Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


Page 10 of 315
PDF/HTML Page 34 of 339

 

२० ]

रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

केवलज्ञानसंभवो भुंजानस्य श्रेणीतः पतितत्वं प्रमत्तगुणस्थानवर्तित्वात् अप्रमत्तो हि साधुराहारकथामात्रेणापि प्रमत्तो भवति नार्हन्भुजानोऽपीति महच्चित्रं अस्तु तावज्ज्ञानसंभवः तथाप्यसौ केवलज्ञानेन पिशिताद्यशुद्धद्रव्याणि पश्यन् कथं भुंजीत अन्तरायप्रसंगात् गृहस्था अप्यल्पसत्वास्तानि पश्यन्तोऽन्तरायं कुर्वन्ति किं पुनर्भगवाननन्तवीर्यस्तन्न कुर्यात् तदकरणे वा तस्य तेभ्योऽपि हीन सत्त्वप्रसंगात् क्षुत्पीडासंभवे चास्य कथमनन्तसौख्यं स्यात् यतोऽनन्तचतुष्टयस्वामितास्य न हि सान्तरायस्यानन्तता युक्ता ज्ञानवत् न च बुभुक्षा पीडैव न भवतीत्यभिधातव्यं ‘‘क्षुधासमा नास्ति शरीरवेदना’’ इत्यभिधानात् तदलमतिप्रसंगेन प्रमेयकमलामार्तण्डे न्याय-

वळी एक वात आ पण छे के भोजन करनार अर्हंत भगवानने केवलज्ञान केवी रीते संभवी शके? कारण के भोजन करवाथी श्रेणीथी नीचे पडवाथी ते प्रमत्त गुणस्थानवर्ती थई जशे. ज्यारे अप्रमत्त साधु आहारनी कथा करवा मात्रथी पण खरेखर प्रमत्त थाय छे त्यारे अरहंत भगवान भोजन करता थका पण प्रमत्त न थाय ते महान आश्चर्य छे अथवा घडीभर केवलज्ञान मानी पण लेवामां आवे तोपण तेओ केवलज्ञान द्वारा मांस आदि अशुद्ध द्रव्योने देखता थका अंतरायनो प्रसंग आववाथी केवी रीते भोजन करी शके? अल्प शक्तिवाळा गृहस्थो पण मांसादि अशुद्ध द्रव्योने देखता थका अंतराय करे छे (पामे छे) तो पछी अनंत वीर्यवान भगवान शुं अंतराय न करे? (तो अनंत वीर्यवान भगवान शा माटे अंतराय न पामे?) वळी जो ते भगवान अंतराय न करे तो तेमने तेमनाथी (गृहस्थोथी) पण हीन शक्ति होवानो प्रसंग आवे.

जो तेमने क्षुधा संबंधी पीडा होय तो तेमने अनंत सौख्य केवी रीते होई शके? (न ज होई शके.) कारण के तेमने अनंत चतुष्टयनुं स्वामीपणुं तो नियमथी होय छे. जे अंतराय सहित होय तेनी अनंतता घटती नथी, ज्ञाननी माफक. (अर्थात् जेवी रीते अंतराय सहित ज्ञानमां अनंतता घटी शकती नथी, तेवी रीते अंतराय सहित सुखमां अनंतता घटी शकती नथी.)

वळी ‘बुभुक्षा पीडा ज नथी’ एम कही शकाशे नहि, केम के क्षुधासमा नास्ति शरीरवेदना’ क्षुधानी समान बीजी कोई शरीर वेदना नथी - एवुं वचन छे. माटे बहु विस्तारथी बस थाओ, कारण के प्रमेयकमलमार्तण्डमां अने न्यायकुमुदचंद्रोदय १. अप्रमत्तोऽपि ख २. सत्त्वानि ख, ग ३. हीनत्व ख