्या वधो निषद्या स्त्री।। २०७।।


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द्वाविंशतिरप्येते परिषोढव्याः परीषहाः सततम्।
संक्लेशमुक्तमनसा
संक्लेशनिमित्तभीतेन।। २०८।।

अन्वयार्थः– [संक्लेश मुक्तमनसा] संक्लेशरहित चित्तवाळा अने [संक्लेश– निमित्तभीतेन] संक्लेशना निमित्तथी अर्थात् संसारथी भयभीत साधुए [सततम्] निरंतर [क्षुत्] क्षुधा, [तृष्णा] तृषा, [हिमम्] शीत, [उष्णं] उष्ण, [नग्नत्वं] नग्नपणुं, [याचना] प्रार्थना, [अरतिः] अरति, [अलाभः] अलाभ, [मशकादीनां दंशः] मच्छरादिनुं करडवुं, [आक्रोशः] कुवचन, [व्याधिदुःखम्] रोगनुं दुःख, [अङ्गमलम्] शरीरनो मळ, [तृणादीनां स्पर्शः] तृणादिकनो स्पर्श, [अज्ञानम्] अज्ञान, [अदर्शनम्] अदर्शन, [तथा प्रज्ञा] ए ज रीते प्रज्ञा, [सत्कारपुरस्कारः] सत्कार–पुरस्कार, [शय्या] शयन, [चर्य्या] गमन, [वधः] वध, [निषद्या] बेसवुं ते, [च] अने [स्त्री] स्त्री–[एते] [द्वाविंशतिः] बावीस [परीषहाः] परीषह [अपि] पण [परिषोढव्याः] सहन करवा योग्य छे.

टीकाः– ‘क्षुत् तृष्णा हिमं उष्णं नग्नत्वं याचना अरतिः अलाभः मशकादीनां दंशः आक्रोशः व्याधिदुःखं अङ्गमलं तृणादीनां स्पर्शः अज्ञानं अदर्शनं तथा प्रज्ञा सत्कारपुरस्कारः शय्या चर्या वधः निषद्या स्त्री एते द्वाविंशतिः अपि परीषहाः संक्लेशमुक्तमनसा संक्लेशनिमित्तभीतेन सततं परिषोढव्याः।’ अर्थः–भूख, तरस, ठंडी, गरमी, नग्नपणुं, याचना, अरति, अलाभ, मच्छर वगेरेना डंश, निन्दा, रोगनु दुःख, शरीरनो मळ, कांटा वगेरे लागवा, अज्ञान, अदर्शन, ज्ञान, आदरसत्कार, शयन, चालवुं, वध, आसन अने स्त्री – ए बावीस परीषहोने मुनिओ संक्लेश दूर करीने अने संक्लेशभावथी डरता सदैव सहन करे छे. हवे अहीं बावीस परिषहोनुं संक्षेपमां वर्णन करे छेः–

१. क्षुधा परिषह–बधा जीवो भूखना कारणे घणा दुःखी थाय छे पण मुनिमहाराजने ज्यारे भूखनी पीडा होय त्यारे तेमणे एम विचारवुं जोईए के हे जीव! तुं अनादिकाळथी संसारमां भटकी रह्यो छे, तें अनेक प्रकारनी वस्तुओनुं भक्षण कर्युं छे पण आज सुधी तारी भूख शान्त थई नथी तथा नरकगतिमां पण खूब भूख सहन करी. हवे तुं अत्यारे मोक्षनी प्राप्ति माटे तैयार थई रह्यो छे, आ तारुं शरीर अहीं ज रही जशे तेथी (शान्त ज्ञानानंद स्वरूपमां लीनता वडे) भूखनो नाश करी दे के जेथी शीघ्र ज मोक्षनी प्राप्ति थई जाय. आ प्रकारनो विचार करतां मुनि भूखने जीते.


