Ratnakarand Shravakachar-Gujarati (Devanagari transliteration).

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कहानजैनशास्त्रमाळा ]

रत्नकरंडक श्रावकाचार
[ २१

कुमुदचन्द्रे च प्रपञ्चतः प्ररूपणात् ।।।। ग्रंथमां विस्तारथी तेनुं निरूपण करवामां आव्युं छे.

भावार्थ :आप्तमां (साचा देवमां) क्षुधा, तृषादि अढार दोषो होता नथी, तेथी तेओ वीतराग कहेवाय छे. आ दोषोमां भय, राग, द्वेष, मोह, चिन्ता, खेद, मद (गर्व), रति, विस्मय (आश्चर्य), उद्वेग (शोक)आ दोषो तो मोहनीयकर्मना अभावमां नष्ट थई गया छे. निद्रा दर्शनावरण कर्मना अभावमां नष्ट थई जाय छे. क्षुधा, तृषा, घडपण, रोग, स्वेद (परसेवो)ए शरीरनी अवस्थाओ छे. भगवानने परम औदारिक शरीर होवाथी आ दोषोनो पण अभाव होय छे. जन्म तथा मरण तो कर्म सहित जीवोने होय छे. भगवान तो जीवनमुक्त छे अने सर्व कर्मोनो नाश करी देहमुक्त थाय छे, तेथी आ अढार दोषो या तेना सहचररूप आत्मा अथवा शरीर संबंधी अन्य कोईपण दोष आप्तमां होता नथी. आ दोषोमां क्या दोषो जीवाश्रित छे अने क्या दोषो शरीराश्रित छे, ते जाणी विवेक करवो योग्य छे.

विशेष

केटलाक भगवानने कवलाहार माने छे, कारण के तेमनी मान्यता प्रमाणे कवलाहार विना देहनी स्थिति होई शके नहि. परंतु ते मान्यता बराबर नथी, कारण के देवोने कवलाहार नथी छतां तेमना देहनी स्थिति सागरोपर्यन्त बनी रहे छे. तेमनी देहनी स्थितिनुं कारण मानसिक आहार छे, तेम भगवाननी देहनी स्थितिनुं कारण कर्म - नोकर्म आहार छे, नहि के कवलाहार. कह्युं छे के

‘णोकम्मकम्माहारो कवलाहारो य लेपमाहारो
उज्जमणो वि य कमसो आहारो छब्बिहो भणियो ।।।।
णोकम्मं तित्थयरे कम्मं णिरयेय माणसो अमरे
कवलाहारो णरपसु उज्जो पक्खी च इगि लेपो ।।।।

अर्थ :नोकर्म आहार, कर्म आहार, कवलाहार, लेपाहार, ओज आहार अने मानसिक आहार - एम आहार छ प्रकारना कह्या छे. ४.

तीर्थंकर भगवानने नोकर्म वर्गणाना ग्रहणरूप आहार होय छे, नारकीने कर्म भोगववारूप आहार होय छे, देवोने मानसिक आहार होय छे, (तेमने मनमां इच्छा थतांनी साथे कंठमांथी अमृत झरे छे, तेनाथी तेमने तृप्ति थाय छे.) मनुष्य अने पशुओने