Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ १९

तत्परमप्रकर्षप्रसिद्धेर्वीतरागतासंभवे भोजनाभावपरमप्रकर्षोऽपि तत्र किं न स्यात्, तद्भावनातो भोजनादावपि हान्यतिशयदर्शनाविशेषात् तथा हिएकस्मिन् दिने योऽनेकवारान् भुंक्ते, कदाचित् विपक्षभावनावशात् स एव पुनरेकवारं भुंक्ते कश्चित् पुनरेकदिनाद्यन्तरित- भोजन; अन्यः पुनः पक्षमाससंवत्सराद्यन्तरितभोजन इति किं चबुभुक्षापीडानिवृत्ति- र्भोजनरसास्वादनाद्भवेत् तदास्वादनं चास्य रसनेन्द्रियात् केवलज्ञानाद्वा ? रसनेन्द्रियाच्चेत् मतिज्ञानप्रसंगात् केवलज्ञानाभावः स्यात् केवलज्ञानाच्चेत् किं भोजनेन ? दूरस्थस्यापि त्रैलोक्योदरवर्तिनो रसस्य परिस्फु टं तेनानुभवसंभवात् कथं चास्य

जो एम कहेवामां आवे के विपक्ष (विरुद्ध - विपरीत) भावनाना वशथी रागादिनी हीनतानो अतिशय जोवामां आवे छे (अर्थात् रागादिकथी विरुद्ध भावना करवाथी रागादिकमां ह्नास जोवामां आवे छे). केवली भगवानमां तेनी (रागादिकना ह्नासनी) परम प्रकर्षता (चरम सीमा) सिद्ध होवाथी तेमने वीतरागता संभवे छे. (तेमनी वीतरागतामां बाध आवतो नथी.) तेनो उत्तर ए छे के जो एम छे, तो तेमनामां भोजनना अभावनी परम प्रकर्षता पण केम न होई शके? कारण के भोजनना अभावनी भावनाथी भोजनादिकमां पण (सामान्य मनुष्य अने भगवान बंनेमां) अविशेषपणे ह्नासनो अतिशय जोवामां आवे छे.

ते आ प्रमाणे - जे एक दिवसमां अनेकवार भोजन करे छे ते ज विपक्ष भावनाथी (रागना - इच्छाना अभावस्वरूप भावनाथी) कदाचित् एकवार भोजन करे छे. कोई तो एक दिवसना आंतरे भोजन करे छे, तो वळी अन्य कोई पक्ष, मास, वर्षादिना आंतरे भोजन करे छे.

वळी बीजी वात ए छे के अरहंत भगवानने जो बुभुक्षा संबंधी पीडानी निवृत्ति भोजनना रसास्वादथी थती होय तो अमे पूछीए छीए, के ते रसास्वादन तेमने रसनेन्द्रियथी थाय छे के केवलज्ञानथी? जो रसनेन्द्रियथी थाय छे एम कहो तो तेमने मतिज्ञाननो प्रसंग आववाथी केवलज्ञाननो अभाव थाय. आ दोषथी बचवाने माटे जो केवलज्ञानथी रसास्वादन थाय छे एम कहो तो भोजननी शी जरूर छे? कारण के दूर रहेवा छतां पण त्रण लोकनी अंदर वर्तता रसनो परिस्पष्ट (प्रत्यक्ष) अनुभव केवलज्ञान द्वारा थई शके छे.