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२. तृषा परिषह–बधा जीवो तरसथी खूब दुःखी थाय छे. ज्यारे मुनिमहाराज उनाळाना वखते पर्वतनी टोच उपर बेठा होय छे अने तेमने तरस लागे छे ते वखते तेमणे एम विचारवुं जोईए के हे जीव! तें संसारमां भटकतां आखा संसारनुं पाणी पीधुं छे तोपण आ तरस छीपी नथी. नरकगति अने तिर्यंचगतिमां तें घणी तरस सहज करी छे अने त्यां थोडुं पण पाणी पीवा माटे मळ्‌युं नथी, तेथी हवे तुं तरस सहन कर अने आत्मध्यानमां मन लगाव के जेथी आ तरस कायमने माटे मटी जाय. आ रीते चिंतवन करीने तरसनी पीडा सहन करवी–एने ज तृषा परिषह कहे छे.

३. शीत परिषह–ठंडीथी संसारना प्राणीओ खूब दुःखी थाय छे. लीलांछम वृक्षो पण बळी जाय छे एवी पोष अने माह महिनानी ठंडीमां पण मुनिमहाराज सरोवर के नदीने किनारे बेसीने ध्यान करे छे. ते वखते ज्यारे ठंडीनी पीडा थाय छे तो ते मुनिमहाराज एवो विचार करे छे के हे जीव! तें अनादिकाळथी घणी ठंडी सहन करी छे अने ते ठंडी दूर करवाने घणा उपाय पण कर्या परंतु आज सुधी ठंडी मटी नथी. हवे तें मुनिव्रत धारण कर्यां छे, आ ज पदथी मोक्षनी प्राप्ति थशे, तेथी हे जीव! तुं आ ठंडीनी बाधा–पीडा सारी रीते सहन कर. आम चिंतवन–विचार करीने आत्मध्यानमां लीन थवुं तेने ज शीत परिषह कहे छे.

४. उष्ण परिषह–उनाळानी ऋतुमां सूर्य खूब तपी रह्यो छे, आखी दुनियाना प्राणीओ गरमीनी पीडाथी व्याकुळ थई रह्या छे. नदी, सरोवरनुं जळ सूकाई गयुं छे एवा वखते मुनिमहाराज पथ्थरनी शिला पर बेसीने एम विचार करे छे के हे आत्मा! तें अग्निपर्याय धारण करीने खूब गरमी सहन करी छे, नरकगतिमां खूब गरमी सहन करी छे, तो अत्यारे कई वधारे गरमी छे? आ वखते तो तें मुनिव्रत धारण कर्यां छे, आटली थोडीक गरमीनी बाधा आनंदथी सहन कर –आम चिंतवन करतां उष्ण परिषहने जीते छे–एने उष्ण परिषह कहे छे.

प. नग्न परिषह–मुनिराज समस्त प्रकारनां वस्त्रोनो त्याग करीने नग्नदिगंबरपणे रहेतां अखंड ब्रह्मचर्यनुं पालन करीने पोताना आत्मध्यानमां लीन रहे छे. नग्न रहेवाथी रंचमात्र दुःख मानता नथी पण हंमेशां पोताना आत्मामां लीन रहे छे–एने ज नग्न परिषह कहे छे.

६. याचना परिषह–मुनिराजने भले महिनाओ सुधी आहार न मळे, वर्षो सुधी पण न मळे छतां ते मुनिराज कदी कोई श्रावक पासे आहारनी याचना करता


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नथी, तेथी ज मुनिनी वृत्तिने सिंहवृत्ति कही छे. –आ रीते याचना परिषहने जीते छे.

७. अरति परिषह–जगतना जीवो इष्ट पदार्थ मळतां रति माने छे अने अनिष्ट पदार्थ मळतां अरति–खेद माने छे, पण ते परमयोगी भले जंगलमां रहे, कोई तेमने भला (सारा) कहे, कोई तेमने बूरा (खराब) कहे तोपण कदी पोताना चित्तमां खेद करता नथी. आ रीते अरति परिषहने जीते छे.

८. अलाभ परिषह–जेम आहार वगेरे न मळवाथी तेनी याचना करता नथी तेम महिनाओ सुधी आहारनी प्राप्ति न थवा छतां पण पोताना मनमां रंचमात्र पण खेद लावता नथी. ए रीते अलाभ परिषहनो जय करे छे.

