Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ १७

आहारिणो जीवा’ इत्यागमाभ्युपगमात् द्वितीयपक्षे तु देवदेहस्थित्या व्यभिचारः देवानां सर्वदा कवलाहाराभावेऽप्यस्याः संभवात् अथ मानसाहारात्तेषां तत्स्थितिस्तर्हि केवलिनां कर्मनोकर्माहारात् सास्तु अथ मनुष्यदेहस्थितित्वादस्मदादिवत्सा तत्पूर्विका इष्यते तर्हि तद्वदेव तद्देहे सर्वदा निःस्वेदत्वाद्यभावः स्यात् अस्मदादावनुपलब्धस्यापि तदतिशयस्य तत्र संभवे भुक्त्यभावलक्षणोऽप्यतिशयः किं न स्यात् किं च अस्मदादौ दृष्टस्य धर्मस्य भगवति सम्प्रसाधने तज्ज्ञानस्येन्द्रिय जिनतत्वप्रसंगः तथा हिभगवतो ज्ञानमिन्द्रियजं आहारिणो जीवाः’ सयोग केवली सुधीना जीवो आहारक छे.एम आगमथी जाणवा मळे छे. जो बीजो पक्ष कवलाहारनो ल्यो तो देवोना देहनी स्थिति साथे व्यभिचार आवे छे; कारण के (स्वर्गना) देवोने सदा कवलाहारनो अभाव होवा छतां पण देहनी स्थिति तो संभवे छे. (तेथी कवलाहारथी ज देहनी स्थिति टके छे ते मान्यता खोटी ठरे छे.)

हवे (त्यां) जो एम कहेवामां आवे के देवोने मानसिक आहार छे, तेनाथी तेमना देहनी स्थिति टके छे, तो केवलीओने कर्म - नोकर्मना आहारथी देहनी स्थिति टके छे; एम मानो.

हवे जो एम कहेवामां आवे के आपणा जेवाना मनुष्य देहनी माफक केवली भगवानने मनुष्य देहनी स्थिति छे, तेथी आपणा देहनी जेम (तेथी जेम आपणा देहनी स्थिति आहारपूर्वक छे तेम) केवली भगवानना देहनी स्थिति आहारपूर्वक मानवी जोईए. तो तेनो उत्तर ए छे के जेवी रीते केवली भगवानना शरीरमां सर्वदा परसेवादिनो अभाव छे, तेवी ज रीते आपणा आदिना शरीरमां पण सर्वदा परसेवादिनो अभाव होवो जोईए, (केम के बंनेमां मनुष्य शरीरत्वरूप हेतु विद्यमान छे.) एना उत्तरमां हवे जो एम कहेवामां आवे के आपणा जेवाना शरीरमां ते अतिशय संभवतो नथी, (जेथी परसेवादिनो अभाव होय) परंतु केवली भगवानमां ए अतिशय संभवे छे (जेना कारणे तेनामां शरीरमां परसेवो आदि नथी होतां). तो पछी (ज्यारे केवली भगवानने परसेवादिना अभावनो अतिशय मानवामां आवे छे त्यारे) तेमने भोजनना (कवलाहारना) अभावरूप अतिशय पण केम न संभवे?

वळी बीजी वात ए छे, के जे धर्म आपणा जेवामां जोवामां आवे छे तेवो धर्म जो अर्हंत भगवानमां पण सिद्ध करवामां आवे, तो तेमना ज्ञानने इन्द्रियजनित होवानो १. ‘अथ मानसाहारास्तेषां तत्रस्थितिस्तर्हि केवलिनां कर्मनोकर्माहारात्’ इति पाठो घ पुस्तके नास्ति २. ‘तर्हि’ इति ख, ग पुस्तकयोर्नास्ति ३. तज्ज्ञानस्येन्द्रियजत्वघ०