९. दंशमशक परिषह–डांस, मच्छर, कीडी, मकोडा वगेरेना डंखनी पीडा संसारना प्राणीओ सहन करी शकता नथी, योगी पुरुषो ते बधानी बाधा–पीडा सहन करे छे. कीडा वगेरे जंतुओ नग्न शरीरने खूब बाधा–पीडा उत्पन्न करे छे, पण मुनिमहाराज मनमां खेद करता नथी. आ रीते दंशमशक परिषहने जीते छे.

१०. आक्रोश परिषह–जो कोई मुनिराजनी निंदा करे, कुवचन कहे, गाळ वगेरे दे तो तेने सांभळीने जरापण खेद करता नथी पण उत्तमक्षमा ज धारण करे छे. ए रीते योगीओ आक्रोश परिषह जीते छे.

११. रोग परिषह–पूर्वना अशातावेदनीय कर्मना उदयथी जो शरीरमां कोई पीडा थाय तो मुनिमहाराज ते रोगथी दुःखी थता नथी पण पोताना पूर्वकर्मनुं फळ जाणी आत्मध्यानमां लीन रहे छे. एने रोग परिषह कहे छे.

१२. मळ परिषह–मुनिमहाराजने स्नान वगेरे न करवाथी धूळ, परसेवो आदि आववाना कारणे मेल जेवुं जामी जाय छे पण तेना तरफ तेमनुं ध्यान जतुं नथी, कारण के पोताना आत्मगुणोमां ज लीन रहे छे. एने ज मळ परिषह कहे छे.

१३. तृणस्पर्श परिषह–चालती वखते अथवा बेसती वखते जीवोनी रक्षा करवामां तत्पर ते मुनिमहाराजने जो कांटा, कांकरा वगेरे पेसी जाय तो ते पीडा दूर करवा माटे कांई पण उपाय करता नथी परंतु पोताना आत्मध्यानमां ज लीन रहे छे तेने तृणस्पर्श परिषह कहे छे.

१४. अज्ञान परिषह–संसारना बधा प्राणीओ अज्ञानथी दुःखी थई रह्या छे. तेवी ज रीते जो कोई योगीने पूर्व ज्ञानावरणीय कर्मनो उदय थवाथी तथा घणुं


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तप करवा छतां पण तथा पठन–पाठननो उद्यम करवा छतां पण जो ज्ञाननी वृद्धि न थई शके तोपण ते मुनिराज पोताना मनमां खेद न करे के मने हजी सुधी ज्ञान न थयुं. एने अज्ञान परिषह कहे छे.

१प. अदर्शन परिषह–जगतना जीवो समस्त कार्यो पोताना प्रयोजननी सिद्धि माटे करे छे, त्यां जो पुरुषार्थ करवा छतां पण प्रयोजननी सिद्धि न थाय तो क्लेश माने छे, पण ते मुनिराज एवो विचार करता नथी के हुं खूब तप करुं छुं, स्वाध्याय करुं छुं, समस्त कषायो उपर विजय मेळवी चूकयो छुं, संयम पाळुं छुं, पण आज सुधीमां मने कोई ऋद्धि पेदा थई नहि, ज्ञानातिशय थयो नहि, तो शुं आ तप वगेरेनुं कांई फळ हशे के नहि?–ए प्रकारे तेमना मनमां कदी संशय थतो नथी एने अदर्शन परिषह कहे छे.

१६. प्रज्ञा परिषह–संसारना जीवोने जो थोडुं पण ज्ञान थई जाय तो तेनुं अभिमान करवा लागी जाय छे, पण मुनिमहाराजने अवधिज्ञान के मनःपर्ययज्ञान पण थई जाय तोपण तेमने पोताना ज्ञाननुं अभिमान–घमंड थतुं नथी, एने ज प्रज्ञा परिषह कहे छे.

१७. सत्कारपुरस्कार परिषह–देव, मनुष्य, तिर्यंच, संसारना बधा जीवो आदरसत्कारथी हर्षित थाय छे, सत्कार करनार प्रत्ये मैत्री राखे छे अने अनादर करनार प्रत्ये शत्रुता राखे छे. अज्ञानी जीव अनेक कुगुरुओ अने कुदेवोने पूज्या करे छे, पण मुनिमहाराजना मनमां एवी भावना उत्पन्न थती नथी के कोई पूजा करतुं नथी, अर्थात् तेओ कोईनी पासेथी आदर–सन्मान इच्छता नथी. आ रीते सत्कार–पुरस्कार–परिषहविजयी कहेवाय छे.

१८. शय्या परिषह–जगतना जीव विषयना अभिलाषी थईने कोमळ शय्या उपर शयन करे छे अने मुनिमहाराज वनवासी बनीने कांकरावाळी जमीन उपर पाछली राते एक पडखे थोडी निद्रा ले छे. क्षीण शरीरमां जो कांकरा के पथ्थर वागे तोपण दुःख मानता नथी, परंतु एवी भावना भावे छे के हे आत्मा! तें नरकमां तीव्र वेदना सहन करी छे, त्यांना जेवी बीजी कोई विषभूमि नथी, एनो तुं नकामो खेद करे छे. तें त्रैलोकयपूज्य जिनमुद्रा धारण करी छे, तुं मोक्षने इच्छे छे तेथी मोहरूपी निद्राने जीत, सदा जाग्रत था, पोताना स्वरूपमां मग्न था. आ रीते शय्या परिषहने जीते छे.


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१९. चर्य्या परिषह–गमन करतां संसारना जीवो घोडा, हाथी, रथ, पालखी वगेरे उपर बेसीने गमन करे छे तथा तिर्यंच पण गमन करवामां दुःख माने छे, पण मुनिमहाराज सदैव मार्ग जोईने चाले छे. कांकरा, पथ्थर, कांटा वगेरे खूंचतां जराय खेद मानता नथी. आ रीते चर्य्या परिषहने जीते छे.

२०. वध परिषह–भववासी जीव मारवा–पीटवाथी सदा डरे छे, पण मुनिमहाराजने जो कोई मारे, पीटे, बांधे, कोई कांई पण करे, छतां रंचमात्र पण खेद पामता नथी. तेओ एवी भावना राखे छे के हे आत्मा! तुं तो अविनाशी चिदानन्दमय छो, तने दुःख आपनार कोण छे? तने कोण मारी शके छे? कोण पीटी शके छे? आम वध परिषहने जीते छे.

२१. निषद्या परिषह– संसारना समस्त जीव उत्तम मनोज्ञ स्थानमां बेसीने सुख माने छे, पण मुनिमहाराज सकळ परिग्रहनो त्याग करी निर्जन वनमां ज्यां सिंह वगेरे अनेक क्रूर जानवरो वसे छे त्यां पर्वतनी गुफाओमां, शिखरो उपर अथवा स्मशान भूमिमां निवास करे छे परंतु रंचमात्र पण दुःख मानता नथी. आ रीते निषद्या परिषहने जीते छे.

२२. स्त्री परिषह– जगतना जीव घणुं करीने बधी स्त्रीओ द्वारा पोताने सुखी माने छे अने तेनी साथे हास्य–कुतूहलनी वातो करीने आनंद माने छे. पण मुनिमहाराज सारी सारी सुंदर स्त्रीओनां सुंदर वचनो सांभळवा छतां पण हावभाव–विलास–विभ्रम–कौतुकनी क्रियाओ जोवा छतां पण जराय विचलित थता नथी पण अखंड ब्रह्मचर्यनुं पालन करी पोताना आत्मध्यानमां लीन रहे छे. आ रीते स्त्री परिषहने जीते छे.–आ रीते बावीस परिषह निरंतर सहन करवा जोईए. जे मुनि संसारपरिभ्रमणना दुःखथी कंपायमान छे ते द्रढ चित्तवाळा बनीने बावीस परिषहो सहन करे, कायरता न करे. जे मुनिराज परिषह सहन करी शकता नथी तेमनुं चित्त निश्चल थई शकतुं नथी अने चित्तनी निश्चलता विना ध्यान थई शकतुं नथी, ध्यान विना कर्मोनो नाश थई शकतो नथी अने कर्मोनो नाश थया विना मोक्ष थई शकतो नथी; तेथी मोक्षना अभिलाषीए अवश्य ज परिषह सहन करवा जोईए. आ रीते बावीस परिषहोनुं वर्णन कर्युं. २०८.

आगळ एम बतावे छे के मोक्षाभिलाषीए रत्नत्रयनुं सेवन करवुं जोईए.

इति रत्नत्रयमेतत्प्रतिसमयं विकलमपि गृहस्थेन।
परिपालनीयमनिशं
निरत्ययां मुक्तिमभिलषिता।। २०९।।


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अन्वयार्थः– [इति] आ रीते [एतत्] पूर्वोक्त [रत्नत्रयम्] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय [विकलम्] एकदेश [अपि] पण [निरत्ययां] अविनाशी [मुक्तिम्] मुक्तिने [अभिलषिता] चाहनार [गृहस्थेन] गृहस्थे [अनिशं] निरंतर [प्रतिसमयं] समये समये [परिपालनीयम्] सेववा योग्य छे.

टीकाः– ‘इति एतत् रत्नत्रयं प्रतिसमयं विकलं अपि निरत्ययां मुक्तिं अभिलषिता गृहस्थेन अनिशं परिपालनीयम्।’ अर्थः–आ रीते आ रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्रनुं गृहस्थ श्रावके पण एकदेशपणे सदैव मोक्षने इच्छतो थको पालन करवुं जोईए.

भावार्थः– मुनिने रत्नत्रय पूर्णरूपे छे अने गृहस्थ श्रावक सम्पूर्ण रत्नत्रयनुं पालन करी शकतो नथी तेथी तेणे एकदेश पालन करवुं जोईए पण रत्नत्रयथी विमुख थवुं न जोईए, केमके रत्नत्रय ज मोक्षनुं कारण छे. मुनिने रत्नत्रय महाव्रतना योगथी साक्षात् मोक्षनुं कारण छे अने श्रावकने अणुव्रतना योगथी परंपरा मोक्षनुं कारण छे, अर्थात् जे श्रावकने सम्यग्दर्शन थई जशे तेनुं अल्पज्ञान पण सम्यग्ज्ञान अने अणुव्रत पण सम्यक्चारित्र कहेवाशे, तेथी रत्नत्रयनुं धारण करवुं घणुं जरूरी छे.

सात तत्त्वोनी श्रद्धा करवी ते व्यवहारसम्यग्दर्शन अने निजस्वरूपनी श्रद्धा अर्थात् स्वानुभव थवो ते निश्चयसम्यग्दर्शन छे. जिनागमथी आगमपूर्वक जे साते पदार्थोने जाणी लेवा ते व्यवहारसम्यग्ज्ञान अने निजस्वरूपनुं भान अर्थात् आत्मज्ञान थवुं ते निश्चयसम्यग्ज्ञान छे. अशुभकार्योनी निवृत्तिपूर्वक शुभकार्योमां प्रवृत्ति करवी ते व्यवहारसम्यक्चारित्र अने शुभप्रवृत्तिथी पण निवृत्त थईने शुद्धोपयोगरूप निजस्वरूपमां स्थिर थवुं ते निश्चयसम्यक्चारित्र छे.–आ रीते संक्षेपथी रत्नत्रयनुं श्रावके एकदेशपणे अवश्य ज पालन करवुं जोईए. रत्नत्रय विना कोईनुं पण कल्याण नथी. २०९.

गृहस्थोए शीघ्र मुनिव्रत धारण करवुं जोईए, एम बतावे छेः–

बद्धोद्यमेन नित्यं लब्ध्वा समयं च बोधिलाभस्य।
पदमवलम्ब्य मुनीनां कर्त्तव्यं सपदि परिपूर्णम्।। २१०।।

अन्वयार्थः– [च] अने आ विकलरत्नत्रय [नित्यं] निरंतर [बद्धोद्यमेन] उद्यम करवामां तत्पर एवा मोक्षाभिलाषी गृहस्थे [बोधिलाभस्य] रत्नत्रयना लाभनो